कार्यक्रम के एक सत्र को अयोध्या आंदोलन को अपनी आंखों से देखने वाले पत्रकार गोपाल शर्मा, सुभाष चंद्र सिंह और अशोक श्रीवास्तव ने संबोधित किया। इन तीनों ने जो कहा, उसे यहां संक्षिप्त रूप में प्रकाशित किया जा रहा है-
‘जय श्रीराम, हो गया काम’
गोपाल शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं विधायक (राजस्थान)
अयोध्या आंदोलन से मेरा बहुत गहरा जुड़ाव रहा। 1983 में मुजफ्फरनगर में एक मंच पर स्वामी अवधेशानंद जी, श्री रज्जू भैया एवं गुलजारी लाल नंदा के साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री दाऊदयाल खन्ना भी थे। खन्ना जी ने बालासाहब जी से नागपुर में मुलाकात की और यह विचार रखा कि हम श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए काम करें और बालासाहब ने इसको स्वीकार कर लिया। एक पत्रकार के नाते मुझे लालकृष्ण आडवाणी जी की रथयात्रा, कारसेवकों की वीरता और बाबरी ढांचे के ध्वंस को भी देखने का अवसर मिला।
अक्तूबर, 1990 की कारसेवा में रामचंद्र परमहंस रामदास जी की भूमिका महत्वपूर्ण रही। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव से कहा था कि इधर-उधर की बात मत करो, बताओ, कारसेवा में साथ हो या नहीं। जिस दिन कारसेवा शुरू हुई तो अशोक सिंहल जी के साथ लगभग 20,000 कारसेवक निकल पड़े। उसी समय अशोक जी के सिर एक पत्थर लगा और खून बहने लगा। माथे पर पट्टी बंधी होने के बावजूद वे बोले जा रहे थे कि सब साफ हो जाएगा… एक दिन यहां पर कुछ भी नहीं रहेगा। फिर संतों ने निर्णय लिया कि 2 नवंबर को फिर से कारसेवा होगी। उस दिन दोनों कोठारी भाई एक घर के अंदर थे। दोनों को बाहर खींचकर गोली मारी गई थी।
6 दिसंबर, 1992 को जब बाबरी ढांचा ढहा तब भी मैं उसका साक्षी था। करीब डेढ़ लाख कारसेवक रामकथा कुंज के सामने अपने प्रिय नेताओं के भाषण सुन रहे थे, लेकिन उनकी आवाज राम जन्मभूमि के परिसर में नहीं जा रही थी और जो कुछ परिसर में हो रहा था वह उनको दिखायी नहीं दे रहा था। पेजावर मठ के स्वामी विश्वेशतीर्थ जी ठीक पौने बारह बजे हाथ जोड़ते हुए राम जन्मभूमि परिसर में प्रवेश करते हैं। उनके पीछे-पीछे अनेक कारसेवक अंदर घुस गए और पीछे से सारी पुलिस भी बाहर चली गई। इसके बाद वहां जय श्रीराम के नारे लगने शुरू हो गए। 1.50 मिनट पर पहला ढांचा, 3 बजे दूसरा ढांचा और सवा पांच बजे तीसरा ढांचा पूरी तरह से ढह गया। इसके साथ ही वहां नारा गूंजने लगा- जय श्रीराम, हो गया काम।
ढांचा ढह रहा था, मैं फोटो ले रहा था
अशोक श्रीवास्तव, वरिष्ठ सलाहकार सम्पादक (दूरदर्शन)
