अयोध्या में 22 जनवरी को राममंदिर के भव्य गर्भगृह में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम संपन्न हुआ। इस अवसर पर भारत ही नहीं अपितु विश्व भर के लोगों ने उत्सव मनाया। लेकिन यह मंदिर बनना इतना आसान नहीं था। इस मंदिर को बनाने में 500 साल का संघर्ष लगा और कई राम भक्तों की जान चली गई। आज इस रिपोर्ट के माध्यम से हम आपको राम मंदिर आन्दोलन के उस कालखंड में ले चलेंगे जब मुलायम सरकार ने निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया जिसके बाद रामभक्त कारसेवकों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं गईं। यह रिपोर्ट अयोध्या जी में तत्कालीन सरकार द्वारा कारसेवकों पर गोलीबारी की घटना के 15 प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी रामभक्तों के अनुभव व बेहद भावुक कर देने वाली यादों पर आधारित है।
ओम भारती : 75 वर्षीय महिला और 1990 में तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार द्वारा अयोध्या में कारसेवकों पर गोलीबारी की घटना की प्रत्यक्षदर्शी ओम भारती के अनुसार “उत्तर प्रदेश में एक सरकार थी। सीएम ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया था। मेरा घर पूरी तरह से छावनी में तब्दील हो गया था। मैंने लगभग 125 कारसेवकों को अपने घर में आश्रय दिया और उनके लिए सारी व्यवस्थाएँ कीं, भाई, माँ और बहनें मेरे घर में आश्रय ले रहे थे। लेकिन जब भी वे बाहर आए, उन्हें एक-एक करके गोली मार दी गई, ”
उन्होंने ये भी कहा, ”कोठारी बंधु भी मेरे यहां रुके थे और जैसे ही वे मेरे घर से बाहर निकले, उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई।”
घटना को याद करते हुए ओम भारती ने कहा कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अपने मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया था।
शिव दयाल मिश्रा : सन 1990 नरसंहार के चश्मदीद और भुक्तभोगी 77 वर्षीय कारसेवक शिव दयाल मिश्रा मूल रूप से गोंडा जिले के थानाक्षेत्र वजीरगंज के निवासी हैं। उनके गाँव का नाम पूरे बसंती है।
शिवदयाल ने 30 अक्टूबर 1990 का दिन याद किया। उनके घर से अयोध्या की एरियल दूरी लगभग 25 किलोमीटर है। उन्होंने बताया कि मुख्य मार्गों पर तब पेड़ों को काट कर गिरा दिया गया था। उन्होंने बताया कि तब कई खेतों में घुटने तक पानी भरा था। कई जगहों पर कारसेवकों के पैरों में काटें चुभे और जोंक तक चिपक गई।
जिस जगह शिवदयाल अपने जत्थे के साथ थे, वहाँ से रामजन्मभूमि लगभग 3 किलोमीटर दूर थी। अयोध्या में इंट्री का एकमात्र रास्ता पुल था, जिस पर भारी फोर्स तैनात थी। शिवदयाल के मुताबिक पीछे से आई टुकड़ी ने बिना किसी चेतावनी के गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। गोलियाँ कारसेवकों के सिर, पैरों और छातियों में लगी। लगभग 5 मिनट चली अंधाधुंध फायरिंग में कई कारसेवकों की मौत मौके पर ही हो गई।
