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धर्मस्थापना है हमारा कर्तव्य

आज अयोध्या में रामलला के साथ भारत का स्व लौटकर आया है। संपूर्ण विश्व को त्रासदी से राहत देने वाला नया भारत खड़ा होकर रहेगा, आज का कार्यक्रम इसका प्रतीक बन गया है।

by डॉ. मोहनराव भागवत, सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
Jan 29, 2024, 01:59 pm IST
in भारत, संघ, संस्कृति
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत द्वारा राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में दिए गए उद्बोधन का अविकल पाठ –

आज के कार्यक्रम का आनंद वर्णनातीत है। आज अयोध्या में रामलला के साथ भारत का स्व लौटकर आया है। संपूर्ण विश्व को त्रासदी से राहत देने वाला नया भारत खड़ा होकर रहेगा, आज का कार्यक्रम इसका प्रतीक बन गया है। यहां जो उत्साह, आनंद का वातावरण हम अनुभव कर रहे हैं वैसा ही वातावरण पूरे देश में है। छोटे-छोटे मंदिरों के सामने दूरदर्शन पर इस कार्यक्रम को देखने वाले हमारे समाज के करोड़ों बंधु, जो यहां नहीं पहुंच पाए, ऐसे हमारे नागरिक, माता, भगिनी, उन सबमें आनंद का भाव है, सब भावविभोर हैं।

इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में आने से पूर्व प्रधानमंत्री जी ने जितना कहा था, उससे कई गुना अधिक कठोर व्रत रखा। मैं जानता हूं, वह तपस्वी हंै। परंतु वह अकेले तप कर रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि हमें क्या करना चाहिए। अयोध्या में रामलला आए हैं। लेकिन प्रश्न है कि वे अयोध्या से बाहर क्यों गए थे? वे इसलिए बाहर गए थे क्योंकि अयोध्या में कलह हुई थी। अयोध्या उस पुरी का नाम है जिसमें कोई द्वंद्व नहीं, जिसमें कोई कलह, दुविधा नहीं। लेकिन तब ऐसा हुआ, इसलिए राम 14 वर्ष के लिए वनवास में गए। वह सब ठीक हुआ, दुनियाभर की कलह को मिटाकर राम अयोध्या लौटे।

आज रामलला 500 वर्ष बाद फिर से अयोध्या वापस लौटे हैं। जिनके त्याग, तपस्या की वजह से आज का यह स्वर्णिम दिन हम देख रहे हैं, उनका स्मरण प्राण प्रतिष्ठा के संकल्प में हम लोगों ने किया। उनकी तपस्या, त्याग और परिश्रम को सहस्र बार, कोटि बार नमन है। इस युग में जो भी रामलला के आज के दिन अयोध्या वापस आने का इतिहास श्रवण करेगा, वह राष्ट्र के लिए कर्म प्रवण होगा और उसके राष्ट्र का सब दुख-दैन्य हरण होगा, ऐसा इस इतिहास का सामर्थ्य है। परंतु उसमें हमारे लिए कर्तव्य का आदेश भी है। प्रधानमंत्री जी ने तप किया, अब हमको भी तप करना है।

जो रामराज्य अब आने वाला है, वह कैसा था उसके बारे में कहा है कि-
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज काहू नहिं व्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
सब निर्दंभ धर्मरत पूनी, नर अरु नारि चतुर सब गुनी।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी, सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
राम राज्य के सामान्य नागरिकों का जो वर्णन है, हम भी इस गौरवमय भारतवर्ष की संतानें हैं। इसका जयगान करने वाले कोटि कोटि कंठ हमारे हैं। हमको इस व्यवहार को रखने का तप-आचरण करना पड़ेगा। हमको भी सारे कलह को विदाई देनी पड़ेगी। छोटे-छोटे परस्पर मत, विवाद रहते हैं उसको लेकर लड़ाई करने की आदत छोड़नी पड़ेगी। रामराज्य में यह बात बताई गई है कि सामान्य नागरिक कैसे थे। वे थे निर्दंभ। वे थे प्रामाणिकता से आचरण करने वाले, केवल बातें करने वाले नहीं। काम करते थे पर अहंकार नहीं था। धर्मरत थे।

इस पर थोड़े में कहें तो जिन पर धर्म टिका है, वे चार मूल्य श्रीमद्भागवत में बताए गए हैं- सत्य, करुणा, शुचिता और तपस। इनका आज हमारे लिए युगानुकूल आचरण क्या है? तो सत्य कहता है कि सब घट में राम हैं। ब्रह्म सत्य है, वही सर्वत्र है। हमको यह जानकर आपस में समन्वय बनाकर चलना होगा। क्योंकि हम चलते हैं सबके लिए चलते हैं, सब हमारे हैं इसलिए हम चल पाते हैं। और इसलिए आपस में समन्वय रखकर व्यवहार करना धर्म के पहले मूल्य यानी सत्य का आचरण है।

दूसरा मूल्य है करुणा, जिसका आचरण है सेवा और परोपकार। सरकार की कई योजनाएं गरीबों को राहत दे रही हैं, लेकिन यह हमारा भी कर्तव्य है क्योंकि समाज के सब बंधु हमारे अपने हैं। तो जहां हमको दुख दिखता है, पीड़ा दिखती है वहां हम दौड़कर जाएं। सेवा करें। दोनों हाथों से कमाएं। अपने लिए न्यूनतम आवश्यक रख कर बाकी सारा वापस दें सेवा और परोपकार के माध्यम से। यही करुणा का अर्थ है। हमें शुुचिता पर चलना है यानी पवित्रता रखनी चाहिए। पवित्रता के लिए संयम चाहिए।

