गत 4 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही एक 36 वर्ष पुराने फैसले को पलट दिया। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया है कि यदि कोई सांसद या विधायक पैसा लेकर सदन में भाषण देता है या मतदान करता है, तो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है।
यह निर्णय इतना महत्वपूर्ण है कि इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी टिप्पणी की, जबकि वे सामान्यत: इस तरह के निर्णयों पर टिप्पणी नहीं करते। उन्होंने कहा, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से साफ-सुथरी छवि के सांसद आगे आएंगे तथा तंत्र में सामान्य नागरिक का विश्वास और अधिक मजबूत होगा।’’
दरअसल, सांसद और विधायकों को यह विशेषाधिकार प्राप्त था कि यदि वे रिश्वत लेकर सदन में भाषण व वोट देते हैं, तो उनके विरुद्ध कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती थी। पीठ ने सर्वसम्मति से स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 की व्याख्या सांसदों और विधायकों को रिश्वत लेने की छूट नहीं देती। न्यायालय ने यह भी कहा कि 1998 में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने जो निर्णय दिया था, वह गलत था।
बता दें कि 1993 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और जनता दल के 10 सांसदों ने अल्पमत में आई पी. वी. नरसिंहा राव सरकार के समर्थन में मतदान किया था। बाद में पता चला कि शिबू सोरेन सहित झामुमो के छह सांसदों ने पैसा लेकर सरकार के पक्ष में मतदान किया था। इस पर सी.बी.आई. ने मुकदमा दर्ज किया।
जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तब न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 105 (2) के अंतर्गत संसद में दिए मत के लिए किसी भी सांसद को अदालती कार्रवाई के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। अब सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने इसे गलत माना है।
इस पीठ ने कई गंभीर टिप्पणियां भी की हैं-
पहली, धन स्वीकार करना या धन स्वीकार करने का समझौता करना रिश्वतखोरी का अपराध है।
दूसरी, विधायिका के सदस्यों द्वारा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र कीनींव को कमजोर करती है।
तीसरी, यह संविधान की आकांक्षाओं और विचारशील आदर्शों की ऐसी राजनीति का निर्माण करती है, जो नागरिकों को एक उत्तरदायी, जिम्मेदार प्रतिनिधि से वंचित करती है।
चौथी, अनुच्छेद 105(2) में रिश्वतखोरी से छूट नहीं है। एक सदस्य को जब वोट करने के लिए रिश्वत मिलती है तो लोकतंत्र की नींव हिल जाती है।
पांचवीं, रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकार द्वारा संरक्षित नहीं है।
छठी, पी. वी.नरसिंहा राव मामले में बहुमत का फैसला, जो कानून निर्माताओं को विशेषाधिकार की आड़ में रिश्वत देने का कानूनी जामा पहनाता है, लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। इसलिए इसे खारिज कर दिया गया है।
पीठ ने यह भी कहा कि प्रश्न पूछने व वोट देने के लिए अगर कोई निर्वाचित सदस्य रिश्वत लेता है तो उस पर कानून की दोहरी मार पड़ेगी। पहला मुकदमा तो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1988 के प्रावधान के अंतर्गत पुलिस द्वारा तथा दूसरा मुकदमा विशेषाधिकार उल्लंघन व अनुशासन समिति द्वारा सांसद के खिलाफ दर्ज किया जा सकता है। पीठ ने यह भी कहा है कि इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया इत्यादि देशों में भी सांसदों के खिलाफ रिश्वत के आरोप में मुकदमा दर्ज हो सकता है।
इस निर्णय से सामान्य नागरिक बड़ी राहत महसूस कर रहे हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि देर से ही सही, सर्वोच्च न्यायालय ने एक अच्छा निर्णय दिया है। इसका दूरगामी परिणाम होने वाला है।
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