दावा किया जा रहा है कि डॉक्टरों की गैर मौजूदगी में कई ऐसे कारसेवकों को भी लाश मान कर वाहनों में भर लिया गया, जो तब जिन्दा थे। शिवदयाल का मानना है कि मारे गए लोगों को बाद में किसी ने नहीं देखा। आशंका है कि उनके शवों को भी नदी आदि में फेंक कर ठिकाने लगा दिया गया।
गोविन्द नारायण चौहान : जयपुर के फागी से वर्ष 1990 में कारसेवा में गोवन्दनारायण चौहान पुत्र रामेश्वर धाभाई अयोध्या पहुंचे थे। उन्होंने कारसेवा के दौरान हुई गोलीबारी के दौरान गम्भीर घायल होने का संस्मरण बताया कि उत्तर प्रदेश में कारसेवकों को अयोध्या से दूर रखने के लिए प्रशासन अधिक सख्त नजर आया, 2 नवम्बर 1990 को उमा भारती ने ऐलान किया कि कारसेवक बिना हथियार के रामलला जन्म स्थली पर पहुंचे। कड़ी सुरक्षा के कारण हमें अयोध्या की सड़कों पर रोक दिया गया। हजारों लोग सड़कों पर बैठ गए। इस दौरान कारसेवकों पर लाठियां बरसाई गई।
कारसेवकों ने अयोध्या के घरों में शरण ली लेकिन जब कारसेवक घरों से ज्यों ही बाहर निकले तो मुलायम के जवानों ने गोलियों की बौछार कर दी। पांच कारसेवकों में से महेन्द्र अरोड़ा जोधपुर वालों को हमारे सामने गोली मार दी गई। इसके बाद गोविंदनारायण बेसुध हो गए। उनके साथ अन्य घायल कारसेवकों को फैजाबाद अस्पताल में भर्ती कराया। होश आया तो सिर पर गहरी चोट लगने के साथ 14 टांके लगे थे और दाएं पैर के घुटने पर चोट थी।
रामावतार गौतम : रामावतार गौतम ने बताया कि उनके भाई स्व. लक्ष्मीनारायण गौतम ने उस दिन रामलला के सबसे पहले दर्शन किए थे। अयोध्या रामजन्म भूमि के आंदोलन में 22 अक्टूबर 1990 को दादाबाड़ी से कोटा से 25 सदस्य कारसेवकों का दल अवध एक्सप्रेस ट्रेन से रवाना हुआ था।
कोटा से लक्ष्मीनारायण, रामावतार सिंघल, सेवानंद, बलराम और श्याम साथ रवाना हुए। लाठीचार्ज में लक्ष्मीनारायण के सिर पर चोट लगी थी। रामावतार सिंघल भी घायल हुए थे। इनके सिर से खून निकलता देख साथियों ने चिकित्सा कैंप में भर्ती कराया।
बातचीत में विहिप के तत्कालीन प्रचार प्रमुख रिछपाल पारीक ने बताया कि वर्ष 1992 में हाड़ौती संभाग की जिम्मेदारी थी। नवंबर में उनके साथ वर्तमान शिक्षा मंत्री मदन दिलावर, किरोड़ीलाल मीणा, रघुवीरसिंह कौशल सहित करीब 250 लोग स्टेशन राममंदिर पर एकत्र हुए। हम अयोध्या में धर्मशाला में घास बिछाकर सोए थे। इस दौरान पता चला कि 45 कारसेवक जेल में बंद हैं। धरना दिया तो डीआईजी वहां पहुंचे। उन्होंने कारसेवकों को तत्काल छोड़ने का आदेश दिया।
रामकरन सिंह : रामकरन सिंह मूलतः बस्ती जिले के गाँव सांडपुर के निवासी हैं। 22 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों के होने की सूचना पर स्थानीय दुबौलिया थाना पुलिस ने उनके गाँव में दबिश दी थी। इसी दबिश में पुलिस ने गोलियाँ बरसाईं थीं। इसमें राम चन्दर यादव, सत्यवान सिंह उसी समय और बाद में जयराज यादव बलिदान हो गए थे। तब पुलिस ने FIR दर्ज करके बचे ग्रामीणों को बेरहमी से टॉर्चर किया था।
