सरस्वती-सिंधु सभ्यता से जुड़े उत्खनन से हमें अनेक शिवलिंग, शिवलिंग पीठ तथा मातृ देवी की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों को बनाने का आधार क्या था? यह विचारणीय प्रश्न है। ईश्वरीय संरचनाओं के व्यक्त रूप से पूर्व अव्यक्त रूप होता है और उसी के आधार पर उसे मूर्त रूप दिया जाता है। परवर्ती काल के अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों का आधार वेदों में मिलता है।
उसी परवर्ती काल में रुद्र अथवा शिव का जो रूप विभिन्न प्रकार के शिवलिंगों और अनेक प्रकार की मूर्तियों में रूपांतरित हुआ, उन सब का आधार भी वेदों में उपलब्ध है। यद्यपि ऐतिहासिक काल में, जिसके साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाण मिलते हैं, हिंदू धर्म में तीन मुख्य धाराएं शैव, वैष्णव और शाक्त थीं, परंतु इनमें शैव धारा अधिक लोकप्रिय हुई। झोंपड़ियों से लेकर महलों तक चलने वाली कथा सामान्य शिवलिंग से आरंभ कर एकमुखी से पंचमुखी तक की बात करती है, शिवलिंग और शिव की अनेक प्रकार की मूर्तियां प्राप्त होती हैं। शिव लोक देवता हैं और उनकी आराधना के सर्वत्र फैलने का एक कारण यह भी है कि उनकी पूजा में वर्ण, लिंग, आयु, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि के भेदभाव से ऊपर उठकर मनुष्य को अनादि काल से शिव की आराधना का अधिकार रहा है।
वैदिक ग्रंथों में रुद्र-शिव
ऋग्वेद में रुद्र से जुड़े तीन सूक्त हैं। प्रथम मंडल के 114वें सूक्त में 11 मंत्र हैं, दूसरे मंडल के सूक्त संख्या 33 में 15 मंत्र हैं तथा 7वें मंडल के सूक्त 46 में 4 मंत्र हैं। इनके अतिरिक्त 9 अन्य मंत्र भी हैं। इस प्रकार, ऋग्वेद में रुद्र संबंधित 39 मंत्र तथा 75 अन्य संदर्भ मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण, वृहदारण्यक उपनिषद्, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में भी रुद्र-शिव संबंधित मंत्र मिलते हैं। इन्हीं मंत्रों के आधार पर कालांतर में सरस्वती-सिंधु सभ्यता तथा ऐतिहासिक काल में रुद्र का शिव में रूपांतरण या एक्य स्थापित हुआ और लिंगों व मूर्तियों के बनने की प्रक्रिया पूर्ण हुई। पूर्व मध्यकाल आते-आते पुराणों का लेखन भी पूरा हो चुका था। हमारे पास अब लगभग 30 कथानकों पर आधारित शिव प्रतिमाएं हैं, जिनकी निरंतरता आज तक बनी हुई है।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 114वें सूक्त में रुद्र की विशेषाओं का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि रुद्र पशुओं को सुख देने वाले हैं, जटाधारी हैं, रोग प्रतिरोधक शक्ति प्रदाता हैं, सात्विक आहार लेने वाले, सुंदर रूप धारण करने वाले, सर्व विष को दूर करने वाले हैं। यहां उनके शूल से बचने की प्रार्थना भी की गई है। दूसरे मंडल के 33वें सूक्त में जो 15 मंत्र हैं, उनमें रुद्र को 100 वर्ष की आयु देने वाला, रोग नष्ट करने वाला, (भेषजेभि: भिषिक्तमं त्वा भिषजांं शृणोमि-4) वैद्यों के वैद्य, अनेक रूपों के स्वामी, आभूषण युक्त, वनों के स्वामी, असुर संहारक, धनुष-बाण धारी तथा सुखी सम्पन्न, निरोग बनाने वाले कहा गया है।
