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‘ प्रत्यक्ष दिखती चीजों को भी साक्ष्यों के आधार पर प्रमाणित करना पड़ता है!’ – यदुबीर सिंह रावत

ज्ञानवापी पर भी अदालत के निर्देश पर सर्वे के बाद एएसआई ने जो रिपोर्ट सामने रखी उसमें ऐसे प्रमाणों का उल्लेख है

by Alok Goswami
Feb 7, 2024, 06:04 pm IST
in भारत, उत्तर प्रदेश, साक्षात्कार
महानिदेशक श्री यदुबीर सिंह रावत

महानिदेशक श्री यदुबीर सिंह रावत

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अयोध्या में रामलला विराजमान हुए हैं। इसके लिए चले न्यायालीन संघर्ष में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई का बहुत बड़ा योगदान रहा। अदालत ने पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के आधार पर यह निर्णय दिया कि यहां पर भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था और कभी यहां एक भव्य मंदिर हुआ करता था। इसी प्रकार, ज्ञानवापी पर भी अदालत के निर्देश पर सर्वे के बाद एएसआई ने जो रिपोर्ट सामने रखी उसमें ऐसे प्रमाणों का उल्लेख है जो बताते हैं कि वहां पहले एक भव्य मंदिर था। ऐसे ही कुछ विषयों पर पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक श्री यदुबीर सिंह रावत से विस्तृत बातचीत की जिसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं 

पुरातत्व सर्वेक्षण का भारत की संस्कृति, सभ्यता और मानव इतिहास से परिचित कराने में एक बड़ा योगदान रहा है। पुरातात्विक सर्वेक्षण के इस महत्व पर क्या कहना चाहेंगे? 
पुरातत्व एक ऐसा विज्ञान है जो कि इतिहास से परे जाता है। इतिहास के संबंध में तो हमें लिखित जानकारी मिलती है,जो विभिन्न रूपों में उपलब्ध है।  हम जिस सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की बात करते हैं, अभी उनकी लिपि और मुद्राएं पढ़ी नहीं गई हैं। इसलिए हम अभी उस सभ्यता का असली नाम नहीं जानते। जिस दिन लिपि पढ़ली जाएगी, उस दिन वह इतिहास का भाग बन जाएगा। पुरातत्व एक तरह से कड़ियां जोड़ने का काम करता है। ये कड़ियां हमें बताती हैं कि कोई वस्तु कितनी प्राचीन है। खासकर गुफाओं के संदर्भ में भित्तिचित्र या ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनसे पता चल जाता है कि उस समय के लोग क्या-क्या करते होंगे। पुरातत्व सर्वेक्षण ग्रंथों, अभिलेखों, स्मृति आदि से संबंधित चीजें एकत्र करता है।

गुजरात में एएसआई ने हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में वडनगर और धौलावीरा में उत्खनन किए हैं। वहां से एक अलग ही संस्कृति की झलक मिलती है। आपके इन उत्खननों से क्या सामने आया? 
हड़प्पा सभ्यता से जुड़े इन दो स्थानों पर उत्खनन से पहले, मैं एएसआई के तहत ही हरियाणा के बनावली में काम कर चुका था। हमने बनावली में जो देखा था उसकी तुलना में कच्छ, गुजरात में दिखी चीजों में क्षेत्र के हिसाब से बहुत अंतर दिखाई दिया। इससे लगा कि हड़प्पा की संस्कृति हर जगह एक समान नहीं रही, इसमें भूगोल, मिट्टी, मौसम की वजह से विविधता रही है। लेकिन इसी सभ्यता के बहुत सारे गांवों, नगरों और इस्तेमाल करने वाली कई चीजों में समानता दिखी है। धौलावीरा के उत्खनन में दिखा कि पहले मिट्टी की ईंटें बनाई गर्इं, बाद में उसकी जगह पत्थर की परतों से निर्माण किया गया, इस वजह से आज भी वह पूरा नगर बहुत हद तक सुरक्षित है।  दुनिया में अगर 5 हजार साल पहले के नगर का स्वरूप देखना है, तो उसके लिए धौलावीरा से अच्छा कोई उदाहरण नहीं है। यहां 15 मीटर तक ऊंची दीवारें और सीढ़ियां दिखी हैं। हड़प्पा सभ्यता की कई चीजें यहां काफी संरक्षित हैं। धौलावीरा भविष्य में बहुत बड़ा वैश्विक पर्यटन केन्द्र बनेगा।