अयोध्या में 1990 में जब कारसेवा हुई थी तब मैं कॉलेज में अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहा था। कई मित्रों ने उस कारसेवा के बारे में बताया था। 1992 में मैं पाञ्चजन्य में पत्रकार के रूप में नियुक्त हो चुका था। एक दिन पाञ्चजन्य के तत्कालीन संपादक तरुण विजय जी ने कहा कि तुम अयोध्या जाओ और 6 दिसंबर, 1992 की कारसेवा पर रिपोर्ट बनाओ। मैं एक कैमरे के साथ अयोध्या पहुंच गया। उस दिन मंच पर राम जन्मभूमि आंदोलन के अनेक दिग्गज नेता उपस्थित थे। मैं भी मंच पर चढ़ गया और तस्वीर लेने लगा। दिन के करीब 12 बजे अचानक वहां कारसेवकों की संख्या बढ़ने लगी और कुछ लोग ढांचे पर चढ़ गए। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी माइक से बोलने लगे कि राम की सौंगध आप लोग ढांचे से नीचे उतर आएं। इसके बाद साध्वी ऋतंभरा, आचार्य धर्मेंद्र और उमा भारती ने माइक संभाला और उन्होंने कारसेवकों में जोश भरना शुरू कर दिया।
मैं भी मंच से उतर कर ढांचे की तरफ बढ़ा। मुझे कई लोगों ने पूछा कि कहां जा रहे हो? मैंने कहा, मैं पत्रकार हूं, सामने से फोटो खींचने जा रहा हूं। अभी फोटो खींच ही रहा था कि पीछे से मुझे किसी ने कंधे से पकड़ा और बोला क्या कर रहे हो? मैंने कहा, फोटो खींच रहा हूं। फिर उसने कहा, तुम्हें यहां पर कोई पत्रकार दिख रहा है? फिर मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है। कुछ कारसेवकों ने बताया कि अभी कुछ कैमरे वालों की पिटाई हुई है। इसलिए चुपचाप कैमरा रखो और यहां से निकल लो। फिर मैं अपना कैमरा बैग में डालकर कारसेवकों के बीच में चुपचाप बैठ गया। बैठे-बैठे भी मैं तस्वीरें लेने लगा। फिर मैं रामकथा कुंज पहुंचा तो वहां पर मनोज रघुवंशी मिले और मुझे गले लगा लिया। बोले कि मजा आ गया। मैंने कहा क्या हुआ, उन्होंने कहा, मेरा कैमरा तोड़ दिया और फिर बोले, ढांचा टूट गया, यह सबसे बड़ी बात है, कैमरा वगैरह तो बाद की बात है।
… और इस तरह अशोक जी अयोध्या पहुंचे
सुभाष चंद्र सिंह, राज्य सूचना आयुक्त (उत्तर प्रदेश)
राम जन्मभूमि आंदोलन के संदर्भ में 30 अक्तूबर, 1990 की विशेष रूप से चर्चा होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने रामभक्तों को चेतावनी दी थी कि रामभक्त क्या कोई ‘परिंदा भी अयोध्या में पर नहीं मार सकता।’ विशेष रूप से कोशिश थी कि आंदोलन के अगुआ अशोक सिंहल को अयोध्या में प्रवेश न करने दिया जाए। इधर श्री सिंहल ने अयोध्या पहुंचने की ठान रखी थी। योजना के तहत अशोक सिंहल, श्रीश चंद्र दीक्षित, भानु प्रताप शुक्ल और संवाददाता के तौर पर मैं खुद उस टीम में शामिल था, जो दिल्ली से प्रयागराज ट्रेन से इलाहाबाद गई और वहां से अयोध्या पहुंची। तारीख थी 28 अक्तूबर, 1990।
अशोक सिंहल और श्रीश चंद्र दीक्षित दो पत्रिकाओं के पत्रकार के रूप में गए थे। ट्रेन में हम लोग सेकंड क्लास के डिब्बे में बैठे थे। थोड़ी देर बाद उसकी चेकिंग शुरू हो गई। शायद भानु प्रताप शुक्ल को इसका पूवार्भास हो गया था, लिहाजा उन्होंने पहले ही टिकट निरीक्षक (टीटीई) को ‘मैनेज’ कर लिया। सिंहल और दीक्षित- दोनों के लिए अलग कूपे की व्यवस्था हो गई। खास ट्रेनों में पहले हर कोच में एक अलग केबिन (कूपा) होते थे। दोनों उसी में जाकर सो गए। इधर जब रेलवे के कर्मचारियों के साथ दिल्ली पुलिस पहुंची और हम सभी की जांच करने के बाद कूपे की ओर बढ़ी तो भानु जी ने कहा कि दोनों की तबियत खराब है। पुलिस ने उन पर विश्वास किया और बिना जांच किए चली गई। दोनों गिरफ्तार होने से बच गए।
