देवराज इंद्र ने वृत्रासुर दानव का वध करने के बाद स्नान किया था। तब देवताओं ने इस विजय पर इंद्रदेव को गंगाजल से नहलाया था। इस नाते यह पुरातन करुष और मलद जनपद है। यह भयानक राक्षसी ताड़का का निवास होने की वजह से ताटका वन भी कहलाता है। वैसे यह मूलरूप से कामदेव भस्मकर्ता भगवान सदाशिव की तपोस्थली है।
गतांक के बाद
प्रभु श्रीराम सरयू-गंगा संगम पार कर आगे प्रसिद्ध कामाश्रय वन पहुंचे। इस सम्पूर्ण क्षेत्र को वाल्मीकि रामायण में करुष, मलद और ताटका वन भी कहा गया है। यहां कभी देवराज इंद्र ने वृत्रासुर दानव का वध करने के बाद स्नान किया था। तब देवताओं ने इस विजय पर इंद्रदेव को गंगाजल से नहलाया था। इस नाते यह पुरातन करुष और मलद जनपद है। यह भयानक राक्षसी ताड़का का निवास होने की वजह से ताटका वन भी कहलाता है। वैसे यह मूलरूप से कामदेव भस्मकर्ता भगवान सदाशिव की तपोस्थली है।
यह स्थान उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित है। इन दिनों इस स्थल को कारों ग्राम के नाम से जाना जाता है। यहां भगवान शिव कामेश्वरनाथ स्वरूप में हैं। यह रामायण एवं पुराणों में वर्णित प्रसिद्ध कामाश्रय वन क्षेत्र में अवस्थित है। इसे एक ऐसा वन बताया गया है जहां भक्त जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति हेतु तप करते हैं। यहां कभी माता सती की बलिदान के बाद भगवान शिव ने भी तप किया था। संसार से विमुख हो वे यहीं तप में लीन हुए थे। ऐसे में सब के कल्याण हेतु शिव-पार्वती का मिलन आवश्यक था। लेकिन ऐसा तभी होता जब माता पार्वती संग शिव का विवाह संपन्न होता।
अत: देवताओं ने इसके लिए कामदेव को भेजा, लेकिन अंतत: तप में खलल डालने वाले अभिमान और मद से भरा कामदेव भस्म हो गया। यह पुराणों में वर्णित प्रमुख रोचक कथा है। यहां कामदेव के भस्म होने से जुड़ी कहानी का साक्षी एक पुराना आम वृक्ष है जिस पर जलने के अनेक चिन्ह दिखाई देते हैं। कहते हैं, आज भी इस वृक्ष के पास कुछ जलने और धुएं का आभास होता है। यह वृक्ष कामेश्वर नाथ शिवालय के ठीक सामने है। यहां का शिवलिंग काष्ठ निर्मित है जिसे संरक्षण हेतु चांदी की परत चढ़ाई गई है। वाल्मीकि रामायण में इसे स्थानुश्री अर्थात् लकड़ी के ठूंठ वाले शिवलिंग के रूप में चित्रित किया गया है। यहां भगवान शिव ने कामदेव के दर्प का दमन कर उसे अपना आश्रय प्रदान किया था।
यह ऐसा वन है जहां यज्ञ आहुति ग्रहण करने देवता स्वयं चलकर आते रहे हंै। यह पूरा वन क्षेत्र धुएं से आच्छादित हुआ करता था। ऐसे वन को देख कर भगवान राम विश्वामित्र से प्रश्न करते हैं कि गुरुवर, धुएं से भरा किंतु रमणीक प्रतीक हो रहा यह कौन-सा वन है? यह कथा सुदूर दक्षिण की तमिल कम्ब रामायण से लेकर उत्तर में नेपाली भानुभक्त रामायण तक में वर्णित है।
