रामायण सत कोटि अपारा : ‘रामलीला’ नाट्य मंचन का प्रभाव, भारत की सबसे पुरानी रामलीलाएं
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रामायण सत कोटि अपारा : ‘रामलीला’ नाट्य मंचन का प्रभाव, भारत की सबसे पुरानी रामलीलाएं

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के प्रचार-प्रसार के लिए रामलीला मंचन का प्रारम्भ किया। तुलसीदास जी ने हिंदी में नाटकों का अभाव पाकर इसका श्रीगणेश किया।

by रवि कुमार
Jan 30, 2024, 11:00 am IST
in भारत, संस्कृति
श्री रामलला के श्रंगार दर्शन

श्री रामलला के श्रंगार दर्शन

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पौष शुक्ल द्वादशी, 22 जनवरी को श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से एक बार पुनः सारा देश राममय हो गया है। श्रीराम भारत देश की आत्मा है, प्राण है। श्रीराम भारत के राष्ट्र पुरुष है। राम जन-जन के राम बने, तभी श्रीराम बने। वे जन-जन के राम नहीं बनते तो राजा राम ही कहलाते। श्रीराम को जनश्रुतियों में जीवित रखने का कार्य जितना रामकाव्य व रामकथा ग्रंथों ने किया, उतना ही बड़ा कार्य रामलीलाओं ने किया। रामलीला शब्द उत्तर भारत विशेषकर हिंदी भाषी प्रान्तों में श्रीराम के जीवन पर आधारित नाटक के रूप में प्रचलित हैं।

कितनी पुरानी है रामलीला

रामलीला कब और कैसे प्रारम्भ हुई, इसका मंचन सबसे पहले किसने किया, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। एक किवंदती है कि राम वन गमन के दौरान 14 वर्ष की वियोगावधि अयोध्यावासियों ने राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार इसके आदि प्रवर्तक मेघा भगत (तुलसीदास के शिष्य) जो काशी के निवासी माने जाते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के प्रचार-प्रसार के लिए रामलीला मंचन का प्रारम्भ किया। तुलसीदास जी ने हिंदी में नाटकों का अभाव पाकर इसका श्रीगणेश किया। इनकी प्रेरणा से अयोध्या व काशी के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी। तुलसीदास के शिष्यों द्वारा काशी, चित्रकूट व अवध में रामलीला मंचन जारी रहा। इतिहासविदों के अनुसार इससे पूर्व रामबारात व रुक्मणि विवाह पर शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। वर्ष 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने प्रतिवर्ष रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया।

भारत की सबसे पुरानी रामलीलाएं

काशी में सबसे पहले रामलीला मंचन प्रारम्भ हुआ। काशी नगर में चार स्थानों पर रामलीला होती है। जिनमें सबसे पुरानी रामलीला श्री चित्रकूट रामलीला समिति की है जिसका इस बार 483वां वर्ष है। इसके अतिरिक्त मौनी बाबा की रामलीला, लाट भैरव की रामलीला और अस्सी (घाट) की रामलीला का इतिहास चार सौ वर्ष से भी पुराना है। श्री चित्रकूट रामलीला समिति की रामलीला नगर में आठ स्थानों पर होती है। इसके पंच स्वरूप (राम, लक्षण, भरत, शत्रुघ्न व सीता) की भूमिका निभाने वाले किशोर 21 दिन तक घर नहीं जाते बल्कि लीला स्थल पर ही विश्राम करते हैं और काशी नगर में चारों रामलीला 33 दिन तक चलती है। काशी के बाद चित्रकूट व अवध की रामलीलाओं का इतिहास भी 475 वर्ष पुराना है।

