दिल्ली दंगा : अपना बसा-बसाया घर छोड़ पलायन को मजबूर हिंदू, ‘उस मंजर को याद करते ही दहल उठता है दिल’

दंगों के बाद उन इलाकों में सबकुछ बदल गया है। डरे हुए लोग औने-पौने दाम में अपना घर-बार बेचकर दूसरी जगह जा रहे हैं

Published by
आदित्य भारद्वाज

पलायन अगर तरक्की के लिए हो तो अच्छा होता है, लेकिन डर या मजबूरी में किसी को बसा-बसाया घर छोड़कर अनजान जगह जाना पड़े तो उस पर क्या गुजरती होगी, इसे वही व्यक्ति या परिवार समझ सकता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के एक हिस्से में यही हो रहा है। उत्तर-पूर्व दिल्ली के 2020 के दंगे तो आपको याद ही होंगे। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग में महीनों तक चले धरने की आड़ में दिल्ली में दंगों की साजिश रची गई और इसके लिए चुने गए यमुनापार के इलाके, जहां हिंदू-मुस्लिम की मिली-जुली आबादी रहती है। जिन इलाकों में मुसलमानों की आबादी ज्यादा थी, वहां हिंदुओं पर क्या बीती, यह किसी से छिपा नहीं है। दंगों के बाद उन इलाकों में सबकुछ बदल गया है। डरे हुए लोग औने-पौने दाम में अपना घर-बार बेचकर दूसरी जगह जा रहे हैं। वे किसी भी तरह उन इलाकों से निकलना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें अपने परिवार और बच्चों के भविष्य की चिंता है। मुस्लिम आबादी से सटे इलाकों में जहां पहले हिंदू बड़ी संख्या में रहते थे, अब वहां वे अल्पसंख्यक हो गए हैं।

मुस्तफाबाद से लगती दो कॉलोनियां हैं- भागीरथी विहार और शिव विहार। यहां हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की आबादी अधिक है, लेकिन दंगों के दो साल बाद आलम यह है कि जिस गली में पहले हिंदुओं के 15 घर थे, अब वहां दो-तीन घरों में ही हिंदू बचे हैं। बाकी सभी अपना घर सस्ते में बेच कर कहीं और चले गए। इस इलाके में हिंदुओं के घर बेचने का सिलसिला जारी है।

घरों में फेंकते हैं हड्डियां

भागीरथी विहार की गली नंबर-1 में रहने वाले मनोज कुमार शर्मा का नया पता ग्रेटर नोएडा, सेक्टर-3, उत्तर प्रदेश है। मनोज बताते हैं, ‘‘मेरा बचपन भागीरथी विहार में बीता। वहीं बड़ा हुआ और वहीं शादी हुई। पहले भागीरथी विहार में मुसलमानों के घर बहुत कम थे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी आबादी बढ़ती गई। हालांकि इसके बाद भी कोई दिक्कत नहीं थी। सब कुछ सामान्य था, लेकिन 2020 में जैसे ही दंगा भड़का, उन्मादियों ने पूरे इलाके को घेर लिया। हमारा पूरा परिवार छत पर चला गया। बच्चे बहुत डरे हुए थे। बाहर उन्मादी भीड़ आगजनी कर रही थी। हम तीन दिन तक घर में दुबके रहे। यदि फोर्स समय पर नहीं पहुंचती तो शायद कोई नहीं बचता। दंगा थमने के बाद जब हालात थोड़े सामान्य हुए तो मुसलमानों ने हिंदुओं को परेशान करना शुरू कर दिया। रात को हमारी छतों पर हड्डियां और मांस फेंका जाने लगा। मुहल्ले के लोगों ने कई बार मुसलमानों से बातचीत कर हालात को सामान्य करने की कोशिश की। हिंदुओं की ओर से बड़े-बुजुर्ग मुसलमानों की ओर से अपने समकक्ष से बातचीत करते तो कुछ दिन तक शांति रहती, लेकिन मुसलमानों का उत्पात फिर शुरू हो जाता था। घर से बाहर जाते समय मन में हमेशा डर बना रहता था कि कहीं पीछे से घर में कुछ हो न जाए। लिहाजा, हर समय डर के साये में रहने वाले हिंदुओं ने वहां से मकान बेचना शुरू कर दिया।

मनोज कहते हैं, ‘‘मन में हमेशा बच्चों को लेकर डर बना रहता था। उससे छुटकारा पाने का सबसे अच्छा तरीका यही था कि हम अपना घर बेच कर किसी सुरक्षित जगह चले जाएं। इसलिए हमने अपना मकान बेच दिया और ग्रेटर नोएडा आकर बस गए। यहां पर हम कम से कम सुरक्षित तो हैं। अब घर से बाहर जाने पर यह चिंता तो नहीं होती कि कहीं मेरे पीछे घर में कुछ अनहोनी न हो जाए। वहां तो हर समय यही डर बना रहता था।’’

