मंदिर प्रभु श्रीराम के अनन्य मित्र बाल सखा निषादराज गुह के नाम पर है, जहां राम संग उस निषादराज की भी प्रतिमा स्थापित है, जिनके लिए उन्होंने कहा था कि ‘तुम मेरे लिये भरत के समान प्रिय भाई हो। हे निषादराज, तुम्हारा मेरा घर में सदैव स्वागत है। यह तुम्हारे आगमन का आकांक्षी है, यहां तुम कभी भी आ सकते हो।’
प्रभु राम की यात्राओं की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे जहां से भी गुजरे, वह स्थान स्वयं में एक तीर्थ ही है। ऐसा ही एक तीर्थ उत्तर प्रदेश के मऊ का रामघाट है। यह प्रभु राम की यात्रा का छठा पड़ाव स्थल है।
इसी मार्ग से होकर प्रभु श्रीराम महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि सिद्धाश्रम गए थे। यह मऊ नगर के निकट सरयू नदी की पुरानी धारा के तट पर स्थित है। यहां श्रीराम ने सरयू में स्नान किया था, इसलिए नाम रामघाट है। दुर्भाग्य से आज यह स्थान देखरेख के अभाव और अवैध कब्जे की वजह से धूमिल होने के कगार पर है। इसी यात्रा पथ में आगे सिदागर घाट आता है। यह उत्तर प्रदेश में गाजीपुर से बलिया जाने वाले मुख्य मार्ग पर अवस्थित है। यहां सरयू तट पर सिद्ध संतगण तप किया करते थे। संतों की तपोस्थली होने की वजह से इसका नाम सिदागर घाट पड़ा।
अयोध्या से निकलने के उपरांत श्रीराम ने पहली बार इतने संतों के एक ही स्थान पर दर्शन किए थे। इससे पहले ऐसा अवसर उन्हें प्रयागराज के माघ मेले में मिला था जहां वे पिता दशरथ के संग गए थे। कथा है कि सदागर घाट पर संतों से दोनों भाइयों को भरपूर आशीर्वाद मिला था। आगे सिद्धाश्रम क्षेत्र से वनवास में संतों का स्नेह मिलने ही वाला था।
इसके आगे उनकी यात्रा उत्तर प्रदेश में ही बलिया जिले में अवस्थित लखनेश्वर डीह पहुंची थी। यह स्थान सरयू की पुरानी धारा से कुछ दूरी पर है। इसकी ख्याति दूर-दूर तकहै। यहां पर एक शिवालय है। मान्यता है कि इसे प्रभु राम के अनुज लक्ष्मण द्वारा स्थापित किया गया था। महर्षि विश्वामित्र के साथ यात्रा के दौरान लक्ष्मण द्वारा स्थापित और पूजित यह इकलौता शिवालय है।
इस नाते इसका नाम लक्ष्मणेश्वरनाथ महादेव मंदिर है। कालांतर में यहां एक किले का निर्माण किया गया। किंतु समय के साथ इसके भग्नावशेष ही बचे हैं। इस कारण इसे लक्ष्मणेश्वर डीह कहा जाता है। यह जगह अब भी आसपास की बस्ती से काफी अधिक ऊंचाई पर है। ज्ञात हो कि बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऐसे स्थलों को डीह कहा जाता है।
लक्ष्मणेश्वर डीह परिसर में अवस्थित सरोवर से लगभग सौ वर्ष पूर्व एक शिवलिंग प्राप्त हुआ था। यह कहानी एक स्थानीय जमींदार से जुड़ी है। नगर के इन सामंत का चर्म रोग यहां स्नान करने से पूरी तरह ठीक हो गया था। इसके बाद, उनके द्वारा यहां खुदाई कराई गई, जिसमें एक शिवलिंग और कई छोटी-छोटी मूर्तियां प्राप्त हुर्इं थी। शिवलिंग की तली का पता न लग पाने के कारण उसे यहीं स्थापित कर पूजा-अर्चना प्रारंभ की गई। इस घटना के बाद इस स्थान की प्रसिद्धि और भी बढ़ गई। यहां मकर संक्रांति, शिवरात्रि और सावन में मेले सा दृश्य रहता है।
यहां से आगे महर्षि विश्वामित्र और दोनों कुमारों को गंगा किनारे यात्रा करनी थी। इसके लिए पहले गंगा-सरयू संगम को पार करना आवश्यक था। उन्होंने जहां से गंगा-सरयू मिलन स्थली को पार किया वह रामघाट नगहर नामक बस्ती है। यहां अब भी सरयू की पुरानी धारा प्रवाहमान है। इन दिनों भले ही गंगा-सरयू संगम बिहार के सारण जिले में चरांद मे होता है, जो पास में ही स्थित प्रसिद्ध अम्बिका भवानी मंदिर के लिए जाना जाता है। इस संगम स्थल से अनेक उत्खननों में कई पुरातात्विक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। किंतु यह वह किनारा नहीं है जहां से होकर श्रीराम गए थे।
राम जिस घाट उतरे, वह उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का नगहर घाट है। यह निषाद बिरादरी की एक बड़ी बस्ती है। रामायणकालीन मान्यताओं के अनुसार, यहां के निषादों ने ही श्रीराम, लक्ष्मण और महर्षि विश्वामित्र को सरयू नदी पार गंगा तट पर पहुंचाया था। प्रभु राम के जीवन में यह निषादों का पहला सहयोग था। दूसरा सहयोग उनकी लंका यात्रा के दौरान गंगा पार कराने के वक्त का है। श्रीराम यहां से सरयू पार कर महर्षि विश्वामित्र के आश्रम क्षेत्र सिद्धाश्रम गए थे। यहां इस स्थान पर विश्वामित्र और राम-लक्ष्मण ने एक रात विश्राम भी किया था।
नगहर घाट के निषादों ने ही श्रीराम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र को सरयू नदी पार गंगा तट पर पहुंचाया था। प्रभु श्रीराम यहां से सरयू पार विश्वामित्र के आश्रम क्षेत्र सिद्धाश्रम गए थे। श्रीराम के जीवन में यह निषादों का पहला सहयोग था। दूसरा सहयोग उनकी लंका यात्रा दौरान गंगा पार कराने के वक्त का है
यहां का मंदिर प्रभु श्रीराम के अनन्य मित्र बाल सखा निषादराज गुह के नाम पर है, जहां राम संग उस निषादराज की भी प्रतिमा स्थापित है, जिनके लिए उन्होंने कहा था कि ‘तुम मेरे लिये भरत के समान प्रिय भाई हो। हे निषादराज, तुम्हारा मेरा घर में सदैव स्वागत है। यह तुम्हारे आगमन का आकांक्षी है, यहां तुम कभी भी आ सकते हो।’ इसी की अभिव्यक्ति रामचरित मानस में है कि ‘…तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई’ और ‘…आवत रहो सदा पुर बासा’।
रामायण की कथा के अनुसार यात्रा क्रम में यहां उन्होंने नदियों के मिलन से उत्पन्न होने वाली तुमुल ध्वनि सुनी थी। इसकी चर्चा वाल्मीकि रामायण में आई है। असल में जल से सराबोर दो तेज बहती नदियां जब आपस में मिलती हैं तो ऐसी ही गर्जना होती है। (क्रमश:)
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