इसके बाद दूसरे चरण में दारानगर, चेतगंज, जैतपुरा, काशीपुरा, मणिकर्णिका, लक्सा, सोहर कुआं, खोजवां, पांडेपुर क्षेत्र में रामलीलाओं का क्रमिक विकास हुआ। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में जाल्हूपुर, लोहता, चिरईगांव और कोरौता में रामलीला प्रारम्भ हुई। इन रामलीलाओं को प्रारम्भ करने के पीछे का उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध जनमानस को एकजुट करना था। उत्तर प्रदेश में ही ऐतिहासिक रामनगर की रामलीला, अयोध्या, चित्रकूट, अस्सी घाट (वाराणसी), प्रयागराज व लखनऊ की रामलीलाओं की अपनी शैली और विशेषता है। शायद इसलिए यह मुहावरा चला हो ‘अपनी-अपनी रामकहानी’ और कुछ पुरानी रामलीला

उत्तर प्रदेश में गाजीपुर की रामलीला खानाबदोश है। वहां रामलीला मंचन हर दिन अलग-अलग स्थान पर होता है। गोरखपुर में रामलीला समिति बनाकर 1858 में प्रारम्भ हुई। कुमांयू की रामलीला का प्रारम्भ 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में हुआ। इसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व.देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल (1880), बागेश्वर (1890) व पिथौरागढ़ (1902) में रामलीला मंचन प्रारम्भ हुआ। होशंगाबाद की रामलीला 1870 के आसपास सेठ नन्हेलाल रईस ने प्रारम्भ करवाई थी। 1885 से इसका नियमित मंचन होना प्रारम्भ हुआ। सोहागपुर ग्राम (होशंगाबाद) की रामलीला 1866 में प्रारम्भ हुई। पीलीभीत की रामलीला का इतिहास भी 150 वर्ष से अधिक पुराना है। इसका मंचन मैदान में होता है। फतेहगढ़ की रामलीला 150 वर्ष पुरानी है, इसे अंग्रेजों का भी सहयोग मिलता रहा।

दिल्ली की रामलीला

दिल्ली की रामलीला का इतिहास काफी पुराना है। मुगल शासक औरंगजेब ने अपने शासन काल में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। वर्ष 1719 के बाद दिल्ली स्थित सीताराम बाजार में रामलीला का आयोजन होता रहा। बहादुरशाह जफर ने भी अपने काल में रामलीला का मंचन करवाया। बाद में अंग्रेजों ने इसे रुकवा दिया। 1911 में महामना मदन मोहन मालवीय ने फिर से रामलीला को प्रारम्भ करवाया। आज चांदनी चौक के गांधी मैदान, सुभाष मैदान व रामलीला मैदान की रामलीला प्रसिद्ध है।

‘राधेश्याम रामायण’ की लोकप्रियता

प्रसिद्ध ‘राधेश्याम रामायण’ के रचयिता 1890 में बरेली में जन्मे कथावाचक राधेश्याम हैं। पंडित राधेश्याम बहुत कम आयु से ही अपने पिता बांकेलाल के साथ ‘रुक्मणि मंगल’ की कथा कहते हुए कथावाचक के नाते व पौराणिक आख्यानों पर रचे काव्य के जरिए अपनी पहचान बना चुके थे। 1910 में पंजाब के नानक चंद खत्री की न्यू अल्बर्ट कम्पनी बरेली आई और नानक चंद ने अपनी कम्पनी के ‘रामायण’ नाटक में सुधार लाने के लिए राधेश्याम से आग्रह किया। जयपुर के महाराज सवाई सिंह के सचिव ने नानक चंद को यह नाटक राधेश्याम से सुधरवाने का सुझाव दिया था। पंडित राधेश्याम से कई बार कथा सुन चुके महाराज सवाई माधोसिंह उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। कंपनी का ‘रामायण’ नाटक तुलसीदास की चौपाइयों के साथ तालिब, उफक और रामेश्वर भट्ट की मिली जुली रचना थी। राधेश्याम ने उस रचना में संशोधन के साथ नारद की भूमिका भी जोड़ी। नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ और साथ में पंडित राधेश्याम कथावाचक भी। यही सिलसिला ‘राधेश्याम रामायण’ तक गया।