 हरियाणा में आदि बद्री में सरस्वती की खोज के लिए उत्खनन हुआ, नदी के पुराने अंश मिले हैं। इससे साबित होता है कि सरस्वती नदी यहां से बहती थी। अभी उस कार्य में हम कहां तक पहुंचे हैं?
यह काम 1970 के दशक में शुरू हुआ था। इसमें इसरो, फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी अमदाबाद, जोधपुर के अनुसंधान केन्द्र वगैरह ने काम किया था। वहां सैटेलाइट की मदद से भू-सर्वेक्षण किया गया था जिससे पता चला था कि सरस्वती का बहाव किस क्षेत्र में होता था। सैटेलाइट से बने नक्शे में आदि बद्री तक का जुड़ाव दिखता है। फिर हमने बनावली में काम किया तो कुणाल से होते हुए कुरुक्षेत्र तक जोहड़ दिखे, फिर राखी गढ़ी तक अदृश्य घग्घर नदी के चिन्ह दिखे। आगे के काम में तुगलक काल के हिसार से भिवानी तक जाते एक एक किमी. लंबे जोहड़ दिखे। ये प्राचीन सरस्वती नदी से ही संबद्ध हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि यहां पर कोई बड़ी नदी बहती थी, जिसके किनारे बड़े-बड़े नगर बसे। इस पर सरस्वती शोध संस्थान का भी काम चल रहा है।

 …यानी पुरातत्व सर्वेक्षण और सरस्वती शोध संस्थान के प्रयासों से यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि इस क्षेत्र से सरस्वती नदी बहा करती थी?
हां, इसके प्रमाण भी मिले हैं। पूरी हड़प्पा सभ्यता से जुड़े स्थल सरस्वती नदी के किनारे ही मिलते हैं। इसकी पूरी श्रृंखला जाती दिखती है बहावलपुर, पाकिस्तान तक। अब सवाल है कि उस नदी का स्वरूप क्या था। क्या यह तेज बहाव वाली हिमालयी नदी रही होगी अथवा मंद-मंद बहने वाली नदी? इसमें विद्वानों के अलग अलग मत हैं। कुछ कहते हैं कि हड़प्पा सभ्यता के काल में नदी का बहाव मंद पड़ गया होगा। वे मानते हैं कि उस वक्त सतलुज तक पानी ले जाने वाली यमुना की धार इस तरफ मुड़ गई होगी, जिस वजह से सरस्वती का बहाव मंद पड़ा होगा।

वडनगर (गुजरात) में आपने जो काम किया, वह क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विशेष दिलचस्पी के बाद किया गया था, जो तब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे?  
जी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे और हम जानते हैं कि श्री मोदी वडनगर से आते हैं। 2005 में उन्होंने पुरातत्व सर्वेक्षण से वडनगर में उत्खनन की संभावनाओं पर बात की थी। मैं तब गुजरात में ही कार्यरत था। मैंने उस काम का पूरा खाका तैयार किया और मुझे यह देखकर जानकर हैरानी हुई थी कि मोदी जी को वडनगर के आसपास के क्षेत्रों का पूरा इतिहास पता था। उनकी वहां बौद्ध मत से जुड़ी बातों में खास रुचि दिखी। ह्वेन सांग 7वीं सदी में वडनगर गया था। उस समय उस जगह का नाम आनंदपुर था। ह्वेन सांग की डायरी में यह उल्लेख मिलता है। मोदी जी को यह सब पहले से पता था। हमने जनवरी 2006 में वडनगर में खुदाई शुरू की और 2008 में वहां एक बौद्ध मठ उजागर हुआ। फिर हमने वडनगर के विभिन्न राजवंशों और उनके राज में रही व्यवस्थाओं का पता लगाया।

