राष्ट्र के धर्मप्राण सनातनधर्मी समाज की अपने धर्म और परम्पराओं के प्रति आस्था देखनी हो तो भारत के भारत के पुरातन तीर्थों पर आयोजित होने वाले विशिष्ट स्नान पर्वों का नजारा देखिए। ऐसे दृश्य भारत के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं दिखायी देते। यूं तो हमारी सनातन हिंदू संस्कृति में गंगास्नान सदा ही शुभ फलदायी माना जाता है किन्तु पर विशिष्ट स्नान पर्वों इसकी महत्ता कई गुना बढ़ जाती है। भारतीय धर्मज्ञान व परम्परा के प्रकांड विद्वान जूना पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज कहते हैं कि हिन्दू धर्म में विशिष्ट स्नान पर्वों पर अयोध्या की सरयू से लेकर तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी संगम, हरिद्वार की हर की पैड़ी और महाकाल उज्जैन में शिप्रा के नदी स्नान की भारी महिमा पुराण ग्रंथों में बखानी गयी है। ऐसा ही एक पुण्यदायी स्नानपर्व है पौष पूर्णिमा। इस पावन पर्व पर भारत के दिव्य तीर्थों में भारी संख्या में श्रद्धालु मोक्ष की कामना से गंगास्नान को जुटते हैं।
ज्योतिषीय गणना के अनुसार पौष का महीना सूर्यदेव का माना जाता है और पूर्णिमा की तिथि चंद्रमा की। ज्योतिष के आचार्यों के मुताबिक सूर्य और चंद्रमा का यह अद्भुत संयोग पौष पूर्णिमा को ही मिलता है। पौष माह में सूर्यदेव अपनी ग्यारह हजार रश्मियों के साथ तप करते हैं। पौराणिक मान्यता है कि जो सनातनधर्मी समूचे पौष मास सूर्यनारायण का ध्यान-पूजन कर आध्यात्मिक ऊर्जा संग्रहीत करते हैं; पौष पूर्णिमा का पावन स्नान और सूर्यदेव की विशेष पूजा-उपासना उनकी साधना को पूर्णता प्रदान करती है। आध्यात्मिक तत्वदर्शियों का कहना है कि इस दिन गंगा स्नान करने से ग्रह बाधा शांत होकर तन, मन और आत्मा तीनों का नवजीवन हो जाता है और भुवन भास्कर की कृपादृष्टि से साधक को मोक्ष का वरदान भी मिलता है। इसीलिए “पौष पूर्णिमा” को अध्यात्म के क्षेत्र में विशेष तिथि मान्यता प्राप्त है।
जानना दिलचस्प हो कि माघ मास का स्नान व्रत धारण करने वाले साधक इसी तिथि से एक माह का “कल्पवास” शुरू करते हैं जिसकी पूर्णता माघी पूर्णिमा को होती है। पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है। उनके अनुसार कल्पवासी को सत्यवचन, अहिंसा, इन्द्रीय संयम, सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव, ब्रह्मचर्य पालन, व्यसनों का त्याग, सूर्योदय से पूर्व शैय्या-त्याग, नित्य तीन बार सुरसरि स्न्नान, त्रिकाल संध्या व पितरों का पिण्डदान, यथा-शक्ति दान, अन्तर्मुखी जप, सत्संग, क्षेत्र संन्यास अर्थात संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु सन्यासियों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन आदि नियमों का पालन पूर्ण निष्ठा से करना चाहिए। इनमें ब्रह्मचर्य व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग व दान का विशेष महत्व बताया गया है। गायत्री महाविद्या के महामनीषी तत्ववेत्ताओं पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं, ‘’ ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है ब्रह्म में विचरण। सरल शब्दों में कहा जाए तो काम के प्रति आसक्ति का त्याग ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।‘’ कल्पवास का दूसरा अति महत्वपूर्ण अंग है व्रत एवं उपवास। कल्पवास के दौरान विशेष दिनों पर व्रत रखने का विधान है। व्रतों को दो कोटियों में विभाजित किया गया है– नित्य एवं काम्य। नित्य व्रत से तात्पर्य बिना किसी अभिलाषा के ईश्वर प्रेम में किये व्रतों से है, जिसकी प्रेरणा अध्यात्मिक उत्थान से होती है, वहीं काम्य व्रत किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए किये गये व्रत होते हैं। व्रत के दौरान धर्म के दस अंगों का पूर्ण पालन किया जाना आवश्यक होता है। मनुस्मृति के अनुसार ये दस धर्म हैं – धैर्य, क्षमा, स्वार्थपरता का त्याग, चोरी न करना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धिमता, विद्या, सत्य वाचन एवं अहिंसा।
बताते चलें कि पौष पूर्णिमा के दिन ही शाकंभरी जयंती भी मनायी जाती है। माता शाकंभरी को देवी दुर्गा का अवतार माना जाता है। कहते हैं कि एक बार दानवों के उत्पात से त्रस्त भक्तों ने कई वर्षों तक सूखा एवं अकाल से ग्रस्त होकर देवी दुर्गा से प्रार्थना की। तब देवी मां अपने भक्तों की दुर्गति से करुणाद्र हुई देवी मां की हजारों आंखों से नौ दिनों तक लगातार आंसुओं की बारिश हुई जिससे पूरी पृथ्वी पर हरियाली छा गई तथा जीवन रस से परिपूर्ण हो गया। तत्पश्चात उन्होंने अपने अंगों से कई प्रकार की शाक, फल एवं वनस्पतियों को प्रकट किया। कहते हैं कि तब से वे जगत में शाकंबरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गयीं। इसलिए पौष पूर्णिमा को शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाता है।
जानना दिलचस्प हो कि जैन धर्मावलंबी पुष्याभिषेक यात्रा की शुरुआत पौष पूर्णिमा से ही करते हैं। छत्तीसगढ के आदिवासी समाज के “छेर-छेरता पर्व” का आयोजन भी पौष पूर्णिमा से ही होता है। आदिवासियों का यह त्यौहार पौष महीने की पूर्णिमा से शुरू होकर सप्ताह भर तक चलता है। गोड़, नागवंशी, कंवर, नगेसिया, भुईयां, खैरवार, खडिया, चिक, संवरा, चिकवा, रौतिया, सौंसर, मुंडा, डोम व अगरिया जनजाति के आदिवासी काफी धूमधाम से इस त्यौहार को मनाते हैं। सदियों पुरानी यह अनूठी परंपरा आज भी कायम है।
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