ऋषि विश्वामित्र जानते थे कि राम विष्णु के अवतार हैं। वे पढ़ने के लिए उनके आश्रम आएंगे और आतताइयों का संहार करेंगे
अयोध्या नगरी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की प्रथम यात्रा की साक्षी है। यह यात्रा राजा दशरथ के महल से प्रारंभ होकर सरयू के किनारे-किनारे बढ़ती है। इसका जिक्र हर रामायण में आया है। इन स्मृतियों के प्रतीक तौर पर यहां दशरथ महल नाम का एक मंदिर भी है। अपने आपमें कई चमत्कारिक कहानियों को समेटे इस मंदिर का अयोध्या नगर में एक विशिष्ट स्थान है। दरअसल मान्यताओं के अनुसार यह वही स्थल है जहां कभी राजा दशरथ का दरबार हुआ करता था। यह हनुमान गढ़ी से राम जन्मभूमि जाने के मार्ग में पड़ता है।
रामकथा के अनुसार यहां राजा दशरथ अपनी तीन रानियों और चार संतानों संग सुखपूर्वक रहते हुए प्रजा पालन कर रहे थे। इसी क्रम में एक दिन ऋषि विश्वामित्र का आगमन होता है। यह सूचना पाकर राजा दशरथ के मन में हर्ष और भय दोनों के भाव उभर रहे थे। जहां ऋषि का आना हर्षित कर रहा था, वहीं बिना सूचना के उनका आगमन मन में शंका के बीज बो रहा था। दरअसल ऋषि विश्वामित्र प्रबल तपस्वी थे, पर परम क्रोधी भी थे। किंतु मोहग्रस्त राजा दशरथ निर्णय लेने की अवस्था में नहीं थे। वृद्धावस्था में हुई संतानों और उसमें भी सर्वाधिक प्रिय पुत्र की मांग उनके लिए असहनीय थी। इसलिए दशरथ ऋषि से कहते हैं कि आप भूमि, गाय, धन…यहां तक कि देह और प्राण मांग लें, मैं सब दे दूंगा, किंतु हे ऋषि श्रेष्ठ, ‘राम देत नहिं बनइ गोसाईं’।
वास्तव में उनके लिए प्रिय पुत्र का यह विछोह केवल शोक नहीं अपितु मृत्यु तुल्य वेदना था। वहीं वचन पूर्ति न होने पर अपयश संग वंश नाश का भय भी था। किंतु इसके बावजूद वे अपना समय ऋषि को दूसरे निरर्थक विकल्प देने या फिर मौन होकर नतमस्तक दिखाने में खर्च कर रहे थे। इस नाते ऋषि विश्वामित्र कुपित हो चले थे। इस पूरे प्रसंग का वर्णन रामायण में कई प्रकार से आया है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार ऋषि विश्वामित्र राजा को वचन भंग हेतु धिक्कारते है। वहीं कुछेक रामायणों में इसको लेकर चेतावनी भी देते है। असमिया भाषा की माधव कंदली रामायण में है कि ऋषि विश्वामित्र कहते हैं-बताओ दशरथ, किसी ने तुम्हें मना करने की पट्टी तो नहीं पढ़ाई। यहां उन्हें वशिष्ठ मुनि और अन्य सभासदों पर संदेह है, क्योंकि सामान्य तौर पर राजा अपना निर्णय गुरु एवं मंत्रिमंडल से विमर्श उपरांत ही लेता है। किंतु यहां वैसा नहीं था। राजा स्वयं ही अपने वचन पूर्ति से मुकर रहे थे।
ऐसे में दुख और क्रोध से भरे ऋषि विश्वामित्र आत्मदाह की धमकी देते हैं। वे यहां वचन भंग दोष एवं श्राप से वंश कुल-कुटुंब नाश की बात भी कहते हंै। ऐसा एक प्रसंग कश्मीरी रामायण रामावतार चरित्र में भी वर्णित है। वहीं इंडोनेशिया की प्रसिद्ध रामायण काकावीन के अनुसार, ऋषि उन्हें राजा होने के नाते अपने उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक कर रहे हैं। किंतु अचेत राजा को इस समय केवल और केवल गुरु वशिष्ठ का आश्रय है।
तुलसीदास रचित रामचरित मानस में ऋषि दोनों भाइयों को साथ ले जाने की चर्चा करते है। वैसे इस प्रसंग से संबंधित एक रोचक कथा और है। उसके अनुसार, राजा दशरथ एक चाल चलते हैं। वे भरत एवं शत्रुघ्न को राम एवं लक्ष्मण बताकर ऋषि के साथ विदा कर देते हैं। अयोध्या से निकलते ही ऋषि दोनों कुमारों की परीक्षा लेते है,। इसके अनुसार, वे अपने गंतव्य के दो मार्ग बताते हैं, जिसमें पहले मार्ग से मात्र तीन पहर में पहुंचा जा सकता है, पर इसमें राक्षसों का भय है। दूसरा मार्ग बिल्कुल निरापद है, किंतु इसमें तीन दिन लगने है। ऋषि प्रश्न करते हैं कि ऐसे में किस मार्ग से चला जाए?