‘राधेश्याम रामायण’ ग्रन्थ में आठ काण्ड तथा 25 भाग हैं। इस ग्रन्थ में श्रीराम कथा का वर्णन इतना मनोहारी ढंग से किया गया है कि जब-जब इस रचना का रसपान करते हैं। तब-तब रसपान करने वाले इसके प्रणेता के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं। हिन्दी, उर्दू, अवधी और ब्रजभाषा के लोक शब्दों के अलावा एक विशेष गायन शैली में रचित राधेश्याम रामायण गांव, कस्बा और शहरी क्षेत्र के धार्मिक लोगों में बहुत लोकप्रिय हुई। पंडित राधेश्याम कथावाचक के जीवनकाल में ही इस ग्रन्थ की हिन्दी व उर्दू में पौने दो करोड़ से अधिक प्रतियां प्रकाशित हुईं और विक्रय हुईं।

अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ कैरोलिना की असिस्टेंट प्रोफेसर पामेला लोथस्पाइच ने पंडित राधेश्याम के काम पर लंबे समय तक शोध किया। अपने शोध ‘द राधेश्याम रामायण एण्ड संस्कृटाइज़ेशन ऑफ खड़ी बोली’ में वे 1939 से 1959 के बीच आए ‘राधेश्याम रामायण’ के संस्करणों में हिंदी-उर्दू भाषा को शुद्ध हिंदी की ओर खींचने के प्रयास का उल्लेख करती है।

‘राधेश्याम रामायण’ (बाल काण्ड भाग-1-जन्म) का गीत

अवध में है आनन्द छाया लाल कौशल्या ने जाया।

देख अनूप रूप बालक का चकित हुआ रनिवास।।

समाचार सर्वत्र सुनाने धाये दासी दास।

संदेशा नृप को पहुंचाया लाल कौशल्या ने जाया।।

अनवरत चलने वाली अयोध्या की रामलीला

अनवरत चलने वाली अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या की रामलीला का प्रारम्भ वर्ष 1988 में हुआ था। तब प्रत्येक मंगलवार को ये रामलीला होती थी। ये रामलीला लगभग एक वर्ष तक चली, फिर 19 मई 2004 से अनवरत चलने वाली रामलीला की शुरूआत हुई, जिसमें हर दिन शाम 6 बजे से रात 9 बजे तक रामलीला का मंचन होता था। यह रामलीला 23 नवंबर 2015 तक चली फिर बंद हो गई। उसके बाद 3 मई 2017 से फिर इस अनवरत चलने वाली रामलीला की शुरूआत हुई जो 21 मार्च 2020 तक चली फिर कोरोना के चलते इसे बंद कर दिया गया था। अयोध्या मंडली की रामलीला पूरे देश में प्रसिद्ध है। अयोध्या की रामलीला में एक विशाल मंच बनाकर पात्र संवादों को गीत के माध्यम से बोलते हैं। कथक के माध्यम से भी कलाकारों की ओर से रामकथा का वर्णन किया जाता है।

सामान्यतः सभी स्थानों पर रामलीला मंचन विजयादशमी से पूर्व होता है और प्राय 10 दिन का होता है। चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में किया जाता है और सिर्फ पांच दिनों के लिए ही रामलीला का मंचन होता है। इसका प्रारंभ महाशिवरात्रि से होता है। चित्रकूट की रामलीला भारत में इसलिए प्रसिद्ध है क्योंकि रामलीला के पात्र यहां प्रतिवर्ष तकनीक का उपयोग कर रामलीला को सजीव करते रहते हैं।

देशभर में कुल कितनी रामलीलाओं का मंचन होता है, ये कहना कठिन है। जहां भी रामलीला मंचन होता है, वहां का आमजन इस मंचन से प्रभावित होता है। सभी स्थानों पर मंचन का मूल तो श्रीराम चरित ही है परन्तु सभी की शैली का अलग ही वैशिष्ट्य है। सभी रामलीला मंचन अद्भुत है और नियमित प्रभाव डालने वाले हैं। इन रामलीलाओं में अभिनय करने वाले, भाग लेने वाले कलाकारों के जीवन पर श्रीराम चरित का विशेष प्रभाव रहता है।

(लेखक विद्या भारती जोधपुर (राजस्थान) प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)

 

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