लवपुरी से लाहौर की हिन्दूशाही और विभाजन

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प्रो. भगवती प्रकाश
भगवान श्रीराम के पुत्र लव की बसाई नगरी लवपुरी अर्थात लाहौर हिंदू संस्कृति का केंद्र होने के कारण कभी लघु काशी कही जाती थी। अरबी-तुर्की आक्रमणों के पूर्व ईस्वी 982 में लिखी पुस्तक, ‘‘हदूद अल आलम’’ के अनुसार लाहौर अतिभव्य व प्रभावशाली मन्दिरों, विशाल बाजारों एवं अति भव्य बागानों वाला ‘सहर‘ अर्थात नगर था, यहां कई बार हिंदू नरसंहार हुआ।

भारत-पाक सीमा स्थित लाहौर भगवान श्रीराम के पुत्र महाराज लव द्वारा बसाया होने से लवपुरी कहलाता था। लाहौर किले में महाराज लव का मन्दिर (चित्र 1-6) भी विद्यमान है। मन्दिर में महाराज लव की मूर्ति अरबी-तुर्की आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त कर दिए जाने से आज वहां मन्दिर रिक्त है। ईसा पूर्व के लेखकों द्वारा वहां महाराज लव के मन्दिर का वर्णन किया जाता रहा है।

लाहौर किले के महाराज लव के रिक्त मंदिर  का द्वार
लाहौर किले के महाराज लव के  मंदिर की बाहरी दीवार महाराज लव के  मंदिर का शीर्ष भाग

ऐतिहासिक अभिलेख
अरबी-तुर्की आक्रमणों के पूर्व ईस्वी 982 में लिखी पुस्तक, ‘‘हदूद अल आलम’’ में लाहौर को अति भव्य व प्रभावशाली मन्दिरों, विशाल बाजारों एवं अति भव्य बागानों वाला ह्यसहरह्य अर्थात नगर बतलाया है। इस पुस्तक का अंग्रेजी में भाषान्तर रूसी लेखक ब्लादिमीर फेडोटोविक मिनोर्स्की ने ‘‘दी रीजन्स आॅफ द वर्ल्ड -ए पर्शियन ज्योग्राफी’’ के नाम से किया जो 1927 में लाहौर से पुन: प्रकाशित हुई। दो बड़े व प्रमुख बाजारों के चारों ओर सघन बस्तियों का वर्णन करते हुए लिखा है कि ये बाजार और उनके चारों ओर बसी बड़ी-बड़ी बस्तियां एक ही परकोटे से घिरी हुई थीं। दूसरी सदी के भूगोलवेत्ता टालेमी ने भी इसकी भव्यता का वर्णन किया है। बिम्बसार के काल में लुवाणा क्षत्रिय, जो लव के वंशज माने जाते थे, एक वीर जाति थी। इतिहासकार बर्टन के अनुसार लुवाणा कालान्तर में लौह-राणा कहलाने लगे वे आज बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, और मध्य एशिया के पूर्वी भागों में बसे हैं। चीनी यात्री फाह्यान ने अपनी चौथी सदी की भारत यात्रा वृतान्त में अर्थात लव के लोहाना वंशज को उत्तर-पश्चिमी भारत की बहादुर जाति लिखा है। ग्याहरवीं सदी के एक अन्य चीनी चात्री ने लोहारना साम्राज्य को अत्यन्त शक्तिशाली राज्य बतलाया है।

व्हेनसांग ने 630 ईस्वी के अपने यात्रा प्रवास के वर्णन में लाहौर का कई हजारों परिवारों वाले एक विशाल नगर के रूप में वर्णन किया है, जिनमें ब्राह्मण सर्वाधिक थे और नगर का विस्तार सिन्धु से व्यास नदी तक बतलाया। प्लूटार्क की पुस्तक ‘लाइफ आॅफ एलेक्जेण्डर’ में उन्होंने लिखा है कि सिन्धु तट पर विस्मयकारी जिम्नोसोफिस्ट्स नागा साधुओं ने भी संघर्ष किया।

लाहौर किले के महाराज लव  मंदिर का द्वार, लाहौर किले के महाराज रणजीत सिंह के दरवार 1860 का चित्र

आरम्भिक अरबी आक्रमणों का सफल प्रतिरोध
अरबी आक्रमणों के आरम्भ में 682 से ही लाहौर व सियालकोट अरबी लुटेरों की लूट के शिकार होते रहे हैं। सियालकोट अर्थात प्राचीन पौराणिक ‘शाकल द्वीप’ द्वापर युग से ही सूयोर्पासकों का केन्द्र रहा है। खुरासान का सुल्तान सुबुक्तगीन, जो महमूद गजनवी का पिता था,975 ईस्वी से ही हिन्दूशाही के राजा जयपाल पर बार-बार आक्रमण करता रहा है। उसकी पराजय पर राजा जयपाल उसे छोड़ देते रहे। उसने गजनी का सुल्तान बन कर भी पुन: आक्रमण किए, तब भी वह लाहौर नहीं ले सका। पुन: 1008 में लाहौर पर आक्रमण करने पर राजा जयपाल के पुत्र आनन्दपाल ने उसे परास्त किया। अन्त में 1022 में महमूद गजनवी ने लाहौर पर कब्जा करने में सफलता पाई और भनायक अग्निकाण्ड में पूरे नगर को जला दिया, मन्दिरों व गुरुकुलों को नष्ट कर दिया और ब्राह्मण वर्ग व शस्त्र उठाने योग्य समस्त जनता का निर्मम संहार कर डाला। तब भी लाहौर विभाजन के पहले तक हिन्दू संस्कृति का प्रमुख केन्द्र्र होने से लघुकाशी कहलाता था। लाहौर संग्रहालय में आज भी पिछली कई सहस्त्राब्दियों के हिन्दू व बौद्ध पुरावशेष संग्रहीत हैं।

