संत गाडगे बाबा महाराज 19वीं सदी के लोकसेवा, स्वच्छता और श्रमजीविता को समर्पित एक महान संत थे। जिन्हें अपनी सामाजिक सेवाओं और असहाय और गरीबों की सहायता, जन सहयोग से लोगों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संस्थाओं के विकास के लिए जाना जाता है।
हालांकि वह गाडगे बाबा नाम से लोकप्रिय हुए किन्तु उनका मूल नाम देवीदास उपाख्य देबूजी था। इनके पिता का नाम झिंगाराजी और माता का सखूबाई था। महाराष्ट्र में पिता के साथ नाम जोड़कर लिखने की परंपरानुसार उनका पूरा नाम देबूजी झिंगराजी जणोरकर था। गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी सन् 1876 को महाराष्ट्र के अकोला जिले के खासपुर गांव त्रयोदशी कृष्ण पक्ष महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर बुधवार के दिन धोबी समाज में हुआ था। किन्तु उनके परिवार का पेशा कृषि था।
मुख्य बिंदु
• बाबा गाडगे का पूरा नाम देवीदास देबूजी झिंगराजी जणोरकर था।
• गाडगे महाराज को संत गाडगे महाराज या संत गाडगे बाबा के नाम से भी जाना जाता था।
• देबूजी महाराज कभी भी स्कूल नहीं गए ।
• उनका विवाह कुंताबाई से हुआ था और उनके चार बच्चे थे।
• 1905 में देबूजी ने संत जीवन जीने के लिए अपना घर परिवार छोड़ दिया।
• गाडगे बाबा ने अपने पूरे जीवन में सामाजिक अन्याय, जीवहत्या और मादक द्रव्यों के विरुद्ध संघर्ष किया और इनके विरुद्ध जागरूकता फैलाने के लिए कठोर श्रम किया।
• गाडगे महाराज का प्रवचन कीर्तनों के माध्यम से होता था।
• 20 दिसंबर, 1956 को अमरावती जाते समय गाडगे बाबा की मृत्यु हो गई।
• 1 मई 1983 को, महाराष्ट्र सरकार ने उनके सम्मान में अमरावती में संत गाडगे महाराज विश्वविद्यालय की स्थापना की।
प्रारंभिक जीवन
जब देबू केवल आठ वर्ष के थे तब 1884 में उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। उनके पिता के पास जो कृषि योग्य भूमि थी, वह एक ऋणबंधन के अंतर्गत आ गई और साहूकार द्वारा ले ली गई। इस प्रकार देबू और उनके परिवार को आजीविका के किसी भी साधन का हो गया। इसलिए देबू, अपनी मां के साथ, अपने मामा चंद्रभान के साथ रहने चले गए, जिनके पास हापुरे (महाराष्ट्र के अकोला जिले में) नामक गांव में लगभग 55 एकड़ जमीन थी। देबू को बचपन में अपने मामा के यहां मवेशियों को चराने के साथ कुछ अन्य काम सौंपे गए थे। काम से अपने खाली समय में वह अपने चारों ओर बच्चों का एक समूह को एकत्र करते और उनके साथ भजन गाते थे। उनकी कोई औपचारिक स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी।
समाज सुधारक
देबु जी का कुंता बाई के साथ विवाह उसी समय हो गया था, जब उनकी आयु मात्र पंद्रह वर्ष थी। वह बहुत तीक्ष्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण अवलोकन के व्यक्ति थे और गांववालों के साथ सीधे और घनिष्ठ संपर्क के द्वारा सामान्य किसानों और अन्य ग्रामीण समुदायों की कठिन गरीबी और अंधविश्वास और उनके सामाजिक पिछड़ेपन की परिस्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। उनका मन इन स्थितियों के विरुद्ध और क्षुब्ध था और उन्होंने समाज को सुधार का मार्ग दिखाया। जब उनकी पहली संतान के रूप में एक बेटी का जन्म हुआ तो उनके परिवार के वरिष्ठ सदस्य चाहते थे कि उस पल को गांववालों को मदिरा और मांसाहारी भोजन खिलाकर पारंपरिक रीति के अनुसार मनाया जाए। देबु ने सभी अपने रिश्तेदारों और जाति के वरिष्ठजनों के विरुद्ध खड़े होकर अपनी बच्ची के जन्मोत्सव में शराब और मांस के प्रयोग को रोक दिया और इस समारोह के लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन को बनवाकर गांव के सबसे गरीब, दिव्यांग और अस्वस्थ लोगों को वितरित करके मनाया। देबु जी के कुल दो बेटियां और दो बेटे हुए।
गृहत्याग और कभी वापस न लौटने का संकल्प
विचार करते समय उनके मन में यह आया कि ईश्वर की सेवा समाज की सेवा में ही निहित है और इसके लिए उन्होंने अपना घर छोड़ने और संत जीवन जीने का निर्णय लिया। तदनुसार उन्होंने 1 फरवरी 1905 को अपना घर छोड़ दिया और गृहस्थ जीवन में कभी भी वापस नहीं लौटे।
देबू जी बने गाडगे बाबा