अपनी इस यात्रा में ऋषि विश्वामित्र संग प्रभु राम-लक्ष्मण यहां एक रात्रि रुके थे। इसके उपरांत वे अपने गतंव्य सिद्धाश्रम अवस्थित ऋषि विश्वामित्र आश्रम के लिए निकले थे। विश्वामित्र ने यहां उन्हें राक्षसी ताड़का के आतंक से अवगत कराया था। आगे मार्ग में क्रोध से भरी वही ताड़का इन लोगों को मिली, वह इन्हें देखकर मारने के लिए दौड़ी। ऐसे में श्रीराम स्त्री वध के विषय में सोचकर संशय में थे। तब विश्वामित्र ने उन्हें एक स्त्री और दुराचारिणी राक्षसी में अंतर बताकर उसके वध हेतु प्रेरित किया था। प्रभु श्रीराम ने केवल एक बाण से इस परम शक्तिशाली राक्षसी का अंत कर दिया। इस घटना से जहां ऋषियों का संताप मिटा, वहीं ताड़का का श्राप भी जाता रहा। गोस्वामी तुलसीदास यहां इनके इस करुणायमयी चरित्र का वर्णन रामचरित मानस में कुछ यूं किया है-
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा,
दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।
इस घटना के बाद तीनों का सिद्धाश्रम क्षेत्र में स्वागत हुआ। प्रसन्नचित्त विश्वामित्र ने उन्हें असुरों संग होने वाले भविष्य के युद्धों के लिए अनेक अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए। इनका संधान प्रयोग और इनसे होने वाले संहार का तरीका भी सिखाया। इसकी चर्चा वाल्मीकि रामायण एवं तेलुगु की रंगनाथ रामायण में विस्तार से आई है।
अपनी इस यात्रा में ऋषि विश्वामित्र संग प्रभु राम-लक्ष्मण यहां एक रात्रि रुके थे। इसके उपरांत वे अपने गतंव्य सिद्धाश्रम अवस्थित ऋषि विश्वामित्र आश्रम के लिए निकले थे। विश्वामित्र ने यहां उन्हें राक्षसी ताड़का के आतंक से अवगत कराया था। आगे मार्ग में क्रोध से भरी वही ताड़का इन लोगों को मिली, वह इन्हें देखकर मारने के लिए दौड़ी। ऐसे में श्रीराम स्त्री वध के विषय में सोचकर संशय में थे। तब विश्वामित्र ने उन्हें एक स्त्री और दुराचारिणी राक्षसी में अंतर बताकर उसके वध हेतु प्रेरित किया था। प्रभु श्रीराम ने केवल एक बाण से इस परम शक्तिशाली राक्षसी का अंत कर दिया।
यह उनके व्यक्तित्व निर्माण की पावन स्थली है। यहां आकर उनकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनी थी अन्यथा अब तक वे राजा दशरथ के पुत्र के नाते ही जाने जाते थे। अयोध्या के बाद यही दूसरा ऐसा स्थान है जहां राम अपने जीवन में दूसरी बार आये थे। यह सोन और गंगा नदी से घिरा लगभग 84 कोस का क्षेत्र है, जिसके बीचोंबीच 5 कोस का क्षेत्र है चरित्र वन। यह संपूर्ण परिक्षेत्र पुरातन व्याघ्रसर से संबद्ध है। आजकल इसे ही हम बक्सर के नाम से जानते हैं। यह बिहार प्रांत में अवस्थित है।
सिद्धाश्रम क्षेत्र के महत्व की बात करें तो यह अतुलनीय है। यह भगवान विष्णु की तपोभूमि है। यहीं पर तप करके देवी अदिति ने पुत्र रूप में भगवान वामन को प्राप्त किया था। अत: यह वामन अवतार की प्राकट्य स्थली है। यह दंडकारण्य जैसा ऋषियों का प्रिय तपोवन है। कहते हैं, कभी यहां 18000 ऋषि तपस्यारत थे। इस सिद्धाश्रम क्षेत्र की महत्ता का विचार कर महर्षि विश्वामित्र यहां अनुष्ठान के लिए आये थे। इसका वर्णन गोस्वामी जी ने कुछ यूं किया है-