इसी प्रकार, 7वें मंडल के 40वें सूक्त के चार मंत्रों में भी रुद्र को सुखी सम्पन्न और निरोग बनाने वाले बताया गया है। ‘त्र्यंबकम् यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम्’ (ऋग्वेद-7.59.12) में शिव को तीन नेत्रों वाला बताया गया है। उनके तीन नेत्र सूर्य, चंद्रमा और अग्नि माने गए हैं। कालान्तर में शिव के तीन नेत्रों वाली मूर्तियां बनने लगीं। रुद्र के लिए शिव शब्द ऋग्वेद के मंत्र 10.92.9 में ही प्राप्त होता है। प्रतीत होता है कि इस प्रकार की अवधारणा का विकास बाद में नहीं हुआ। ऋग्वेद 2.33.8 में ‘प्र बभ्रवे वृषभाय’ कह कर रुद्र का एक विशेषण वृषभ बताया गया है, जो शक्ति, ऊर्जा तथा प्रजनन क्षमता का प्रतीक भी है।
यजुर्वेद के 16वें अध्याय के अनेक मंत्रों में रुद्र-शिव की विशेषताओं का वर्णन है
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।2
अर्थात् हे गिरिशन्त! (पहाड़ पर रहकर संसार का कल्याण करने वाले या वाणी में स्थित होकर लोगों को सुख देने वाले या मेघ में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा लोगों को सुख देने वाले)! हे रुद्र्र! आपका जो मंगलदायक, सौम्य, केवल पुण्य प्रकाशक शरीर है, उस अनन्त सुखकारक शरीर से हमारी ओर देखिए यानी हमारी रक्षा कीजिए।
बाद में ‘गिरिशन्त’ कैलाश पर्वत की अवधारणा का आधार बना होगा। इसी प्रकार, उनके लिए (पिनाकम्बि-भद्रागहि) धनुष-बाण धारण करने वाले ‘पिनाक’ शब्द का प्रयोग हुआ है और ‘प्रथमो दैव्यो भिषक्’ अर्थात् क्षय रोग से मुक्ति प्रदान करने वाला भी कहा गया है। यहां ‘अहीन्’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ सर्प के समान विष और रोग को दूर करने वाला होता है। यहां सर्पों के साथ सामंजस्य की बात हो रही है। इसी तरह, शिव के लिए ‘नील गिरीग्रीवो विलोहित:’ अर्थात् नीलकंठ वाले, नीला, कपर्दिन, जटाजूट रखने वाले ‘पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च’ का प्रयोग हुआ है। 41वें मंत्र ‘नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च’ में शिव के शंभू, मयोभव, मयस्कर, शिवतर आदि अनेक नामों का विवरण मिलता है। तैत्तरीय संहिता 5.5.6 में कहा गया है कि अग्नि ही रुद्र हैं, जिसके तीन शूल हैं। कालांतर में इससे ही त्रिशूल की कल्पना साकार हुई।
अथर्ववेद कांड 10 के सूक्त 7 को सर्वाधार वर्णन सूक्त कहा गया है। इसमें मुख्य देवता स्कम्भ (शिवलिंग) हैं, जिन्हें स्तंभ अथवा आधार माना गया है। इस सूक्त से लगता है कि विश्व की सभी शक्तियां इस स्तंभ में निहित हैं। अंतरिक्ष, पृथ्वी, अग्नि, वायु, पक्ष मास, सूर्य, चंद्र, अग्नि, वायु आदि सभी 33 करोड़ देवता इसमें सम्मिलित हैं। द्यावा-पृथ्वी एवं विशाल अंतरिक्ष को स्तम्भ ने धारण कर रखा है। 6 उर्वियों और प्रदिशाओं को भी स्तम्भ ने ही धारण कर रखा है।
यस्य त्रयस्त्रिंशद् देवा अंडे. सर्वे समाहिता:।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:। (अथर्ववेद-10.7.13)
अर्थात् कौन मुझे स्तम्भ के बारे में बता सकता है, जिसकी देह में सभी 33 करोड़ देवता विराजमान हैं?