रामकरन सिंह ने हमें आगे बताया कि 21 अक्टूबर 1990 को तत्कालीन थाना प्रभारी दुबौलिया उनके गाँव में आए और एक स्कूल के प्रबंधक राघवेंद्र सिंह को तब घसीट कर ले जाने लगे, जब वो सिर्फ लुंगी और बनियान में अपने घर बैठे थे।रामकरन का दावा है कि ग्रामीणों का विरोध देख कर तब थाना प्रभारी ने राघवेंद्र सिंह को छोड़ दिया और सीधे बस्ती जिले के पुलिस अधीक्षक के पास गए। वहाँ SP द्वारा उन्हें गाँव में मौजूद रामभक्त और कारसेवकों को पनाह देने वाले ग्रामीणों को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने के निर्देश दिए गए।
महिआओं को भी टॉर्चर करने के लिए पुरुष पुलिसकर्मी लगाए गए थे। इस काम में PAC, पैरामिलिट्री और 4 थानों की फ़ोर्स जुटी थी। रामकरन सिंह ने बताया कि भोर में ही गाँव सांडपुर से औरतों और बच्चों की चीख-पुकार उठने लगी।
समाज शेखर : 45 वर्षीय प्रतापगढ़ निवासी सामाजिक कार्यकर्ता समाज शेखर का दावा है कि वह 12 साल की उम्र में सबसे कम उम्र के कारसेवकों में से एक थे।
समाज शेखर ने बताया “मुझे अभी भी वह दिन याद है जब मैंने न तो अपने माता-पिता और न ही छात्रावास के अधिकारियों को सूचित किया और अयोध्या में तीन दिनों (29 से 31 दिसंबर तक) के लिए कारसेवा की… यह 29 दिसंबर, 1990 था, जब मैं, गरीबों का एकमात्र व्यक्ति था तोरई गांव, हॉस्टल के लिए घर से निकला। उस समय, मेरी माँ, जिन्होंने मुझे एक छोटा सा दूध का कंटेनर दिया था, ने मुझसे इसे सुखपाल नगर में मेरे मामा को सौंपने के लिए कहा था। लेकिन, जैसे ही बस जेठवारा पहुंची, मैंने देखा कि अधिक से अधिक कारसेवक उसमें चढ़ रहे हैं। जबकि कुछ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं ने मुझसे अपने साथ चलने के लिए कहा, मैंने रास्ते में सुखपाल नगर में एक परिचित व्यक्ति को दूध का कंटेनर भी सौंप दिया और आईडी कार्ड जैसी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद फिर से ट्रेन से अयोध्या के लिए अपनी यात्रा शुरू कर दी।
शेखर ने आगे याद करते हुए कहा, “मेरे परिवार के सदस्यों और स्थानीय लोगों को हमारी जानकारी तभी मिल सकी जब पुलिस ने हमें मूल शहरों में वापस भेज दिया।।। 12 साल की उम्र में आरएसएस से जुड़ा, मैंने बचपन से ही संगठन के कई कार्यक्रमों में भाग लिया और था भी।” 2001 में पुरातन चंद्र परिषद (पुराने छात्र संघ) का सचिव नियुक्त किया गया।”
अचल सिंह मीना : दिसंबर 1992 के दिन, जब अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की आकांक्षा हजारों राम भक्तों को मंदिर शहर में ले आई, उनमें अचल सिंह मीना का चेहरा भी शामिल था। उस समय वह 30 वर्ष के थे।
1992 में राम मंदिर आंदोलन के दौरान अचल सिंह मीना विवादित ढांचे को गिराने के लिए चढ़े, लेकिन ढांचे का एक हिस्सा गिर गया, मलबे का एक हिस्सा अचल सिंह की पीठ पर गिरा और फिर उनके शरीर का निचला हिस्सा निष्क्रिय हो गया।
अचल को पहले फैजाबाद में भर्ती कराया गया, फिर उन्हें लखनऊ के गांधी मेडिकल कॉलेज ले जाया गया, जहां उन्हें होश आया, लेकिन तब से वह चल-फिर नहीं सकते।