दंगों के बाद मुश्किल हो गया जीना

मनोज की तरह गौरव जैन भी भागीरथी विहार में ही रहते थे, लेकिन उन्होंने भी अपना मकान बेच दिया और नवीन शाहदरा में बस गए। वे बताते हैं, ‘‘पहले भी गली में मुसलमान थे। आसपास भी मुसलमान थे। लेकिन कभी कोई परेशानी नहीं होती थी। दंगों के समय न जाने कहां से भीड़ आ गई। सबके चेहरे ढके हुए थे। उनके हाथों में पेट्रोल बम थे। डर के मारे हमने अपने घर का दरवाजा बंद कर दिया था। मेरे घर के नीचे ही गोलियां चलीं। किसी को गोली मारी गई थी। क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। हम पिछले 33 साल से वहां रह रहे थे, लेकिन दंगों के बाद सब कुछ बदल गया। अब हमारा वहां रहना मुश्किल हो गया था। लाचारी में कम दाम में घर बेचना पड़ा। डर का आलम यह था कि नौकरीपेशा होने के बावजूद दंगा थमने के 10 दिन बाद भी मैं दफ्तर नहीं गया। आसपास जाकर देखा तो जली हुई दुकानें, कारें और मोटरसाइकिल के अलावा सड़क पर पत्थरों की भरमार थी। ये वही पत्थर थे जो उन्मादियों की भीड़ ने बरसाए थे। उन मंजर को अब भी याद करते हैं तो दिल दहल उठता है।’’

इलाके में मुस्लिम प्रॉपर्टी डीलर सक्रिय

भगीरथी विहार गली नंबर 3 के ही अनिल और उनके दोनों भाई भी अब जौहरीपुर एक्सटेंशन में बस चुके हैं। अनिल बताते हैं, ‘‘हाल ही में बड़ी बेटी की शादी की है। दंगे के दौरान घर के बाहर उन्मादी मुसलमान ‘अल्लाह हू अकबर’ नारे लगा रहे थे, सड़कों पर आगजनी कर रहे थे। ऐसे में अगले पल क्या होगा, यह सोच कर उस मां-बाप के दिल पर क्या बीतती होगी, आप खुद ही सोच कर देखिए। मुझे अपनी चिंता नहीं थी। मुझे सबसे अधिक चिंता अपनी दो जवान बेटियों, पत्नी और बेटे की थी। भगवान की कृपा हुई कि फोर्स आ गई और दंगाई वहां से भाग गए। लेकिन उसके बाद भी पास में ही मुसलमानों को एक मैरिजहोम है, वहां से घंटों गोलियां चलाई गईं। बस किसी तरह जान बच गई।’’ वह आगे बताते हैं, ‘‘दंगों के बाद वहां से हिंदुओं ने अपने मकान बेचने शुरू कर दिए। मैंने और मेरे दोनों भाइयों ने भी मकान बेच दिया। हमारी गली में अब चार-पांच हिंदू परिवार ही बचे हैं। उनके मकानों का बयाना भी मुसलमान प्रॉपर्टी डीलर ने दिया हुआ है। यहां सक्रिय मुसलमान प्रॉपर्टी डीलर पांच से सात लाख रुपये बयाना देकर छह महीने में रजिस्ट्री करवाने के लिए करारनामे पर हस्ताक्षर करवा रहे हैं। मुसलमान हिंदुओं के मकान खरीद रहे हैं। हिंदू बाजार भाव से कम पर अपना मकान बेचने को मजबूर हैं। ज्यादातर हिंदू परिवार यहां से जा चुके हैं। जो बचे हैं वह भी जल्द यहां से निकल जाएंगे।’’

भागीरथी विहार में रहने वाले शंकर लाल बताते हैं कि पिछले तीन महीनों में उनकी गली और उनके आगे वाली गली में 11 मकानों का सौदा हो चुका है। वे खुद भी यहां नहीं रहना चाहते। अब यहां रहना संभव ही नहीं है। इसलिए वह भी जल्दी यहां से मकान बेचकर निकल जाएंगे।

यह तो बानगी भर है। ऐसे न जाने कितने घर बिक चुके हैं और न जाने कितने घरों का सौदा हो चुका है। इन इलाकों में रहने वाले कई हिंदू तो डर के मारे मुंह ही नहीं खोलना चाहते। अपनी पहचान उजागर किए बिना वे कहते हैं कि संख्या के हिसाब से अब हिंदुओं और मुसलमानों में संतुलन नहीं रहा। यहां तेजी से जनसांख्यिकी परिवर्तन हो रहा है, जो आने वाले समय में दूसरे इलाके में बसे हिंदुओं के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। चारों तरफ से मुस्लिम आबादी से घिरे ब्रजपुरी मुख्य मार्ग के पास के अधिकतर घर या तो बिक चुके हैं या बिकने के कगार पर हैं। परिस्थितियां ही ऐसी बना दी गईं कि हिंदू चाहकर भी यहां नहीं रह सकता। लेकिन दिल्ली की आआपा सरकार को इसकी कोई फिक्र नहीं है।

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