वह मैली-कुचैली लंगोटी और रंगीन कपड़ों की कतरन या चिथड़ों को एक साथ मिलाकर सिली हुई एक फटी हुई रंगीन शर्ट पहनते थे। मराठी भाषा में ऐसे कपड़े को ‘गोधड़ी’ कहा जाता है और इसी आधार पर उन्होंने अपना उप-नाम ‘गोधड़े -बाबा’ रख लिया था। वह अपने साथ केवल एक बांस-छड़ी और एक कटोरा (जिसे मराठी में ‘गाडगे’ कहा जाता है ) लेकर चलते थे और इसी कारण उन्हें ‘गाडगे बाबा’ का प्रसिद्ध उप-नाम दिया गया। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में एक गांव से दूसरे गांव, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक पैदल यात्राएं की, आम गांव के लोगों से मुलाकात की, उनकी मदद की और उन्हें संबोधित किया।
गाडगे बाबा स्वच्छता के प्रबल समर्थक थे, जब वह किसी गांव में प्रवेश करते थे तो वह तुरंत ही वहां की नालियों और रास्तो को साफ करने लगते और काम खत्म होने के बाद वह लोगों को गांव के साफ होने की बधाई भी देते थे।
गांव के लोग उन्हें पैसे भी देते थे और बाबाजी उन पैसो का उपयोग सामाजिक विकास और समाज का शारीरिक विकास करने में लगाते। लोगों से मिले हुए पैसों से महाराज गांवों में स्कूल, धर्मशाला, अस्पताल और जानवरों के निवास स्थान बनवाते थे।
गांवों की सफाई करने के बाद शाम में वे कीर्तन का आयोजन भी करते थे और अपने कीर्तनों के माध्यम से जन-जन तक लोकोपकार और समाज कल्याण का प्रसार करते थे। अपने कीर्तनों के समय वे लोगों को अन्धविश्वास की भावनाओं के विरुद्ध शिक्षित करते थे। अपने कीर्तनों में वे संत कबीर के दोहो का भी उपयोग करते थे।
संत गाडगे महाराज लोगों को जानवरों पर अत्याचार करने से रोकते थे और वे समाज में चल रही जातिभेद और रंगभेद की भावना को नहीं मानते थे और लोगों को इसके खिलाफ वे जागरूक करते थे और समाज में वे शराबबंदी करवाना चाहते थे।
गाडगे महाराज लोगों को कठिन परिश्रम, साधारण जीवन और परोपकार की भावना का पाठ पढ़ाते थे और हमेशा जरूरतमंदों की सहायता करने को कहते थे। उन्होंने अपनी पत्नी और अपने बच्चों को भी इसी राह पर चलने को कहा।
महाराज कई बार आध्यात्मिक गुरु मैहर बाबा से भी मिल चुके थे। मैहर बाबा ने भी संत गाडगे महाराज को उनके पसंदीदा संतों में से एक बताया। महाराज ने भी मैहर बाबा को पंढरपुर में आमंत्रित किया और 6 नवंबर 1954 को हजारों लोगों ने एकसाथ मैहर बाबा और महाराज के दर्शन लिए।
मृत्यु और महानता
अपनी विशिष्ट भेषभूषा और कार्यशैली से वह देबूजी से जनता के प्रिय आदर्श श्री गाडगे बाबा बन गए और उन्होंने 20 दिसंबर 1956 को अपनी मृत्यु के दिन तक लगभग लगभग 50 वर्षों तक जन-जन के मन को प्रभावित किया।
उन्हें सम्मान देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 2000-01 में “संत गाडगेबाबा ग्राम स्वच्छता अभियान” की शुरुवात की। जो ग्रामवासी अपने गांवों को स्वच्छ रखते हैं उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता है।
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारकों में से वे एक हैं। वे एक ऐसे संत थे जो लोगों की समस्याओं को समझते थे और गरीबों और जरूरतमंदों के लिए काम करते थे।
भारत सरकार ने भी उनके सम्मान में कई पुरस्कार आरंभ किए। इतना ही नहीं बल्कि अमरावती यूनिवर्सिटी का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है। संत गाडगे महाराज भारतीय इतिहास के एक महान संत थे।
संत गाडगे बाबा सच्चे निष्काम कर्मयोगी थे। महाराष्ट्र के कोने-कोने में अनेक धर्मशालाएं, गौशालाएं, विद्यालय, चिकित्सालय तथा छात्रावासों का उन्होंने निर्माण कराया। उन्होंने यह सारे निर्माण स्वैच्छिक दान से करवाया किंतु अपने सारे जीवन में उन्होंने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई।
स्रोत :
Shri Gadage baba—by Kashinath Potdar, Sadhana prakashan, Poona (1957);
Shri Sant Gadage Baba —by G. N. Dandekar, Maharashtra Prakashan, Amraoti (1957);
Gadage Maharaj —by Amarendra, Vora & Co., Bombay (1959).] (Saroj A. Deshpande) V. M, Bedekar.
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