नारी सम्मान के प्रति संकल्पबद्ध श्रीराम

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राज चावला

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।”

प्राचीन ग्रंथ मनुस्मृति का ये श्लोक है, इसका अर्थ है – 

जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और

जहाँ नारी की पूजा नहीं होती है वहाँ समस्त क्रियाएं निष्फल रह जाती हैं।

श्रीरामायण का सार देखते हैं तो पाते हैं कि श्रीराम ने अपने पूरे जीवन काल में इस श्लोक के सम्यक ही व्यवहार किया। नारी को समाज में यथोचित स्थान मिले, इसके लिए प्रभू श्रीराम ने अपने आचरण से उदाहरण भी प्रस्तुत किये। माता कैकेयी ने राजा दशरथ से वरदान मांगा तो उसकी लाज रखी और माता कैकेयी के प्रति सम्मान में जीवन पर्यंत कोई कमी नहीं आने दी। श्रीराम के समक्ष जब माता कैकेयी वनवास के अपने वरदान को न्यायसंगत बताने का प्रयास करती हैं, तो भी श्रीराम मुस्कुराते हुए कहते हैं-

” सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥

तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥”

(अयोध्या कांड, श्रीरामचरितमानस)

अर्थ है – हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी है। आज्ञा पालन करके माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है।

राजा तब एक से अधिक रानियां रख सकते थे, पर श्रीराम ने जानकी जी को एक बार कहा कि वो जीवन पर्यंत किसी दूसरी स्त्री को उनके समकक्ष स्थान नहीं देंगे तो सदैव उसका पालन ही किया। श्रीराम के पूरे वनगमन में नारियों से उनका सामना भी हुआ तो उन्होंने सदा ही समाज में उनका यथोचित स्थान दिलाया, उनका उद्धार भी किया। माता सीता की छोड़कर सभी नारियों के लिए उनका संबोधन व दृष्टि माता, पुत्री या बहन सरीखी ही रही। प्रभू श्रीराम ने किसी को श्राप से मुक्ति दिलाई तो किसी महिला की सामाजिक स्थिति में सुधार लाकर उन्हें सशक्त बनाया।

महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल से धनुर्विद्या, अर्थशास्त्र, राजानीति शास्त्र सहित सभी विधाओं में पूर्ण होकर निकले तो महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को राक्षसों से रक्षा के लिए राजा दशरथ से मांग कर ले गए। एक सुबह श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ सैर को निकले तो एक निर्जन आश्रम में पहुंचे। विश्वामित्र ने ऋषि गौतम व उनकी पत्नी माता अहिल्या की कहानी सुनाई, जिनके रुप की चर्चा त्रिलोक में थी। देवराज इंद्र के दुस्साहस के कारण ही गौतम ऋषि ने श्राप दिया जिससे माता अहिल्या शिला में बदल गई थीं। तब श्रीराम ने अपने चरणों से माता अहिल्या को श्राप से मुक्त किया व उनका उद्धार किया। चेतना पाकर अहिल्या कहती हैं-

“मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।

देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥

बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।

पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥”

यानी – मुनि ने जो मुझे शाप दिया, मैं उसे अनुग्रह मानती हूँ कि जिस कारण मैंने श्री हरि को नेत्र भरकर देखा। इसी को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल चाहती हूँ कि मेरा मन आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरस का सदा पान करता रहे।

जन्म से यक्षिणी व अत्यंत सुंदर ताड़का का विवाह राक्षसकुल में हुआ तो उसकी प्रवृत्तियां भी वैसी हो गईं। ऋषि मुनियो के यज्ञ में बाधा और आश्रमों में विध्वंस करना उसकी आदत बन गई थी। अगस्त्य मुनि के श्राप के कारण उसका रूप भी बिगड़ गया था। अहिल्या की मुक्ति से पहले विश्वामित्र के निर्देश पर ही श्रीराम ने ताड़का का वध किया व उसे वापस अपने योनि में भेज कर उसे भी जीवन में दुराचरण से मुक्त किया।

माता कैकेयी के वनवास के वरदान और महाराज दशरथ की आज्ञा पर श्रीराम जब वन को चले तो माता शबरी के आश्रम में उनके मुख से चखे बेर खाकर प्रभु ने उनका भी उद्धार किया। माता सीता की खोज में मदद करते हुए उन्होंने सुग्रीव का भी पता बताया। श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में लिखा है-

“कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।

तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥”

यानी सारी कथा कहकर भगवान के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता।

देवताओं और असुरों के सागर मंथन में निकली अप्सराओं में एक थी तारा, जो संयोगवश वानरराज बाली की पत्नी बनी। सुग्रीव को वचन देने के बाद जब श्रीराम ने बाली का वध किया तो सर्वाधिक विलाप तारा का सहज ही था। प्रभु राम ने उन्हें जीवन का सार समझाया पर बाली के बाद उनके जीवन का सम्मान भी बनाए रखा। श्रीराम के कहने से सुग्रीव किष्किन्धा के राजा बने तो बाली पुत्र अंगद को युवराज बनाया गया। साथ ही रानी तारा को राजमहल में पहले की तरह ही जीवनपर्यन्त सम्मान मिलता रहा।

रावण वध के पश्चात रानी मंदोदरी की स्थिति भी रानी तारा जैसी ही हो गई। युद्धभूमि में अपने पुत्रों और दशानन की मृत्यु से रानी मंदोदरी काफी दुखी हुईं। युद्ध का समाचार जानकर जब मंदोदरी वध स्थल पर पहुंची तो मर्यादावश श्रीराम एक तरफ चले गए। विष्णु भक्त मंदोदरी ने सदा ही रावण को राह दिखाने का प्रयास किया, मगर लंकापति का अहंकार हावी ही रहा। लंका का नया राजा विभीषण को घोषित करने के बाद श्रीराम ने उन्हें मंदोदरी के साथ विवाह करने का सुझाव दिया, जिससे जीवनभर वो लंका की महारानी की तरह सम्मान की अधिकारी रहीं।

श्रीरामायण के जितने भी प्रमुख नारी चरित्र रहे, श्रीराम ने सदा उनको यथोचित सम्मान व स्थान दिया, बल्कि आवश्यकता होने पर उनका उद्धार भी किया। रामराज्य में लोकमर्यादा के लिए माता जानकी के वनगमन के निर्णय को भी उन्होंने स्वीकार किया, फिर उसका अर्थ भले राजा रानी के पारिवारिक जीवन का त्याग ही क्यों ना हो, प्रभू श्रीराम ने वो भी किया। इसीलिए राम सबके हैं, राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।

 

लेखक राज चावला, वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक

(पत्रकारिता में 25 वर्ष से अधिक। ज़ी न्यूज़, आजतक, राज्य सभा टीवी, न्यूज़ वर्ल्ड इंडिया जैसे चैनलों से सम्बंधित रहे। सलाहकार के रुप में कई संस्थाओं से जुड़े। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकार, वृत्तचित्र निर्माता व समीक्षक)

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