भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों क्रांतिकारी वीरों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। देश की असंख्य बेटियों ने क्रांतिकारी वीरों का साथ दिया, लेकिन इन क्रांतिकारियों के बारे में देशवासियों को बहुत ही कम जानकारी दी गई। इस स्वाधीनता आंदोलन के समय मातृशक्ति जितनी जागृत हुई, उतनी शायद ही कभी रही। दुर्गा देवी वोहरा (दुर्गा भाभी) को सभी जानते हैं। भारत की आजादी एक दीर्घकालिक संघर्ष एवं असंख्य बलिदानों की परिणीति थी। इस स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वालों जहां कुछ लोग इतिहास के पन्नों में अमर हो गए तो वहीं असंख्य ऐसे क्रांतिकारी भी हैं जिन्हें इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। ऐसे ही गुमनाम महान क्रांतिकारियों में ‘सुशीला दीदी’का नाम प्रमुख है।
सुशीला का जन्म 5 मार्च 1905 को पंजाब के दत्तोचूहड़ (अब पाकिस्तान) में हुआ। पिता डाक्टर करमचंद अंग्रेजों की सेना में मेडिकल अफसर थे, किंतु विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर उन्हें अंग्रेजों से घृणा हो गई। यही कारण रहा कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई राय साहब की उपाधि अस्वीकार कर दी। सुशीला जब किशोरावस्था में थीं तभी मां का देहावसान हो गया। दो भाई और तीन बहनों में वह सबसे बड़ी थीं। उनकी शिक्षा जालंधर के आर्य कन्या महाविद्यालय में हुई। पढ़ाई के दौरान सुशीला क्रांतिकारी दलों से जुड़े छात्र-छात्राओं के संपर्क में आईं। उनका मन भी देशभक्ति में रमने लगा और देखते ही देखते, वह खुद भी इस क्रांति का हिस्सा बन गईं। जुलूसों के लिए लोगों को एकत्रित करना, गुप्त सूचनाएं साथियों तक पहुंचाना और क्रांति के लिए चंदा इकट्ठा करना इनका मुख्य काम हुआ करता था। सुशीला की देशभक्ति देखकर उनके स्कूल की प्राचार्य लज्जावती ने ही उनकी भेंट दुर्गा भाभी से कराई। धीरे-धीरे दोनों की घनिष्ठता इस कदर बढ़ी कि उनके बीच ननद-भाभी का रिश्ता बन गया। इसके बाद सुशीला उनकी टीम का हिस्सा बन गईं। पढ़ाई पूरी करने के बाद, सुशीला दीदी कोलकाता में शिक्षिका की नौकरी करने लगीं। यहां पर रहते हुए भी वह लगातार क्रांतिकारियों की मदद कर रही थीं।
यह सुशीला दीदी ही थीं जिन्होंने दुर्गा देवी को ‘दुर्गा भाभी’ बना दिया। और फिर हर कोई क्रांतिकारी उन्हें सम्मान से दुर्गा भाभी कहने लगा और इन्हें सुशीला दीदी। भगत सिंह भी सुशीला दीदी का बड़ी बहन की तरह सम्मान करते थे। काकोरी षड्यंत्र में जब राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथी पकड़े गए तो मुकदमे की पैरवी को आगे बढ़ाने के लिए धन की ज़रूरत थी। ऐसे में, इस वीरांगना सुशीला दीदी ने उनकी स्वर्गीय माँ द्वारा शादी के लिए रखा दस तोला सोना अपने देश की आज़ादी के लिए दे दिया क्योंकि उन्हें किसी भी दौलत से ज्यादा आज़ादी से प्यार था। हांलाकि उनका यह त्याग भी क्रांतिवीरों को फांसी के फंदे से न बचा सका। 1926 काकोरी ट्रेन को लूटकर अंग्रेजों की नींद उड़ाने वाले क्रांतिकारियों में से राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाक़उल्ला खान और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी की सजा सुना दी गई जिससे सुशीला दीदी और बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को झकझोर दिया था।