अदालत में यह सिद्ध करने में एएसआई की बहुत बड़ी भूमिका रही है कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि ही वह स्थान है जहां राम जन्मे और कभी यहां एक भव्य मंदिर हुआ करता था। अयोध्या में हुए उस उत्खनन पर आप क्या कहेंगे? 
श्रीराम जन्मभूमि पर उत्खनन की शुरुआत महान पुरातत्वविद् प्रो. बी.बी. लाल के नेतृत्व में हुई थी। उन्होंने एक रामायण प्रोजेक्ट पर कार्य शुरू किया था। उस दौरान उन्हें अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बहुत से खंभे मिले थे। उन्होंने तब कहा था कि संभवत: यहां एक बहुत भव्य मंदिर रहा होगा जिसके अवशेष ये खंभे हैं। बाद में न्यायालय के आदेश पर पुरातत्व सर्वेक्षण ने उत्खनन किया। इस उत्खनन से मिले अवशेषों ने प्रो. लाल की खोज में मिले अवशेषों का समर्थन किया। समझ में आ गया कि जमीन के नीचे का इतिहास अलग है और जमीन के उपर का इतिहास अलग। वास्तव में तो जमीन के नीचे के इतिहास ने बताया कि वहां एक मंदिर था जिसे तोड़कर एक ढांचा बनाया गया था। इसके ऐतिहासिक साक्ष्य भी हमारे पास थे ही। समकालीन इतिहासकारों का लिखा भी हमारे सामने है। न्यायालय ने इन सभी साक्ष्यों और इतिहासकारों के लिखे को ध्यान में रखते हुए निर्णय दिया कि यही भगवान राम की जन्म भूमि है। प्रत्यक्ष प्रमाणों को नकारा नहीं जा सकता। एएसआई के योगदान से यह बहुत ऐतिहासिक कार्य हुआ है, निश्चित ही यह एएसआई का सौभाग्य ही है।

प्रो. लाल को अपना गुरु मानने वाले पुरातत्वविद् के.के. मोहम्मद के योगदान को आप किस प्रकार देखते हैं? 
बेशक, श्री मोहम्मद का इसमें बहुत बड़ा योगदान रहा है। ऐसे साहसी व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं जो प्रवाह के विरुद्ध जाने की हिम्मत दिखाते हैं। उन्होंने लोगों को बताया कि जमीन के नीचे से निकले सत्य के वे साक्षी रहे हैं। सत्य के साथ खड़े रहना ही सबसे बड़ा साहस है। आज भी मोहम्मद साहब उस सत्य को सार्वजनिक रूप से बोलते हैं। उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है। तो, नि:संदेह के.के. मोहम्मद का श्रीराम जन्मभूमि के संबंध में बड़ा योगदान है।

काशी में ज्ञानवापी को लेकर चल रहे विवाद और उसमें एएसआई की सर्वेक्षण रिपोर्ट में दर्ज साक्ष्यों से पता चला है कि वहां एक बड़ा मंदिर हुआ करता था। आपका क्या कहना है? 
जहां तक ज्ञानवापी की बात है, पुरातत्व सर्वेक्षण से अदालत के आदेश के बाद एक रिपोर्ट गई थी। संभवत: वहां के पक्षकारों की मांग पर अदालत ने हमसे वहां कार्य करने को कहा। काशी में ज्ञानवापी में बहुत सारी चीजें प्रत्यक्ष भी दिखती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से कई बार चीजों के प्रत्यक्ष दिखने पर भी साक्ष्य द्वारा उन्हें प्रमाणित करना पड़ता है। पुरातत्व सर्वेक्षण की उसमें भूमिका सिर्फ इतनी रही कि हमें चीजों को पहचान कर बताना पड़ा कि कौन वस्तु किस काल की है, किस शैली की है, उसका ऐतिहासिक-धार्मिक महत्व क्या है, स्थापत्य की विशेषता क्या है। पुरातत्व की दक्षता इसी में तो है। पुरातत्व बताता है कि धार्मिक विधि-विधान में स्थापत्य शैली क्या होती है। इन सभी चीजों के आधार पर पुरातत्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। ज्ञानवापी में हिन्दू प्रतीक चिन्ह दिखे हैं। पुष्प, त्रिशूल, स्वस्तिक, हाथी जैसे प्रतीक मिले हैं। स्थापत्य में इल्लिका तोरण मिला है जैसा जैन स्थापत्य शैली में दिखता है। मंदिर में जैसी होती है, वैसी दीवार है। गणेश की, अन्य देवों की प्रतिमाएं हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण ने तो पक्ष-विपक्ष से इतर, अपनी रिपोर्ट सौंपी है।