इस वेला में शोकाकुल राजा को गुरु वशिष्ठ ढाढस बंधाते हुए समझाते हैं। वे ऋषि विश्वामित्र के साथ राम को जाने देने के लिए सहमत भी करते हैं। वे ऋषि विश्वामित्र के अभीष्ट प्रयोजन के पक्ष में कई प्रभावी दलील देते हैं। वे राजा के कर्तव्य उसके द्वारा दिये गए वचन मान के संबंध में समझाते हैं। इसमें वे राम के विष्णु अवतार होने की बात भी बताते हैं। वहीं दशरथ द्वारा संतान रूप में इन्हें पाने की कथा भी सुनाते हैं। अपने पूर्ववर्ती जन्मों में उन्होंने ऐसी अभीष्ट कामना की थी।
ऐसे प्रसंग भक्तिरस से सराबोर रामायण जैसे ग्रंथों में वर्णित है। यहां मलयालम की उत्तर रामायण की एक कथा भी महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार इस अवसर पर मिथिला में योगमाया लक्ष्मी के सीता रूप में जन्म की कथा भी मुनि वशिष्ठ सुनाते हंै। वही इसे ऋषि विश्वामित्र के आगमन का एक प्रयोजन, सीता और राम का लगन भी बताते हंै। जहां तक ऋषि विश्वामित्र द्वारा राम को ही मांगे जाने की चर्चा का प्रश्न है तो इस पर भी विभिन्न रामायणों में बहुत कुछ कहा गया है। उनके पराक्रम और आज्ञापालन गुण से तो सभी अवगत हैं। किंतु ऋषि विश्वामित्र को उनके देवता होने का भी आभास है। उन्हें राम में देवत्व की अनुभूति हो चुकी है। ऐसा ही कुछ वशिष्ठ मुनि के साथ भी है। इसकी अभिव्यक्ति रामचरित मानस में कुछ यूं हुई है-
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
अर्थात राजा गाधि के पुत्र विश्वामित्र के मन में चिंता है कि ये पापी राक्षस बिना भगवान के मारे नहीं मरेंगे। तब मुनि श्रेष्ठ ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने हेतु अवतार लिया है। मैं इसी बहाने दशरथ के घर जाकर राम और लक्ष्मण को देखूंगा। राम साक्षात् विष्णु हैं तो लक्ष्मण शेषनाग के अवतार हैं। इतना ही नहीं, मैं विनती कर उन्हें अपने साथ आतताइयों के वध हेतु ले आऊंगा। ये भावना हर रामायण में वर्णित है। अंतर केवल इतना है कि जहां अधिकांश रामायणों में केवल प्रभु राम को मांगे जाने की चर्चा है।
वहीं तुलसीदास रचित रामचरित मानस में ऋषि दोनों भाइयों को साथ ले जाने की चर्चा करते हंै। वैसे इस प्रसंग से संबंधित एक रोचक कथा और है। उसके अनुसार, राजा दशरथ एक चाल चलते हैं। वे भरत एवं शत्रुघ्न को राम एवं लक्ष्मण बताकर ऋषि के साथ विदा कर देते हैं। अयोध्या से निकलते ही ऋषि दोनों कुमारों की परीक्षा लेते है,। इसके अनुसार, वे अपने गंतव्य के दो मार्ग बताते हैं, जिसमें पहले मार्ग से मात्र तीन पहर में पहुंचा जा सकता है, पर इसमें राक्षसों का भय है। दूसरा मार्ग बिल्कुल निरापद है, किंतु इसमें तीन दिन लगने है। ऋषि प्रश्न करते हैं कि ऐसे में किस मार्ग से चला जाए? (क्रमश:)
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