1928 में जब साइमन कमीशन का विरोध करते समय लाला लाजपतराय पर लाठियां बरसाने वाले ब्रिटिश पुलिस अफसर सांडर्स को मारने के बाद भगतसिंह, दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता पहुंचे तो कलकत्ता स्टेशन पर सुशीला दीदी और भगवती चरण वोहरा उन्हें लेने के लिए पहुंचे। कलकत्ता में सुशीला दीदी ने भगत सिंह को वहीं ठहराया, जहां वह खुद रह रहीं थी ताकि ब्रिटिश सरकार को पता न चल सके। भगतसिंह और उनके साथियों पर जब ‘लाहौर षड्यन्त्र केस’ चला तो दीदी भगतसिंह के बचाव के लिए चंदा जमा करने के लिए भवानीपुर में सभा का आयोजन कर जनता से ‘भगतसिंह डिफेन्स फंड’ के लिए धन देने की अपील की गई। कलकत्ता में दीदी ने अपने इस अभियान के लिए अपनी महिला टोली के साथ एक नाटक ‘मेवाड़पति’ का मंचन करके भी 12 हजार रूपए जमा किए थे। यहां तक कि उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरा समय क्रांतिकारी दल को देने लगीं।
1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में ‘इन्दुमति’ के नाम से सुशीला दीदी ने भाग लिया और गिरफ्तार हुयीं। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जब केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट की योजना बनाई तो भगत सिंह ने अपने मिशन को अंजाम देने से पहले सुशीला दीदी, दुर्गा भाभी और भगवती चरण से मुलाक़ात की। गिरफ्तारी के बाद क्रांतिकारियों द्वारा भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को छुड़ाने की योजना बनायीं गयी। इस अभियान के लिए चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में जब दल ने प्रस्थान किया, तो सुशीला दीदी ने अपनी उंगली चीरकर अपने रक्त से सबको तिलक किया। मर्दाना वेष धारण कर इन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में खुलकर भाग लिया और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल में शामिल होने पर गिरफ्तार हुईं, जहाँ उन्होंने चक्की भी पीसी। यही नहीं महिला मताधिकार को लेकर 1917 में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में वायसराय से मिलने गये प्रतिनिधिमण्डल में वह भी शामिल थीं।
क्रांतिकारियों के साथ-साथ सुशीला दीदी भी अंग्रेजों की नज़र में आने लगी थीं। उनके खिलाफ गिरफ्तारी का आदेश जारी हो चुका था। लेकिन इसकी परवाह किए बिना भी उन्होंने जतिंद्र नाथ की मृत्यु के बाद, दुर्गा भाभी के साथ मिलकर भारी जुलूस निकाला। जन-जन के दिल में क्रांति की मशाल जलाई। उन्हें साल 1932 में गिरफ्तार भी किया गया। छह महीने की सजा के बाद उन्हें छोड़ा गया और उन्हें अपने घर पंजाब लौटने की हिदायत मिली।
1933 में इन्होंने अपने एक क्रांतिकारी सहयोगी वकील श्याम मोहन से विवाह किया। 1942 के आंदोलन में दोनों पति-पत्नी जेल भी गए। श्याम मोहन को दिल्ली में रखा गया और दीदी को लाहौर में। इतनी यातनाएं सहने के बाद भी उनके मन से देश को आज़ाद कराने का जज्बा बिल्कुल भी कम नहीं हुआ। आखिरकार, महान वीर-वीरांगनाओं की मेहनत रंग लायी और 15 अगस्त 1947 को देश को अंग्रेजो के कुशाशन से आज़ादी मिली और आजाद देश में साँस लेने लगे। लेकिन इसके उपरांत क्रांतिकारी सुशीला दीदी ने अपना जीवन गुमनामी में गुजारते हुए दिल्ली के बल्लीमारान मोहल्ले में एक विद्यालय का संचालन करने लगीं। उन्होंने कभी भी अपने बलिदानों के बदले सरकार से किसी भी तरह की मदद या इनाम की अपेक्षा नहीं रखी। स्वतंत्रता के 15 वर्ष बाद 3 जनवरी 1963 को भारत की इस महान बेटी ने दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहा। दिल्ली के चांदनी चौक में इनके सम्मान में एक सड़क का नाम ’सुशीला मोहन मार्ग’ रखा गया था।
यह देश का दुर्भाग्य रहा कि हम सुशीला दीदी जैसी सैकड़ों वीरांगनाओं का स्वाधीनता में योगदान तो छोडि़ए, उनका नाम तक भूल चुके हैं। देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम!
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