कौन सी चीज किस कालखंड की है, इसका निर्धारण करने की आपकी विधि क्या है? 
कार्बन डेटिंग विधि के आने से पूर्व सापेक्षता यानी रिलेटिव डेटिंग तकनीक से काल निर्धारण किया जाता था। दो स्थानों पर मिलीं एक जैसी चीज से पहले वाले स्थान पर मिली ठीक वैसी चीज के काल से मिलाकर उस चीज या स्थान का कालखंड पता किया जाता है।  उत्खनन में जैसे बर्तन मिले तो ठीक वैसे ही बर्तन जहां पर भी मिले होंगे और एक ही तकनीक के होंगे तो उनका कालखंड भी एक सा ही होगा। इसका आकलन उसी सापेक्षता के सिद्धांत पर किया जाता है। आजकल एमएस डेटिंग तकनीक अपनाई जाती है। इसमें नमूने की परिशुद्धता बहुत मायने रखती है। जैसे, आज गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर का जो स्वरूप दिखता है वह 16वीं सदी का स्थापत्य है। जबकि यहां खुदाई में इसके नीचे छठी सदी तक के अवशेष मिले हैं। तब भी यहां मंदिर ही था, लेकिन तब अलग स्वरूप रहा होगा।

पुरातत्व के साथ रोमांच का एक आयाम जुड़ा होता है कि धरती के गर्भ से जाने क्या सामने आएगा। इस रोमांच का अगला पड़ाव क्या दिखने वाला है? भारत में आपकी अन्य कौन सी महत्वपूर्ण खोजें चल रही हैं?
अभी हम अपने पहले हुए काम का विश्लेषण कर रहे हैं। मेरी एक सोच है कि हम अभी तक अपने वैदिक साहित्य और इतिहास से पूर्व की पुरातात्विक खोजों का समन्वय करके नहीं देखा है। हमारे यहां वैदिक काल के बाद से ही ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, पाणिनी, पतंजलि जैसा प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। साथ ही, एक विस्तृत सभ्यता है, जिसका 15वीं शताब्दी बीसी के आसपास उतार शुरू होता है। उसके बाद छठी शताब्दी बीसी तक एक बहुत ग्रामीण सभ्यता का काल रहा। वेदों से लेकर पतंजलि तक जो उत्कृष्ट साहित्य है वह किन लोगों का है? वे हड़प्पा के समकालीन ही रहे होंगे। तो पुरातत्व इसमें हमारी मदद कर सकता है, उनकी जीवनशैली, नगर व्यवस्था आदि को दिखाकर। यह अपने में एक बहुत बड़ा काम है।

भारत प्राचीनतम सभ्यता है, एक पुरातत्वविद् के नाते इस बात से आप कितने सहमत हैं?
हम सौभाग्यशाली हैं कि एक सम्पन्न देश में रहते हैं। हमारे देश में उत्तम जलवायु, वातावरण, उपजाऊ जमीन आदि है। दुनिया में हमारा ही देश है जिसने किसी हिस्से के बिखरने के बाद उसको फिर से आबाद किया है। हमारे यहां प्राचीनता आज भी जिंदा है। हमारी सभ्यता चिरंतन और जीवंत रही है। हमारे यहां वेद अथवा स्मृति कायम रही है, यह भी चिरंतनता का प्रमाण है। वैदिक काल का ऋग्वेद एक बहुत प्रचुर स्मृति है। उसके बाद निराशा भरे आरण्यक काल के ऋषियों ने उस निराशा को दूर कर लोगों में जोश जगाने की कोशिश की। उसके बाद रीतिकाल या भक्तिकाल है। सूरदास, कबीर, तुलसीदास एवं अन्य संतों ने समाज में एक नई ऊर्जा पैदा करने की कोशिश की। हम चाहते हैं कि पुरातत्व के साक्ष्यों का आकलन वेदों आदि के साथ करें और उसमें सामंजस्य का पता लगाएं।

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