शिव उपासक श्रीराम ने अपनी यात्राओं में केवल दो स्थानों पर ही शिवलिंग स्थापना कर शिवार्चना की थी। इनमें से एक समुद्र किनारे स्थित रामेश्वरम है और दूसरा यहां गंगा घाट के रामेश्वरनाथ महादेव हैं। बाकी स्थानों पर श्रीराम ने केवल पूर्व स्थापित शिवलिंगों की ही पूजा की थी।
गतांक के बाद
सम्पूर्ण दानव दल का संहार करने के बाद श्रीराम-लक्ष्मण गंगा स्नान को गए। उन्होंने जिस गंगा घाट पर स्नान किया वह है बक्सर का रामरेखा घाट। यहां घाट पर उनसे जुड़ी कई स्मृतियां हैं। कभी श्रीराम ने भूमि पर रेखा खींची थी। यहां उसकी स्मृति स्वरूप चरणपादुका के चिन्ह हैं, जिन्हें वे संतों के निवेदन पर छोड़ गए थे। ये चिन्ह घाट पर बने, एक मंदिर में स्थापित हैं। यहां उनके द्वारा स्थापित रामेश्वरनाथ महादेव भी हैं। शिव उपासक श्रीराम ने अपनी यात्राओं में केवल दो स्थानों पर ही शिवलिंग स्थापना कर शिवार्चना की थी। इनमें से एक समुद्र किनारे स्थित रामेश्वरम है और दूसरा यहां गंगा घाट के रामेश्वरनाथ महादेव है, बाकी स्थानों पर श्रीराम ने केवल पूर्व स्थापित शिवलिंगों की ही पूजा की थी।
श्रीराम का यहां गंगा स्नान करना निशाचरों के वध प्रसंग से जुड़ा है। राम का यह स्नान ताड़का वध को लेकर मन में आये संशय के परिष्कार के लिए भी था। यहां स्नान करने के उपरांत श्रीराम विभिन्न ऋषियों के आश्रमों में गए। उसकी स्मृति में यहां हर साल एक पंचदिवसीय धार्मिक आयोजन होता है। अगहन मास के कृष्णपक्ष की पंचमी तिथि को श्रद्धालु रामरेखा घाट पर स्नान के बाद परिक्रमा को निकलते हैं। वे सर्वप्रथम अहिरौली अवस्थित ऋषि गौतम के स्थान पर जाते हैं।
ये चिन्ह घाट पर बने, एक मंदिर में स्थापित हैं। यहां उनके द्वारा स्थापित रामेश्वरनाथ महादेव भी हैं। शिव उपासक श्रीराम ने अपनी यात्राओं में केवल दो स्थानों पर ही शिवलिंग स्थापना कर शिवार्चना की थी। इनमें से एक समुद्र किनारे स्थित रामेश्वरम है और दूसरा यहां गंगा घाट के रामेश्वरनाथ महादेव है, बाकी स्थानों पर श्रीराम ने केवल पूर्व स्थापित शिवलिंगों की ही पूजा की थी।
यहां दर्शन-पूजन के बाद भोजन करते हैं। फिर अगले दिन की यात्रा नदांव गांव अवस्थित देवर्षि नारद आश्रम की होती है। यात्री यहां स्थापित नागेश्वरनाथ के दर्शन- पूजन करके विश्राम करते हैं। इस दिन खिचड़ी-चोखा का भंडारा होता है। इसके अगले दिन यह यात्रा भभुहर गांव में भार्गव आश्रम पर पहुंचती है। यहां श्रद्धालु भारगवेश्वरनाथ की पूजा के बाद दही-चिड़वा का प्रसाद ग्रहण करते हैं। यहां एक और चीज बहुत महत्वपूर्ण है, भारगवेश्वरनाथ परिसर में लिखा एक संस्कृत श्लोक। यह श्लोक इस क्षेत्र के पुरातन और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने का स्पष्ट प्रमाण है। यह श्लोक है-सिद्धाश्रमे दिव्य विशाल क्षेत्रे, महामुनि भार्गव सेव्यमाण: भक्तेष्टदमार्तिहरं जनानाम्, भुवनेशनाथंशरणं प्रपद्ये।
इस मंदिर के बाद अगला पड़ाव होता है ऋषि आरुणि उद्दालक आश्रम। यह बड़का नुआंव अर्थात उनुआव गांव में अवस्थित है। यहां का शिवलिंग भार्गव आश्रम की तरह ही विशाल और विशेष आभा लिए है। किंतु यह समरूप न होकर एक आकृति विशेष का है। यह आकृति शिव संग पार्वती एवं गणेश के होने का आभास कराती है। यह सिद्धेश्वर महादेव शिवलिंग स्वयं प्रकट अर्थात् स्वयंभू है। यहां से आगे यह यात्रा ऋषि विश्वामित्र आश्रम पीठ को जाती है।
यहां श्रद्धालुओं का स्वागत दाल-भात और इससे संबंधित पकवानों के साथ होता है। आखिर में यात्रा का समापन उसी रामरेखा घाट पर होता है जहां से यह शुरू हुई थी। यहां लिट्टी-चोखे का भोग लगाया जाता है जिसे सब बड़े चाव से खाते हैं। दुर्भाग्यवश प्रभु श्रीराम के आगमन की पावन साक्षी रही यह परिक्रमा आज ‘लिट्टी-चोखा मेला’ के रूप में प्रचारित की जा रही है। इसे इस रूप में प्रचारित न करके, इसके धार्मिक महत्व को संजोने की चिंता करें तो उत्तम होगा। यहां के बगल में बलिया जिले में मारीच और सुबाहु टीला है। सुबाहु टीले की खुदाई में पुराने बर्तन और सिक्के भी मिले हैं। ये साक्ष्य और विश्वास राम और रामायण के जीवंत प्र्रमाण हैं।
यहां ऋषियों से भेंट करने और उनसे विदा लेने के बाद श्रीराम लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी को निकले थे। मिथिलापुरी की उस यात्रा में उनके साथ संतों का एक बड़ा जत्था भी था। यहां से सब लोग सैकड़ों बैलगाड़ियों में बैठकर मिथिलापुरी की तरफ बढ़े थे। (क्रमश:)
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