गोकुल सिंह परमार : गोकुल सिंह परमार 6 दिसंबर 1992 को याद करते हुए बताते हैं कि वह अपनी मौत की खबर के 15 दिन बाद अपने घर जिंदा लोटकर आए थे । उन्होंने ने बताया कि 1990 जब कारसेवकों को अयोध्या बुलाया जा रहा था तो वह भी ट्रक में सवार हो गए और भिंड की सीमा से लगे चंबल नदी के पुल पर पहुंच गए। उस वक्त सैकड़ों की संख्या में कारसेवक चंबल पुल पर मौजूद थे। कारसेवकों को उत्तर प्रदेश में प्रवेश करने से रोकने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस वाले भी चंबल पुल पर तैनात थे। जब कारसेवक आगे की ओर बढ़े तो पुलिस ने लाठी चार्ज शुरू कर दिया, आंसू गैस के गोले छोड़े और गोलियां भी चलने लगीं। इस दौरान एक कारसेवक को गोली भी लगी थी। जब गोकुल सिंह चंबल में पानी पी रहे थे तो उनके सामने ही आंसू गैस का एक गोला आकार गिरा, इसके बाद उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया और गाड़ी में बिठाकर कानपुर की नौबस्ता जेल ले गए जहां उन्हे 13 दिन तक बंदी बनाकर रखा गया, इसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
गोकुल सिंह बताते हैं कि साल 1992 में एक बार फिर से सभी कार्यकर्ताओं को अयोध्या पहुंचने का फरमान आया। इसके बाद वे अपने एक अन्य साथी पुरुषोत्तमदास के साथ अयोध्या पहुंच गए थे।
रामचंद्र : 6 दिसंबर 1992 को देशभर के कार सेवकों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को कुछ ही घंटे में ढहा दिया था, जिसके बाद सैकड़ों कार सेवकों को हिरासत में लिया गया और मुकदमें दर्ज किए गए। इन कार सेवकों में हरियाणा के सोनीपत के रहने वाले रामचंद्र भी शामिल थे।
रामचंद्र कहते हैं कि ट्रेन में सवार होकर अयोध्या पहुंचे और वहां पर एक धर्मशाला में रुके और अगले दिन बाबरी मस्जिद पर पहुंचे। वहां पर पुलिस फोर्स का पहरा लगाया गया था। उन्होंने बताया कि उस दौरानव वहां पर लाखों की तादाद में पब्लिक मौजूद थीं।
रामचंद्र बताते हैं कि इस पूरे मामले में जब सीबीआई जांच हुई तो उन्होंने मेरे घर पर छापा भी मारा, और बाद में उन्हे भी गिरफ्तार किया गया था। मुझे लखनऊ लेकर जाया गया और वहां पर मुझसे पूछताछ की गई। रामचंद्र इस घटना को याद करते-करते रो पड़े और उन्होंने कहा कि इस तरह के काम करने के लिए कुर्बानी चाहिए और हमारे कार सेवकों ने कुर्बानी दी है।
कानराज मोहनोत : राम भक्त देशभर से साल 1992 के दिसंबर के महीने में अयोध्या पहुंच रहे थे। इसमें शामिल होने के लिए जोधपुर से जो कारसेवकों का जत्था निकला था, उसमें जोधपुर के रहने वाले कानराज मोहनोत भी शामिल थे ।
कानराज मोहनोत ने उस आंदोलन के बारे में बताया कि पूरे जोश के साथ कारसेवक अयोध्या की ओर कुच कर रहे थे। पुलिस कई लोगों से पूछताछ कर रही थी। कहीं कारसेवकों को पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया था। वह सभी लोग तीन चार लोगों के पैदल ग्रुप बनाए और छुपते छुपाते हनुमानगढी पहुंचे थे।