हिन्दूशाही का दीर्घ संघर्ष
काबुल, जबुलिस्तान, कपिशा व टांक के हिन्दू व बौद्ध साम्राज्यों ने 643-870 के बीच अरबी इस्लामी आक्रान्ताओं से गजनी काबुल, लाहौर और पंजाब के कई भागों में कड़ा संघर्ष किया। काबुल शाही का साम्राज्य, जो पूर्वी ईरान तक था, भी टांक साम्राज्य की रक्षा पक्ति रही है। टांक साम्राज्य का उद्गम नागवंशी टांक से बतलाया जाता है जो भरत के पुत्र तक्षक के वंशज माने गये हैं। काबुलशाही के बाद 843 में कल्लर से आरम्भ हुई हिन्दूशाही के 8 शासकों ने भी पजांब से पूर्वी ईरान तक अरब व तुर्क आक्रान्ताओं का सशक्त प्रतिरोध किया था। हिन्दूशाही के राजा कल्लर (843-50), वाक्कदेव (850-95), कमलवर्मन (895-921), भीमदेव (921-64), जयपाल (964-1001) आनन्दपाल (1001-10), त्रिलोचनपाल, (1010-21) व भीमपाल (1022-26) ने 183 वर्ष तक, इन आठ पीढ़ियों ने लाहौर सहित पंजाब अफगानिस्तान में अरब आक्रान्ताओं से कड़ा संघर्ष किया। राजा भीमदेव ने पंजाब से उज्बेकिस्तान में बुखारा तक अरबों व तुर्को के आक्रमणों से जनता को सुदृढ़ सुरक्षा प्रदान की थी। राजा आनन्दपाल ने तो महमूद गजनवी को परास्त कर ही दिया था। लेकिन, अन्तिम पलों में उनका हाथी बिगड़ जाने से महमूद गजनवी को सफलता मिली।

लाहौर से विस्थापित होकर भारत आ रहे लोग, लाहौर से भारत आ रहे हिन्दू परिवार

लाहौर पर मराठा विजय
हिन्दूशाही के बाद मराठा अर्थात पेशवानीत स्वराज परिसंघ ने दूसरी दिल्ली विजय के बाद अफगानी आक्रान्ताओं का दमन करते हुए अप्रैल 1758 में लाहौर के किले पर स्वराज का भगवा ध्वज फहरा दिया था। रघुनाथ राव व मल्हार राव की इस विजय पर लाहौर की जनता ने 20 अप्रैल 1758 को शालीमार बाग में ऊंचा मंच बना उनका भव्य अभिनन्दन किया था। इसके तत्काल बाद रघुनाथ राव को सरहिन्द, मुल्तान, पेशावर और अटक पर भगवा ध्वज फहराने में सफलता मिली तब उन्होंने भगवा ध्वज को सिन्धु पार खैबर के दर्रे तक पहुंचा दिया। दुर्योग से 1761 के पानीपत के युद्ध में देश के ही कुछ शासकों द्वारा मराठा सेना की आपूर्ति बाधित कर देने से अब्दाली को14 जनवरी दोपहर बाद मराठाओं के विरुद्ध सफलता मिल गई। तथापि, 1788 से 1803 तक दिल्ली के लाल किले पर मराठाओं के हिन्दवी स्वराज का भगवा ध्वज फहराता रहा।


स्वाधीनता के ठीक पहले अगस्त 1946 व मार्च 1947 में लाहौर, मुल्तान आदि कई स्थानों पर हिन्दुओं का भारी नरसंहार कर उन्हें अन्य स्थानों पर पलायन के लिए विवश कर दिया गया। तब भी लाहौर में आधी संख्या हिन्दू व सिखों की थी और लाहौर को लेकर अन्त तक असमंजस बना रहा कि वह भारत में ही रहेगा। विभाजन के बाद भी 24 सितम्बर, 1947 को भारत आते सिखों व हिन्दुओं की पूरी ट्रेन के यात्रियों की हत्या कर दी गई थी।


महाराजा रणजीत सिंह की लाहौर विजय
महाराजा रणजीत सिंह ने 7 जुलाई 1799 को लाहौर पर विजय पाई और 12 अप्रैल 1801 को उनका वहां भव्य अभिषेक हुआ। तब लाहौर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया और पश्चिम में खैबर के दर्रे तक एवं उत्तर में जम्मू व कश्मीर तक अपना राज्य विस्तार किया। पचास वर्ष तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सतलज से आगे नहीं बढ़ने दिया और उनके बाद 1838 में उनके अल्पवयस्क पुत्र को अपदस्थ करके ही अंग्रेज लाहौर पर नियन्त्रण कर पाए थे। स्वाधीनता के ठीक पहले अगस्त 1946 व मार्च 1947 में लाहौर, मुल्तान आदि कई स्थानों पर हिन्दुओं का भारी नरसंहार कर उन्हें अन्य स्थानों पर पलायन के लिए विवश कर दिया गया। तब भी लाहौर में आधी संख्या हिन्दू व सिखों की थी और लाहौर को लेकर अन्त तक असमंजस बना रहा कि वह भारत में ही रहेगा। विभाजन के बाद भी 24 सितम्बर, 1947 को भारत आते सिखों व हिन्दुओं की पूरी ट्रेन के यात्रियों की हत्या कर दी गई थी।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)

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