अशोक सिंहल की दिलेरी का दूसरा वाकया! प्रयागराज एक्सप्रेस जब 29 अक्तूबर तड़के इलाहाबाद जंक्शन से थोड़ा पहले धीमी हुई तो वे नीचे कूद गए। तहमद (लुंगी) और कुर्ते में रिक्शे से अपने जार्ज टाउन आवास पर पहुंच गए। बाद में हम तीनों भी टैक्सी से उनके घर पहुंच गए।
उनके घर से हम चारों एंबेसडर कार से जौनपुर के मुंगरा बादशाहपुर, सुजानगंज, बदलापुर होते हुए सिंगरामऊ पहुंचे। वहां अशोक सिंहल और श्रीश चंद्र दीक्षित अलग हो गए। अयोध्या के विभाग प्रचारक राम दयाल के साथ मोटर साइकिल से अशोक जी अयोध्या के लिए निकले। दीक्षित भी अलग व्यवस्था से अयोध्या गए। मैं और भानु जी उसी कार से अयोध्या पहुंच गए। 30 अक्तूबर को अयोध्या में कर्फ्यू जैसा माहौल था। सुबह आठ बजे होंगे, अचानक अशोक सिंहल दिगंबर अखाड़े के सामने दिखे। देखते ही देखते वहां हजारों कारसेवक आ पहुंचे। स्वामी वामदेव एक ठेली पर बैठे थे। उनकी तबियत खराब थी। इस बीच कहीं से पत्थर चला और सिंहल जी के सिर पर चोट लगी। खून गिरने लगा। फिर तो कारसेवक बेकाबू हो गए। पुलिस की तमाम बंदिशों के बावजूद कारसेवक विवादित ढांचे तक पहुंच गए और कारसेवा की।
मैं मानता हूं कि कारसेवक हनुमान जी का रूप थे, लेकिन उस समय मीडिया में कारसेवकों के लिए ‘उपद्रवी’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। 30 अक्तूबर और 2 नवंबर,1990 को बीबीसी ने एक फिल्म चलायी थी, जिसमें दिखाया गया था कि कारसेवकों ने एक जर्मन पत्रकार के साथ मारपीट की और उसका बटुआ भी निकाल लिया। लेकिन अगले दिन उस पत्रकार ने खुद ही कहा कि भीड़ में मेरा बटुआ गिर गया था और कारसेवकों ने मेरा बटुआ लाकर दिया था। ढांचा गिरने के बाद पाञ्चजन्य का एक विशेषांक प्रकाशित हुआ। उस वक्त सेकुलर मीडिया ने माहौल बना दिया था कि अब देश का बचना मुश्किल है। ढांचा ढहने के पीछे अनेक कारण हैं। जुलाई, 1992 में सांसद सुलेमान सेठ,जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सदस्य थे, ने संसद में कहा था कि बाबरी ढांचे के अंदर जो मूर्ति है, उसे हटाया जा सकता है। सरकार से बातचीत हो गई है। फिर कांग्रेस नेता कमलनाथ ने एक साक्षात्कार में कहा कि हमारी सरकार से बातचीत हो रही है और यदि माहौल नहीं बिगड़ा तो वहां से रामलला की मूर्ति हटायी जा सकती है। उसके बाद अशोक सिंहल ने कहा कि हिंदुओं को चुनौती मत दीजिए। हिंदुओं की सहिष्णुता की परीक्षा मत लीजिए, वरना अगर हिंदू जाग गया तो …
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