कारसेवक कानराज मोहनोत ने बताया कि आंदोलन के वक्त उनका मौत से भी सामना हुआ था। पुलिस द्वारा चलाई गई गोली उनके कान के पास से गोली निकली थी। प्रभु राम की कृपा से उनकी जान बच गई। लेकिन वो गोली उनके पीछे चल रहे सेठाराम परिहार को लग गई थी। डेढ़ घंटे के संघर्ष के बाद सेठाराम ने दम तोड़ दिया। अयोध्या में सेठा राम परिहार और प्रो. महेन्द्रनाथ अरोड़ा ने बलिदान दिया। अयोध्या से वैन में हम उन दोनों के शव जोधपुर लाए थे ।
कानराज मोहनोत कहते हैं कि हमारे लिए ये एक पर गर्व की बात है कि अब तीन दशक के बाद हमारे आराध्य भगवान रामचन्द्र के मंदिर का सपना साकार हुआ है।
केशवनाथ वैश्य : राम मंदिर निर्माण की इस अभूतपूर्व घड़ी को लाने में उन कारसेवकों के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता जो 2 नवंबर 1990 को पुलिस की गोली खाने से भी नहीं डरे थे। कई कारसेवकों की मौत के बाद भी उनके कदम पीछे नहीं हटे थे। इन्हीं कारसेवकों में बदायूं के बजरंग दल के पूर्व प्रांत संयोजक केशवनाथ वैश्य बताते हैं कि पुलिस ने गोली मारने के लिए दिगंबर अखाड़े की दीवार पर सीढ़ी लगा ली थी, लेकिन भनक लगते ही फाटक खोलकर छाती पीटते और जय श्री राम का उद्घोष करते हुए ‘मार दो गोली’ -‘मार दो गोली’ चिल्लाते हुए बाहर निकल आए थे। उसी समय पत्रकारों की एक टोली वहां आ गई और पुलिस को बैकफुट पर आना पड़ा गया था। जान जाने में बस एक मिनट ही बचा था, अगर पत्रकार वहां उस समय नहीं आते तो पुलिस उन समेत तमाम लोगों को गोली मार चुकी होती।
केशवनाथ ने बताया कि जब 1990 में विश्व हिंदू परिषद ने रामज्योति यात्रा का आह्वान किया तो 23 सितंबर 1990 को कछला से यात्रा लेकर निकल पड़े थे। साथ में विहिप के तत्कालीन प्रांत संगठन मंत्री राजेंद्र सिंह पंकज भी थे। दोनों को बुटला के पास से गिरफ्तार किया गया था और उन्हें फतेहगढ़ व राजेंद्र सिंह को बांदा जेल में रखा गया।
केशवनाथ अयोध्या में 15 से 29 अक्तूबर 1990 तक रुककर कारसेवकों को इकट्ठा करने, उनके रुकने और भोजन आदि की व्यवस्था में लगे रहे थे । उन्होंने बताया कि विहिप के आह्वान पर 30 अक्तूबर 1990 को अयोध्या में करीब दस हजार कारसेवकों के साथ अंदर घुसे तो पुलिस ने हर जगह बैरियर लगा रखे थे। कारसेवा के दौरान दो कार्यकर्ता गंभीर घायल हो गए थे तो पुलिस द्वारा उनके पैरों में भी कई लाठियां मारी गई थीं।
प्रमोद कुमार : कारसेवक प्रमोद कुमार मुख्य रूप से बिहार के पटना जिला अंतर्गत मोकामा के मोल्दीयार टोला निवासी रामाश्रय प्रसाद सिंह के पुत्र हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे हैं । प्रमोद बताते हैं कि कैसे उनकी आंखों के सामने उनके साथी और कई लोगों को मौत की नींद सुला दिया गया था। “उनके घर वालों ने उनसे कहा था कि टीका लगाकर कहा अब विध्वंस करके आना नहीं तो गोली खा लेना पर मत आना। ”
