वृत्तचित्र को हम अंग्रेजी में डाक्यूमेंट्री कहते हैं। डाक्यूमेंट्री किसी व्यक्ति, संस्था, समाज, संस्कृति, स्थान, देश, क्षेत्र या किसी भी अन्य विषय के बारे में दी गई प्रामाणिक जानकारी का माध्यम है। इस प्रामाणिक जानकारी की प्रस्तुति के लिए इसमें संदर्भ सामग्री का उल्लेख, साक्षात्कार, वाइस ओवर, वृतान्त, संगीत एवं ध्वनि प्रभावों का सुविधानुसार उपयोग किया जाता है। जिस विषय पर फिल्म बनाने के लिए काम किया जा रहा है, उस विषय पर फिल्मकार ने कितना अध्ययन किया है। यह बात का अनुमान फिल्म को देखकर उसके दर्शक लगा लेते हैं।
मसाला फिल्मों से अलग डॉक्युमेन्ट्री के दर्शक होते हैं। आम तौर पर यह सिनेमा की समझ रखने और पढ़ने—लिखने में रूचि लेने वालों का वर्ग है। इसलिए डाक्यूमेंट्री फिल्म को बनाते हुए, उसकी पटकथा पर अधिक मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि पूरी फिल्म की नींव पटकथा है। कमजोर पटकथा हाथ में लेकर, अच्छी डाक्यूमेंट्री नहीं बन सकती। यदि कहें कि डॉक्यूमेन्ट्स से डॉक्यूमेंट्री बना तो गलत नहीं होगा। फिल्म का मतलब दस्तावेज और दस्तावेजीकरण। डॉक्युमेन्ट्री फिल्में सिर्फ मनोरंजन का माध्यम भर नहीं है। यह समाज को शिक्षित और जागरूक भी करती है।
पिछले कुछ समय में व्यक्ति परक, सांस्कृतिक अथवा ऐतिहासिक डॉक्युमेन्ट्री फिल्मों की संख्या बढ़ी है। केरला स्टोरीज (2023), कश्मीर फाइल्स (2022), द ताशकंद फाइल्स (2019), बस्तर द नक्सल स्टोरी (2024) जैसी मुख्य धारा की बनी फिल्में भी ‘डॉक्युमेन्ट्री’ महत्व की फिल्में हैं। बीते दस सालों में नए नैरेटिव के साथ फिल्मों का एक बड़ा बाजार निर्मित हुआ है। सच्चाई यही है कि दशकों से इस देश में डॉक्युमेन्ट्री के नाम पर एनजीओ और कांग्रेसी इको सिस्टम के वामपंथी संगठनों द्वारा प्रोपगेन्डा बनाकर परोसा जाता रहा। यह सब इस देश में बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से हुआ। इसके लिए कांग्रेस की सरकारों ने फिल्मकारों को आर्थिक मदद उपलब्ध कराई, वामपंथी संगठनों ने कन्टेन्ट पर काम किया और अपने ही लोगों से फिल्में बनवाई। उन फिल्मों में जाति के नाम पर आपसी टकराव को खूब उभारा गया। वहीं दूसरी तरफ हिन्दू—मुस्लिम एकता को साबित करने पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए।
कांग्रेस की वामपंथी फिल्म लॉबी के काम काज में यह विरोधाभास साफ साफ दिखाई दे रहा था कि जो कॉमरेड हिन्दू मुस्लिम एकता की तख्ती लेकर प्रेम की दूकान चला रहे थे। वही लोग जाति के नाम पर समाज में नफरत भी बो रहे थे। उनका नेता भरी सभा में एक युवक को बुलाकर पूछ लेता है कि तुम्हारी जाति क्या है? उनका पत्रकार चुनाव कवरेज के दौरान सड़क चलते व्यक्ति को पकड़ कर पूछता है कि कौन जात हो? उनकी फिल्मों के पटकथा लेखक जावेद अख्तर, खालिद मोहम्मद, के आसिफ, शमा जैदी या फिर अमजद खान की फिल्मों में नमाज पढ़ने वाला आज तक धूर्त दिखाया गया है क्या? वह फिल्म में सच्चा मुसलमान ही रहा। ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू चाहे धूर्त, पाखंडी, अंधविश्वासी और दूसरी स्त्रियों पर बुरी नजर रखने वाला हो सकता था। भारतीय समाज ने दशकों से यही सब फिल्मों में देखा। सन्यासी को बलात्कारी दिखाने वाली वेबसीरीज ‘आश्रम’ को सच्ची घटना पर आधारित कहकर प्रचाारित किया गया। एमएक्स प्लेयर पर उसका तीसरा सीजन चल रहा है। आश्रम चार पिछले साल ही एमएक्स प्लेयर पर रिलीज होने वाली थी। किसी कारण से नहीं हो पाई। इस साल उसके रिलीज होने की उम्मीद है।
दूसरी तरफ अजमेर सेक्स स्कैंडल पर बनी फिल्म अजमेर 92 का पिछले साल रिलीज होने से पहले विरोध शुरू हो गया था। उस सेक्स स्कैंडल के तार अजमेर की दरगाह और कांग्रेस के नेताओं से भी जुड़े थे। जहां पीड़िता बड़ी संख्या में हिन्दू थी। आरोपी मुस्लिम। पूरे मामले को कांग्रेस की सरकार ने अपनी पूरी ताकत लगाकर दबाया। बताया जाता है कि उस सेक्स स्कैंडल की चपेट में कई हजार लड़कियां आई थी। यह सेक्स स्कैंडल इतना बड़ा बन गया कि 90 के दशक में अजमेर में लड़कियों की शादी में मुश्किल आने लगी। बेटियों को परिवार के लोग संदेह की नजर से देखने लगे थे। 32 सालों के बाद भी स्थितियां बदली नहीं हैं। संदेशखाली की जो घटना पश्चिम बंगाल से सामने आई, वह अजमेर 92 को दुहराने जैसा ही लग रहा है। जहां पूरी सरकार मुख्य आरोपी शाहजहां शेख को जी जान से बचाने में लगी हुई थी।
अजमेर 1992 हो या संदेशखाली 2024, इन कहानियों को सामने लाने में डॉक्युमेन्ट्री फिल्में अहम भूमिका निभा सकती हैं। इसका बजट कम होता है और यह फिल्में समाज को दिशा दिखाने में ‘जागरण श्रेणी’ का काम करती हैं।
यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि कांग्रेस के संरक्षण की वजह से इप्टा (इंडियाज पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के लोग फिल्म इन्डस्ट्री में भरे हुए थे। वॉलीवुड के अंदर संस्कार भारती के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता था। सिर्फ फिल्म नहीं, साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता सभी के प्रवेश द्वार पर वामपंथी दरबान कांग्रेस ने लगाए हुए थे। उन दरवाजों से वामपंथियों का प्रवेश सबसे सुगम तरीके से होता था। इस तरह विद्यार्थी जीवन में अभिनय, साहित्य, कला, इतिहास, संगीत से जुड़ाव महसूस करने वाले छात्र दरवाजे पर ही पकड़ कर वाम की तरफ मोड़ दिए जाते थे।
अब पीयूष मिश्रा जैसे वामपंथियों के बीच से निकल कर आए अभिनेता ही कह रहे हैं कि कम्यूनिस्टों ने सिखाया कि मां गंदी चीज है, बाप गंदी चीज है, परिवार गंदी चीज है। उन्होंने शराब की लत लगाई। उन लोगों ने जिन्दगी के बीस साल खराब किए। पीयूष एक साक्षात्कार में बताते हैं कि मां बाप वामपंथियों के समाज का हिस्सा नहीं होते। उनका समाज मां बाप विहीन समाज है। कम्यूनिस्ट का मतलब है खराब बेटा। खराब पति। खराब बाप।
