श्री रामलला की दिव्य प्राण-प्रतिष्ठा के बाद से अयोध्या में रामभक्तों का तांता लगा हुआ है। प्रतिदिन लगभग 2,50,000 से अधिक श्रद्धालु अयोध्या पहुंच रहे हैं। कहीं कोई असमानता नहीं है। सब समान हैं। न भाषा के आधार पर भेदभाव है, न जाति के आधार पर और न प्रांत के आधार पर। यही राम राज्य है।
इसे देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क प्रमुख श्री रामलाल की वह बात याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में राष्ट्र और सनातन सभ्यता के विभिन्न उद्गम स्थलों से निकलने वाली 131 प्रमुख और 36 जनजातीय; नवीन एवं प्राचीन धार्मिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व था। इनमें सभी अखाड़े, कबीरपंथी, रैदासी, निरंकारी, नामधारी, निहंग, आर्य समाज, सिंधी, निम्बार्क, पारसी धर्मगुरु, बौद्ध, लिंगायत, रामकृष्ण मिशन, सत्राधिकर, जैन, बंजारा समाज, मैतेई, चकमा, गोरखा, खासी, रामनामी आदि प्रमुख परंपराएं सम्मिलित थीं। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति, घुमंतू समाज के प्रमुख जनों का भी प्रतिनिधित्व था।’’ उन्होंने यह भी कहा कि प्राण-प्रतिष्ठा के समय गर्भगृह में विविध जातियों, जनजातियों के 11 यजमान उपस्थित रहे। यह घटना उस परंपरागत मान्यता को तोड़ती है, जिसमें केवल ब्राह्मणों को ही गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति हुआ करती थी।
इस प्रकार, रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा ने एक सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश किया है, जिसमें तथाकथित पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों सहित समाज के सभी वर्गों को इस पवित्र कार्य में समान रूप से भाग लेने का अवसर मिला।
यह समारोह उस व्यापक धारणा को भी चुनौती देता है कि भारतीय मंदिरों और उनके गर्भगृह में प्रवेश को लेकर पुरातन जातिगत और धार्मिक विषमताएं आज भी कुछ हद तक मौजूद हैं।
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की यह पहल वास्तव में सराहनीय है तथा समता की सामाजिक क्रांति का उद्घोष है। यह मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है, जो भेदभाव और जातिवाद की पुरानी दीवारों को ध्वस्त करने का संकेत देता है। यह घटना समता, समानता और आपसी सद्भाव की भावना को बढ़ावा देती है, जो कि सनातन धर्म के मूल तत्व हैं। रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के इस अनुष्ठान में समाज के सभी वर्गों का सम्मिलित होना भारतीय समाज में एकता और समरसता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह संदेश देता है कि सच्ची भक्ति और आध्यात्मिकता में जातिगत भेदभाव का कोई स्थान नहीं है।
कार्यक्रम का यह अनुभव साहित्यिक और वैदिक ग्रंथों में वर्णित आदर्शों के साथ गहरा संबंध रखता है। ऋग्वेद में वर्णित ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का संदेश इस अनुष्ठान के मूल में है। महाभारत के ‘शांति पर्व’ में भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर को दिए गए उपदेश में जाति और वर्ण के भेदभाव से परे सभी प्राणियों में दिव्यता को पहचानने का संदेश है।
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की इस पहल ने एक नई दिशा दिखाई है, जिस पर चलकर समाज के सभी वर्गों को एक साथ लाकर उनमें एकता और समानता का भाव उत्पन्न किया जा सके। राम मंदिर यही कार्य कर रहा है। पूरा सनातन समाज समरस होता दिख रहा है। यह समय की मांग भी है। विश्वास मानिए, यह समरसता ही भारत को फिर से विश्व गुरु के पद पर बैठाएगी।
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