“सन 1990 में कारसेवकों को अयोध्या बुलाया गया। जिसके बाद प्रमोद बिहार के अपने 101 साथियों के साथ बिहार से अयोध्या के लिए रवाना थे । जब 30 अक्टूबर 1990 को राज्य सरकार ने जब लाखों की संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों से आए राम भक्तों पर गोली चलवायी, उस समय मस्जिद की गुम्बद पर चढ़कर भगवा ध्वज फहराया गया था, जिसकी अगुवाई प्रमोद कुमार कर रहे थे। गोलियों की बौछार के कारण कई लोगों की मौत हो गई थी।
प्रमोद बताते है कि बाबरी ढांचा विध्वंस के दौरान 5 सेवकों की दबकर मौत हो गई थी, जिनमें एक लखीसराय ज़िले के गंगासराय गांव निवासी दिनेश चंद्र सिंह की दबकर मौत हो गई थी।
कार सेवा के दौरान प्रमोद कुमार को भी एक गोली लगी थी, जिसके बाद वह 6 महीने तक इलाजरत रहे थे। जब वे बिहार अपने साथियों के साथ लौटे, उसके 2 से 4 दिन बाद बिहार सरकार प्रमोद कुमार सहित उनके 18 साथी को हिरासत में ले लिया था । सभी को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था और 24 घंटे हिरासत में रखने के बाद सभी को छोड़ दिया गया था। प्रमोद कुमार पर 16 साल तक भड़काऊ भाषण को लेकर मुक़दमा चलाया गया था।
सोहन लाल : सोहन लाल बताते है कि उत्तर प्रदेश में 1990 हिंदू साधु-संतों द्वारा अयोध्या कूच किया जा रहा था । श्रद्धालुओं की भारी भीड़ अयोध्या पहुंचने लगी थी। प्रशासन ने अयोध्या में कर्फ्यू लगा रखा था, इसके चलते श्रद्धालुओं के प्रवेश नहीं दिया जा रहा था।
सोहन लाल कहते हैं कि पुलिस ने बाबरी मस्जिद के 1।5 किलोमीटर के दायरे में बैरिकेडिंग कर रखी थी। कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई थी। पहली बार 30 अक्टबूर, 1990 को कारसेवकों पर चली गोलियों में 5 लोगों की मौत हुई थीं। इस गोलीकांड के दो दिनों बाद ही 2 नवंबर 1990 को हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी के करीब पहुंच गए, जो बाबरी मस्जिक के बिल्कुल करीब था।
अरुण माथुर : अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पूरे देश में उत्साह है। 1990 और 1992 की कार सेवा में जिन लोगों ने भाग लिया था, उनके लिए राम मंदिर का प्राण-प्रतिष्ठा समारोह सपना सच होने जैसा है। 1990 और 1992 में हुई कारसेवा के दौरान देश भर से हजारों लोग अयोध्या पहुंचे थे।
इन्ही कार सेवकों में राजस्थान के जोधपुर जिले में रहने वाले कारसेवक अरुण माथुर शामिल थे जिन्होंने राम मंदिर के आंदोलन में हिस्सा लिया था। अरुण माथुर ने बताया कि सन 1990 के दौरान वह भी जोधपुर से अयोध्या कार सेवा करने के लिए अपने जोधपुर इकाई के नेता शारदा शरण सिंह के साथ ट्रेन से अयोध्या पहुंचे थे।
अयोध्या में जब राम भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ा तो उस समय उत्तर प्रदेश सरकार ने विवादित ढांचे के आसपास सुरक्षा बढ़ा दी थी , कंटीले तारों की बाड़ लगा दी। ताकि कार सेवक राम मंदिर में नहीं जा पाए।
