फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर पंक्तियाँ हैं: हम देखेंगे! हम देखेंगे! कहने के लिए यह प्रतिरोधात्मक नज़्म है, मगर इसे जिस तरीके से एक समय विशेष पर प्रयोग किया गया और जिन प्रतीकों के माध्यम से प्रयोग किया गया, उसने कई प्रश्न उठाए। प्रश्न ही नहीं उठाए बल्कि पड़ोसी इस्लामिक देशों में धार्मिक यातना झेल रहे हिन्दुओं, सिखों, जैनों, बौद्धों, पारसियों एवं ईसाइयों की भारत में नागरिकता को भी बंद करने का प्रयास किया। एक अजीब सा उन्माद शब्दों के माध्यम से भरा गया और अंतत: इन शब्दों के उन्माद की परिणिति उन दिल्ली दंगों (Delhi Riot) में हुई, जिन्होनें दिल्ली को दहलाकर रख दिया था।
उन दंगों को अब चार वर्ष पूरे होने वाले हैं और आज से चार वर्ष पहले दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरा देश एक ऐसे आन्दोलन को देख रहा था, जिसका कोई तार्किक कारण था ही नहीं और उसकी परिणिति 23 फरवरी 2020 को आरम्भ हुए दंगों में हुई थी, जिसमें 53 से अधिक लोग मारे गए थे और न जाने कितने घायल हुए थे।
ये दंगे क्यों हुए थे, और दंगों से पहले “हम देखेंगे” का माहौल क्यों बनाया गया था, इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि यह जानते हुए भी कि इस अधिनियम से किसी भी भारतीय मुस्लिम की नागरिकता प्रभावित नहीं होगी, आम मुस्लिमों को व्यवस्था के खिलाफ भड़काया जाए और किसी न किसी प्रकार बहुमत से चुनकर आई उस सरकार को बैकफुट पर लाया जाए जिसे कुछ ही महीने पहले देश के बहुसंख्यक समाज ने चुनकर भेजा था।
तो यह “हम देखेंगे” नारा था, वह उन्हीं के लिए था, जिन्होनें इस सरकार को चुना था। अर्थात बहुसंख्यक हिन्दू समाज! कम्युनिस्ट एवं कट्टर इस्लामिस्ट लोग जो सीएए अर्थात नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ थे, या इस अधिनियम के विरोधी होने का दावा कर रहे थे, उन्हें इस अधिनियम से कोई मतलब नहीं था और न ही उन्हें आम मुस्लिमों से मतलब था, क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह आज तक कई ऐसे मामले उठा रहे होते, जिनसे आम मुस्लिम प्रभावित होता है।
उन्हें दरअसल “हम देखेंगे” उन्हें दिखाना था, जिन्होनें अपने मन से दूसरी बार वह सरकार चुनी थी, जिसे न चुने जाने को लेकर न जाने अब तक कितने झूठे विमर्श गढ़े जा रहे थे। उनके मन में हिन्दुओं के प्रति घृणा इस सीमा तक थी “हम देखेंगे” के बहाने वह हिन्दू महिलाओं को हिजाब में दिखा रहे थे।
बिंदी हिन्दू महिलाओं के लिए मात्र सौन्दर्य प्रतीक नहीं है, बल्कि वह उनकी धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान है। हम सभी को याद है कश्मीर की वह कहानियाँ, जिनमें हिन्दू महिलाओं ने आतंकवादियों से बचने के लिए बिंदी हटाई थी। इतना ही नहीं हिन्दू महिलाओं की ही धार्मिक पहचान मिटाने का एजेंडा इस कथित नागरिकता अधिनियम के विरोधियों ने नहीं चलाया था, बल्कि साथ ही उन्होंने काली माँ को भी हिजाब में दिखाया था और लिखा था कि महिलाएं हिन्दू राष्ट्र को नष्ट करेंगी!
मगर यह सबसे बड़ा प्रश्न था कि क्या यह अधिनियम हिन्दू राष्ट्र के लिए था या फिर यह पीड़ित गैर-मुस्लिमों के लिए था, जिन्हें उनकी धार्मिक पहचान के कारण प्रताड़ित किया जा रहा है। हिन्दू राष्ट्र से उन महिलाओं को क्या समस्या थी, जो खुद हिजाब में थीं या पूरे आन्दोलन के दौरान बुर्के में थीं? क्यों देश की तमाम महिलाओं को हिजाब में दिखाने का षड्यंत्र किया गया? क्या यह तमाम हिन्दू महिलाओं की धार्मिक पहचान पर अतिक्रमण नहीं था?
नागरिकता आन्दोलन के विरोध में चल रहे प्रदर्शन कहीं से भी न ही स्वाभाविक थे और न ही लोकतांत्रिक। यदि वह स्वाभाविक होते तो इन विरोध प्रदर्शनों में हिन्दुओं के प्रति इस सीमा तक घृणा नहीं होती कि वह महिलाओं की धार्मिक पहचान को ही समाप्त करना चाहे। आन्दोलन में चल रही यह घृणा इस सीमा तक तीव्र थी कि वह भारत का सिर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सामने झुकाना चाहती थी।
जेएनयू के छात्र नेता उमर खालिद का वह भड़काऊ भाषण भी स्मृतियों में ताजा है, जिसमें लोगों को उकसाया गया था कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारतीय दौरे के दौरान घरों से बार निकलें और बताएं कि कैसे नरेंद्र मोदी की सरकार नागरिकों को बाँट रही है।
मोदी का विरोध, अधिनियम का विरोध या फिर हिन्दुओं का विरोध या फिर यह गुस्सा कि आखिर इस्लामिक देशों में धार्मिक पहचान के आधार पर हो रहे उत्पीड़न से बचकर कोई कैसे आ सकता है? आखिर काफिरों को जीने का आश्वासन कैसे कोई सरकार दे सकती है? क्या यह गुस्सा था? आखिर गुस्से का कारण क्या था, आन्दोलन का कारण क्या था, या फिर दंगों का कारण क्या था, ये तमाम प्रश्न अभी तक अर्थात चार वर्षों तक अनुत्तरित हैं और साथ ही अनुत्तरित हैं उन छवियों से उपजे प्रश्न कि आखिर भारतीय पहचान वाली महिलाओं की भारतीय पहचान से घृणा इस सीमा तक क्यों थी कि वह उन्हें नष्ट करना चाहती थी?
आखिर “हम देखेंगे” में किसे देखा जा रहा था और क्यों? इसके साथ एक प्रश्न और भी उठता है कि भारत में तमाम ऐसे शायर हुए, जिन्होनें क्रान्ति की, व्यवस्था परिवर्तन और विरोध की रचनाएं रचीं, जैसे कि दुष्यंत त्यागी, जिनकी यह गजल बहुत ही मशहूर है कि
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। एक भी गजल को इस आन्दोलन में नहीं प्रयोग किया गया, क्योंकि इस आन्दोलन का मकसद केवल हंगामा खड़ा करना ही था, हंगामे में दिल्ली को जलाना, उस लोक को जलाना जिस लोक में सिन्दूर और बिंदी लगाए महिलाएं हैं। उस सरकार को नीचा दिखाना था, जिसे आम जनता ने तमाम विरोधों के बाद भी चुन लिया था।
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