स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम्।
स्कम्भो दाधार प्रदिश: षडुर्वी: स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश।। (अथर्ववेद-10.7.35)
अर्थात् स्तम्भ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है। स्तम्भ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तम्भ संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है।
पुराणों में अथर्ववेद के इस स्तोत्र का विस्तार किया गया। पौराणिक कथाओं में ब्रह्मा तथा विष्णु के श्रेष्ठता विवाद में एक स्तम्भ उत्पन्न होता है, जिसका आदि और अंत जानने में दोनों विफल रहते हैं। तब स्तम्भ यानी शिवलिंग से शिव प्रकट होते हैं। इस कथानक पर लिंगोद्भव मूर्तियां बनने लगीं। अथर्ववेद 11.2.1 में कहा गया है- ‘‘हे भव और शर, आप हम सब को सुखी रखते हैं। आप भूतों और पशुओं के पालक हैं (भूत पति पशुपति), धनुष पर रखे और खींचे गए बाण को हम पर न छोड़ें। हमारे द्विपद और चतुष्पदों की हिंसा न करें। अन्य ग्रंथों जैसे-श्वेत्रासत्र उपनिषद्, कौषीतकी ब्राह्मण या शांखायन ब्राह्मण आदि में रुद्र, रुद्र शिव, शिव महादेव, महेश्वर, ईशान आदि नाम मिलते हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी में शिव के उपासकों का उल्लेख मिलता है।
पतंजलि के महाभाष्य में शिव रुद्र नाम का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। पतंजलि ने ‘शिव भागवत’ शब्द का प्रयोग किया है। वे लौह शूल धारण करते थे। पाणिनि के सूत्र में ‘दण्डाजिन’ शब्द आता है, जिसका अर्थ खाल और दंड धारण करने वाला होता है। इतिहासकारों के अनुसार, सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब में शिवि जाति रहती थी। इस जाति के लोग पशु चर्म धारण करते थे। इस प्रकार, वैदिक युग से लेकर पुराणों तक के साहित्य में निरन्तर रुद्र शिव का विवरण मिलता है।
सिक्के और अभिलेख
ईस्वीं सन् से पूर्व की उज्जैन मुद्राओं पर एक या तीन मुखी पुरुष आकृति और लिंग का चित्रण है। अन्य सिक्कों पर भी लिंग की आकृति मिलती है। ये सिक्के अन्य प्रकार के हैं। यौधेयों के सिक्कों पर शिव तथा कार्तिकेय अंकित हैं। यशोधर्मन के मंदसौर अभिलेख (533-34 ई.) में शिव को सृजतु भवसृजो अर्थात् सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को बनाने वाला कहा गया है। इसी लेख में शिव के निर्देश पर ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना, पालन और संहार कार्य किए जाने का उल्लेख है। सातवीं सदी के महाबलीपुरम् के पल्लव लेख में शिव को जगत की सृष्टि, स्थिति तथा संहार का कारण तथा राजस्थान के झालरापाटन से मिले 690 ई. के लेख में विश्व का आधार बताया गया है।
लिंग तथा मूर्तियां: सबसे पुराने शिवलिंगों में माधव स्वरूप वत्स द्वारा मोहनजोदड़ो तथा कालीबंगा से प्राप्त शिवलिंग हैं, जिन्होंने 1920-1921, 1930-33 में वहां काम किया था। इस संस्कृति में हमें पशुपति शिव की मोहर भी प्राप्त होती है, जिसे विभिन्न रूपों से देखा गया है। यह मोहर वेदों में पाई गई शिव की विशेषताओं के अनुकूल है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग द्वारा बभनियांव गांव में किए गए 2020-22 के उत्खनन में लगभग 2000 वर्ष पूर्व का एक मुखी शिवलिंग मिला है। यहां कुषाण और गुप्तकालीन अवशेष भी हैं। शिवलिंग में जटा, आंख और नाक स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