अरुण माथुर ने बताया कि 2 नवंबर 1990 को जब कार सेवक हनुमानगढ़ी होते हुए विवादित स्थल की ओर बढ़ने लगे तब यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने पुलिस को आदेश दिया और कार सेवकों को और राम भक्तों पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाई थी । उस समय बड़ी संख्या में राम भक्तों की मौत हुई और कई कार सेवक घायल भी हुए थे । पूरी अयोध्या की सड़कें खून से लाल हो गई थी और सरयू नदी का पानी भी लाल हो चुका था। और वही सरयू तट पर लाशों के ढेर लग गये थे। सरकारी आंकड़ों में 450 से 500 लोगों की मौत होने का दावा किया गया। जबकि वास्तविकता इससे परे थी।
अरुण माथुर ने बताते हैं कि सन 1990 की इस कार सेवा में जोधपुर के प्रोफेसर महेन्द्र नाथ अरोड़ा और सेठाराम परिहार बलिदान हो गए। जिस व्यक्त राम भक्तों पर अंधाधुंध फायरिंग हो रही थी और बचने के लिए कई कार सेवक एक मकान में घुसने की कोशिश कर रहे थे लेकिन महेंद्र नाथ अरोड़ा घर में घुसने से पहले बाहर गिर पड़े और अचानक ही पुलिस ने उन्हें गोली मार दी। उन्हें जब गोली लगी तो उनको सम्भालने के लिए राम भक्त सेठाराम परिहार बाहर निकले और उन्होंने जब महेंद्र नाथ अरोड़ा को संभालना शुरू किया ही था कि पुलिस ने उन्हें नीचे गिरा कर उनके मुंह में भी गोली मार दी। जिससे सेठाराम परिहार भी वहीं पर बलिदान हो गए।
महेंद्र त्रिपाठी : 2 नवंबर, 1990 की सुबह, फोटो जर्नलिस्ट महेंद्र त्रिपाठी को अयोध्या में उथल-पुथल वाली घटनाओं के दौरान एक नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ा। राम जन्मभूमि को पुनः प्राप्त करने के लिए विश्व हिंदू परिषद के आह्वान का जवाब देते हुए शहर ‘कारसेवकों’ से भर गया, जिसके कारण पुलिस के साथ झड़पें हुईं।
जोखिमों के बावजूद, त्रिपाठी बाहर निकले और कारसेवकों पर पुलिस गोलीबारी सहित दुखद घटनाओं को देखा। 2 नवंबर, कार्तिक पूर्णिमा, जो भगवान राम के भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है, तनाव बढ़ गया। पत्रकार और धर्मनिष्ठ ‘रामभक्त’ त्रिपाठी ने साधुओं की गोलीबारी के बाद के दृश्य सहित कष्टदायक दृश्यों को सावधानी से कैद किया।
अयोध्या अशांति के बीच, महेंद्र त्रिपाठी को एक भयानक दृश्य का सामना करना पड़ा – एक हेलीकॉप्टर दिखाई दिया, जिससे अटकलें लगने लगीं कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने गोलीबारी का निर्देश दिया है।
इस दृश्य को कैद करने के लिए बेताब, त्रिपाठी ने खुद को बाबरी मस्जिद के पास खड़ा कर लिया। गोलियां चलने लगीं, जिससे उनके सामने दो साधुओं की मौत हो गई। वह डर के मारे स्तब्ध होकर उनके पास लेट गया। सीआरपीएफ के जवान पहुंचे और उसे एक वाहन में डालने की तैयारी कर रहे थे। तेजी से, त्रिपाठी चिल्लाया, “मैं जीवित हूँ!” गुस्से में पूछताछ का सामना करते हुए, उन्होंने अपनी पहचान एक फोटो जर्नलिस्ट के रूप में बताई, लेकिन उन्हें सख्ती से वहां से चले जाने को कहा गया, जिससे हेलीकॉप्टर की तस्वीर खींचने का उनका इरादा अधूरा रह गया।
वह 90 के दशक में बाबरी विध्वंस सहित विभिन्न मामलों के प्रत्यक्षदर्शी के रूप में अदालत में भी पेश हुए। उन्होंने कबूल किया कि उन्होंने खुद को रामभक्तों के साथ जोड़ लिया है।
टिप्पणियाँ