विश्वामित्र महा मुनि ज्ञानी, बसही विपिन सुभ आश्रम जानी।
अर्थात् ज्ञानी महामुनि विश्वामित्र ने इस वन को एक पवित्र जगह जानकर अनुष्ठान विशेष के लिए वास किया था। इसी प्रकार देवर्षि नारद, ऋषि भार्गव, गौतम ऋषि और आरुणि उद्दालक भी यहां साधना के लिए खिंचे चले आए थे। ऐसे पांच महर्षि एक ही समय यहां साधनारत थे। यहां तप के फलीभूत होने के पीछे का कारण श्रीराम का यहां आगमन होना ही था। यह श्रीराम की प्रथम कर्मभूमि भी है। इसीलिए इस क्षेत्र के एक खास हिस्से को चरित्र वन भी कहते हैं।
यह उनके व्यक्तित्व निर्माण की पावन स्थली है। यहां आकर उनकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनी थी अन्यथा अब तक वे राजा दशरथ के पुत्र के नाते ही जाने जाते थे। अयोध्या के बाद यही दूसरा ऐसा स्थान है जहां राम अपने जीवन में दूसरी बार आये थे। यह सोन और गंगा नदी से घिरा लगभग 84 कोस का क्षेत्र है, जिसके बीचोंबीच 5 कोस का क्षेत्र है चरित्र वन। यह संपूर्ण परिक्षेत्र पुरातन व्याघ्रसर से संबद्ध है। आजकल इसे ही हम बक्सर के नाम से जानते हैं। यह बिहार प्रांत में अवस्थित है।
इस स्थल के दर्शनोपरांत राम-लक्ष्मण विश्वामित्र आश्रम में यज्ञरक्षार्थ सन्नद्ध हुए। गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रसंग का वर्णन इन शब्दों में किया है-
प्रात कहा मुनि सन रघुराई,
निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी,
आपु रहे मख कीं रखवारी॥
अर्थात्, सुबह राम ने मुनिनाथ विश्वामित्र से कहा कि आप निर्भय होकर यज्ञ करें, मैं यज्ञ की रक्षा करता हूं। यज्ञ रूपी प्रयोजन से प्रकट हुए राम यज्ञ की रक्षा को प्रस्तुत हुए। इस यज्ञ अनुष्ठान में राम-लक्ष्मण दोनों भाई बिना सोए निरंतर यज्ञ स्थल की रक्षा करते रहे। इसका वर्णन भी विभिन्न रामायणों में आता है। किसी में इसे छह दिन का उपक्रम बताया गया है तो किसी में तीन दिन का। जब घात लगाकर बैठे राक्षस यज्ञ विध्वंस को आए तो श्रीराम ने मारीच को हर तरह से समझाया था। उससे कहा कि इन ऋषियों के पास न तो मांस-मदिरा है, न ही यहां आमोद-प्रमोद के कोई साधन हैं। यहां तक कि ये धन से भी रहित हैं फिर इन्हें क्यों सताते हो? परंतु दुष्ट तो सज्जनों को सताने और भय का वातावरण बनाने में ही गर्वानुभूति करते हैं। ऐसे में राम की बातों को अनसुना कर उन दुष्टों ने यज्ञ कार्य में बाधा डालनी चाही जिसका परिणाम हुआ उनका वध।
जहां ये घटनाएं हुईं उसे आजकल ऋषि विश्वामित्र पीठ के नाम से जाना जाता है। यहां के पूर्व आचार्य भक्तमाली उर्फ मामाजी अपनी रामभक्ति के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इस पीठ के वर्तमान महंत राजाराम शरण अपनी गुरु परंपरा का निर्वहन करते हुए वर्ष में कई बड़े धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन करते रहते हैं।
(क्रमश:)
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