इस संदर्भ में आंध्र के गुडीमुल्लम से प्राप्त प्रथम शताब्दी पूर्व का शिवलिंग अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस शिवलिंग में पुरुष आकृति भी है। जटाधारी शिव के हाथ में कमंडल और परशु भी दिखाया गया है। लिंगोद्भव मूर्तियां बनने के साथ ही शिवलिंग पर बनने वाले मुखों की संख्या में वृद्धि होने लगी। एक मुखी शिवलिंग मंदसौर, नचना जैसे स्थानों के अतिरिक्त हरियाणा में गुप्त काल से पूर्व के कलोई तथा बेरी में भी एक मुखी शिवलिंग मिले हैं। इसके पश्चात एक, तीन, चार तथा पंचमुखी शिवलिंग बनने लगे। वामदेव, अघोर, तत्पुरुष, और ईशान शुभम को इकट्ठा किया गया। दक्षिण भारत में वीरशैव या लिंगायत के नाम से एक सम्प्रदाय बना। कुछ भक्त शिवलिंग को अपने कंधे पर रखते थे, जिन्हें भारशिव कहा जाता था। लिंगोद्भव मूर्तियों में ब्रह्मा तथा विष्णु को लिंग का आदि-अंत ढूंढते हुए दिखाया गया है। ऐसी मूर्तियां अजमेर, एटा, वाराणसी, एलोरा की गुफाओं, कांचीपुरम्, एरावतेश्वर मंदिर तथा तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर में भी हैं।
लिंगों के साथ-साथ पूर्ण मानव रूप में अकेले शिव तथा उनके साथ अनेक देवताओं की मूर्तियां गुप्त काल से पूर्व से ही बनने लगी थीं, जिन्हें अनेक भागों में बांटा जा सकता है। इनमें उमा-महेश्वर, दक्षिणामूर्ति, पार्वती परिणय, गंगाधर, चंद्रशेखर, रावण पर अनुग्रह, कीरात अर्जुन, रावण का मस्तक दान, त्रिपुरांतक, अर्धनारीश्वर, भैरव, जलंधर वध, नटराज आदि प्रमुख हैं। मध्यकाल में शिव के पाशुपत सम्प्रदाय से ही कापालिक और कालामुख जैसे अघोर सम्प्रदाय विकसित हुए। शिव के लक्षणों में वृषभ वाहन तथा हाथों का त्रिशूल या शूल, परशु एवं डमरू मुख्य हैं।
दक्षिण भारत में त्रिशूल के स्थान पर कभी-कभी ऊपरी हाथों में परशु और मृग का भी अंकन मिलता है। उत्तर भारत में त्रिशूल और सर्प ही शिव के मुख्य लक्षण थे। उत्तर और दक्षिण भारत में शिव के लोकप्रिय होने के कारण सभी क्षेत्रों में शिव मंदिरों के अनेक समान रूप से उदाहरण मिलते हैं। शिव की पूजा सभी के लिए अनिवार्य थी। लिंगार्चनतंत्र के अनुसार, लिंग की पूजा न करने वाला द्विज चांडाल बन जाएगा और अद्विज पूजा नहीं करेगा तो अगले जन्म में पशु बन जाएगा। वैदिक काल से रुद्र शिव की विशेषताएं मिलने लगती हैं तथा आगम साहित्य एवं पुराणों में मनुष्य अनेक प्रकार की मूर्तियों में पूर्णता को प्राप्त करता है। इस प्रकार साहित्यिक तथा पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है कि सरस्वती-सिंधु काल से मध्यकाल तक निरंतर विभिन्न आकारों-प्रकारों में शिवलिंग की पूजा की जाती रही है। रुद्र शिव की पूजा-अर्चना हमारी हजारों वर्ष प्राचीन संस्कृति में निरंतरता के भाव का प्रबल प्रमाण है।
(लेखक इतिहास संकलन समिति (हरियाणा) से सम्बद्ध हैं)
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