ऐसा नहीं है कि अपनी सब इच्छाएं, अपने मत, अपनी सब बातें ठीक होंगी ही। और होंगी तो भी अन्यों के भी मत हैं, इच्छाएं हैं। इसलिए अपने आपको संयम में रखते हैं तो सारी पृथ्वी सब मानवों को जीवित रखेगी। गांधी जी कहते थे-‘अर्थ हैज एनफ फॉर एवरीवन्स नीड, बट इट कैन नॉट सेटिस्फाई एवरीवन्स ग्रीड’। तो लोभ नहीं करना, अनुशासन का पालन करना, अपने जीवन में संयम में, अनुशासन में रहना, अपने कुटुंब में अनुशासन रहना, अपने समाज में अनुशासन रहना, सामाजिक जीवन में नागरिक अनुशासन का पालन करना।

नवयुग का प्रारंभ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत

अयोध्या जी में श्रीराम जन्मभूमि तीर्थस्थली पर श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा एवं मंदिर निर्माण कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए राष्ट्र सेविका समिति श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास का हृदय से अभिनंदन करती है। 500 वर्ष से लगी हुई कालिमा को हिंदू समाज के संगठित प्रयास ने ध्वस्त किया। हिंदू समाज के स्वय-स्फूर्त और अभूतपूर्व उत्साह से यह प्रतीत हो रहा है कि अब भारत की अंत: चेतना जाग उठी है। आज का दिन राष्ट्रीय स्वाभिमान का दिन है, गौरव का दिन है, आज से नवयुग का प्रारंभ हो रहा है। भविष्य में भी हिंदू भावनाओं को कोई कभी ठेस नहीं पहुंचा सकता, यह विश्वास इस मंदिर निर्माण के कारण उत्पन्न हुआ है। स्वाभिमान और श्रद्धा का प्रतीक श्रीराम मंदिर शतकों तक धर्माचरण का प्रेरणा स्रोत रहा है और रहेगा, ऐसा विश्वास है। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र न्यास का पुनश्च अभिनंदन।
भवदीया
प्रमुख संचालिका

आज हमारे लिए युगानुकूल आचरण क्या है? तो सत्य कहता है कि सब घट में राम हैं। ब्रह्म सत्य है, वही सर्वत्र है। हमको यह जानकर आपस में समन्वय बनाकर चलना होगा। क्योंकि हम चलते हैं सबके लिए चलते हैं, सब हमारे हैं इसलिए हम चल पाते हैं। और इसलिए आपस में समन्वय रखकर व्यवहार करना धर्म के पहले मूल्य यानी सत्य का आचरण है।

भगिनी निवेदिता कहती थीं कि स्वतंत्र देश में नागरिक संवेदना रखना और नागरिक अनुशासन का पालन करना ही देशभक्ति का रूप है। इससे जीवन में पवित्रता आती है। और तपस का तो मूर्तिमान उदाहरण आज आपके सामने प्रस्तुत किया ही गया है। व्यक्तिगत तपस तो हम करेंगे। सामूहिक तपस क्या है? वह है-‘संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्’। हम साथ चलेंगे, आपस में बोलेंगे, एक ही भाषा बोलेंगे, उसमें से सहमति का संवाद निकालेंगे। वह वाणी, मन, वचन, कर्म समन्वित होगा। हम मिलकर चलेंगे, अपने देश को विश्वगुरु बनाएंगे। यह तपस हम सबको करना है।

500 वर्ष तक अनेक पीढ़ियों ने परिश्रम करके, प्राणों का बलिदान देकर, खून पसीना बहाकर आज का यह आनंद का दिन सारे राष्ट्र को उपलब्ध करा दिया, उन सबके प्रति हमारे मन में कृतज्ञता का भाव है। यहां बैठकर मेरे मन में विचार आया कि मुझे यहां क्यों बैठाया गया है? मैंने क्या किया है? उन्होंने जो किया मुझे तो उसका प्रतिनिधि बनाया गया है, तो प्रतिनिधि के नाते मैं यह अवदान स्वीकार करता हूं और यह उन्हीं को अर्पित करता हूं। परंतु हमको उनका यह व्रत आगे लेकर जाना है। विश्व में जिस धर्म स्थापना के लिए राम का अवतार हुआ था, उस धर्म स्थापना को, अनुकूल स्थिति को अपने आचरण में, अपने देश में उत्पन्न करना, यह हमारा कर्तव्य बनता है।

रामलला आए हैं हमारे मन को आह्लदित, उत्साहित करने के लिए, प्रेरणा देने के लिए। साथ ही, इस कर्तव्य की याद दिलाकर हमें कृति प्रवण करने के लिए रामलला आए हैं। उनका आदेश शिरोधार्य करके हम सब यहां से जाएं।

यहां सब लोग तो आ नहीं सके, लेकिन वे सब सुन-देख रहे हैं। इसलिए अभी इस क्षण से हम इस व्रत का पालन करेंगे तो हम सबकी इतनी क्षमता है कि मंदिर निर्माण पूरा होते-होते विश्वगुरु भारत का निर्माण भी पूरा हो जाएगा।

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