भारत के एक ऐसे क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें 2-2 आजीवन कारावास की सजा सुनाकर काला पानी की सजा दी गई और सेलुलर जेल भेजा गया। करीब 10 वर्ष कोल्हू चलवाकर कठोर अत्याचार किया गया, परंतु क्रूर अंग्रेजों के आगे नहीं झुके। वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार तथा विचारक थे वीर सावरकर। हिन्दुत्व’ को विकसित करने का बड़ा श्रेय भी इन्हें ही जाता है। वह एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि और लेखक भी थे। उन्होंने परिवर्तित हिन्दुओं के हिन्दू धर्म मे वापस लौटाने हेतु सतत प्रयास किये एवं इसके लिए आन्दोलन भी चलाये। उन्होंने भारत की एक सामूहिक “हिन्दू” पहचान बनाने के लिए हिन्दुत्व का नाम दिया।उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, प्रत्यक्षवाद, मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे।
इस महान विभूति का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर गाँव में 28 मई 1883 हुआ था। इनकी माता राधाबाई तथा पिता दामोदर पन्त सावरकर बहुत ही धार्मिक विचारों वाले थे। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब यह केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में इनकी माता जी का देहान्त हो गया और इसके सात वर्ष बाद 1899 में पिता जी का भी प्लेग की महामारी से निधन हो गया। दुःख की इस घड़ी में बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला जिसका विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन्होंने 1901 मे शिवाजी हाईस्कूल नासिक से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आर्थिक संकट के बावजूद भाई बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। 1901 में 18 वर्ष की आयु मे रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ इनका विवाह हुआ। इनके ससुर जी ने इनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। इन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया जहां वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे ।
वीर सावरकर जी ने 1904 में अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद इन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। उच्च शिक्षा के लिए सावरकर लन्दन पहुंचे जहां ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इण्डिया हाउस में रहने लगे जो उस समय राजनितिक गतिविधियों का केन्द्र था। सावरकर ने ‘फ़्री इण्डिया सोसायटी’ का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतन्त्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में इन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई, जिसमे विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु इन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।
लन्दन में रहते हुये इनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद इन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। सावरकर की गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत भेजने के जुर्म में फँसा दिया और 13 मई 1910 को गिरफ्तार कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया। 8 जुलाई 1910 को एम॰एस॰ मोरिया नामक जहाज से भारत लाते हुए सीवर होल के रास्ते समुद्र के पानी में तैरते हुए बाहर आ गए, लेकिन मित्र को आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। 24 दिसम्बर 1910 को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी।
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अन्तर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थी। उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।। सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।
1921 में मुक्त होने के बाद मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार जी से हुई। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। 15 अप्रैल 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। 13 दिसम्बर 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी। 22 जून 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का अलग दृष्टिकोण था। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भरे सताधारियों और वामपंथियों ने मिलकर ऊँचे कद के सभी जीवित स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध षड्यंत्र रच कर उन्हें बदनाम करना शुरू कियाl स्वतंत्रता के कुछ समय बाद गाँधी की हत्या होने पर इनके हाथ चांदी लग गई और नेहरु और वामपंथी मण्डली ने वीर सावरकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी बड़े नेताओं पर गाँधी की हत्या का आरोप लगाकर बदनाम करना शुरू कर दिया और नई नई कथाओं के द्वारा नैरेटिव गढ़ने लगे। उनमें से एक यह माफीनामे (दया याचिका) का भी नैरेटिव है l वामपंथी और कांग्रेसी लॉबी ने उनका हमेशा दुष्प्रचार किया।
8 अक्टूबर 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। सितम्बर, 1965 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। 1 फ़रवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। 26 फरवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया।
भारत सरकार ने वीर सावरकर जी के सम्मान मे 1966 मे डाक टिकट जारी किया और अब पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है।
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