वास्तव में सत्ता में रहते हुए कांग्रेसी इको सिस्टम ने अपने लिए वामपंथी सिपहसालार तैयार किए। जो कला, संस्कृति, साहित्य और अकादमिक क्षेत्र में कांग्रेस के लिए पहरेदारी करते थे। इसी इको सिस्टम ने शुभमश्री की देवी सरस्वति को अभद्रतापूर्वक चित्रित करती तुकबंदी को महान कविता कहकर सम्मानित कराया। इसी इको सिस्टम ने अपनी मां की तस्वीर सिर से पैरों तक ढक कर बनाने वाले मकबूल फिदा हुसैन को उस वक्त का महान चित्रकार कहकर प्रचारित किया, जब उसने करोड़ो हिन्दूओं की मां देवी सरस्वति की न्यूड तस्वीर बनाई थी। यही इको सिस्टम था जो हिन्दू मुस्लिम एकता की बात तो खूब करता लेकिन दलित सवर्ण प्रेम को लेकर हमेशा चुप्पी साध कर रखता। उसकी कोशिश रही कि हिन्दू समाज अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा, अति पिछड़ा, अन्य पिछड़ा जैसे दर्जनों वर्गो में बंट जाए। हिन्दू समाज को बांटने के लिए उसने समाज के फाल्ट लाइन पर काम किया। उनकी चोरी पकड़ी गई है और इसलिए अब उनकी कोई चालाकी चल नहीं पा रही है।
सेक्युलरिज्म की आड़ में हिन्दू विरोधी कृत्य
भारत में दशकों से एक खास तरह के नैरेटिव के साथ फिल्में बनती रहीं हैं। इन दिनों ‘स्वतंत्रवीर सावरकर’ के ऐतिहासिक प्रयास को 22 मार्च की रिलीज से पहले ही अफवाह फैलाकर कम करने की कोशिश की जा रही है। जबकि समाज में घटी हुई घटनाओं को केन्द्र में रखकर फिल्म बनाने का एक लंबा इतिहास रहा है। वामपंथी एजेन्डे को पुष्ट करने वाली कुछ फिल्मों के नाम से इस बात को समझा जा सकता है।
- बाबू जनारधन की मलयालम फिल्म बॉम्बे मार्च 12। 2011 । मुम्बई 93 दंगे पर
- मणीरत्नम की बॉम्बे । 1995 । मुम्बई 93 दंगे पर
- अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राईडे’। 2004 । मुम्बई 93 दंगे पर
- निशिकांत कामत की मुंबई मेरी जान । 2008 । 11 जुलाई 2006 को मुम्बई में हुए ट्रेन ब्लास्ट पर
- राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘द अटैक्स ऑफ 26/11’। 2013 । 2008 में मुम्बई में हुए धमाकों पर आधारित
- 2017 में आई राहुल ढोलकिया की फिल्म ‘रईस’ में गुजरात दंगों का जिक्र मिलता है
- गोपाल मेनन की फिल्म ‘ हे राम: जेनोसाइड लैंड आफ गांधी
- 2013 में आई ‘काय पो चे’ में भी गुजरात दंगे हैं
- 2008 में नंदिता दास की ‘फिराक’ आई। गुजरात दंगों के असर पर फिल्म है
- 2007 में आई राहुल ढोलकिया की फिल्म ‘ परजानिया’। जिसमें गुजरात दंगों में खोए हुए एक लड़के की कहानी है
- 2004 में राकेश शर्मा ने गुजरात दंगों पर बनाई ‘फाइनल सलूशन’
- 2005 में ‘चांद बुझ गया’ बनी। जिसे अपने कन्टेन्ट की वजह से सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट नहीं मिला
- मनोज कुमार की 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म ‘मुजफ्फरनगर द बर्निंग लव’। 2017
- मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी व्यास वर्मा की फिल्म ‘शोरगुल’ पर फतवा जारी कर दिया गया था। इसमें मुख्य भूमिका जिमी शेरगिल ने निभाई है।
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