राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने 2021 में मासिक ‘विवेक’ को दिए एक साक्षात्कार में श्रीराम जन्मभूमि के पीछे मौलिक भाव एवं रामराज्य की परिकल्पना को स्पष्ट करते हुए उस हेतु समाज का मानस तैयार करने का आह्वान किया। यहां प्रस्तुत हैं उसी साक्षात्कार के संपादित अंश
अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण के प्रारंभ के साथ ही राम जन्मभूमि आंदोलन समाप्त हो गया, लेकिन क्या अब प्रभु श्रीराम का विषय भी समाप्त हो गया?
श्रीराम मंदिर का शिलान्यास 1989 में पहले ही हो गया था। 5 अगस्त, 2020 को केवल मंदिर निर्माण कार्य का शुभारंभ हुआ। मंदिर निर्माण के लिए भूमि प्राप्त हो इसलिए श्रीराम जन्मभूमि का आंदोलन चल रहा था। सर्वोच्च न्यायालय का इस पर निर्णय आ गया। न्यायालय के आदेश के अनुसार एक न्यास बनाया गया। उस न्यास को मंदिर निर्माण के लिए भूमि प्राप्त हो गई। इसके साथ ही राम मंदिर आंदोलन भी समाप्त हो गया। लेकिन भगवान श्रीराम का विषय कभी समाप्त नहीं होगा। श्रीराम भारत के बहुसंख्यक समाज के लिए भगवान हैं और जिनके लिए भगवान नहीं भी हैं, उनके लिए आचरण के मापदंड तो हैं ही। भगवान राम भारत के उस गौरवशाली भूतकाल का अभिन्न अंग हैं, जो भारत के वर्तमान और भविष्य पर गहरा प्रभाव डालता है। राम थे, हैं और रहेंगे। जब से श्रीराम प्रकट हुए हैं, तब से यह विषय है और आगे भी चलेगा। श्री राम जन्मभूमि का आंदोलन जिस दिन न्यास बन गया, उस दिन समाप्त हो गया।
काशी विश्वनाथ और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुक्ति हेतु भी क्या इसी प्रकार के आंदोलन चलाए जाएंगे?
हमको नहीं पता, क्योंकि हम आंदोलन करने वाले नहीं हैं। श्री राम जन्मभूमि का आंदोलन भी हमने शुरू नहीं किया, वह समाज द्वारा बहुत पहले से चल रहा था। अशोक सिंहल जी के विश्व हिंदू परिषद में जाने से भी बहुत पहले से चल रहा था। बाद में यह विषय विश्व हिंदू परिषद के पास आया। हमने आंदोलन प्रारंभ नहीं किया, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हम इस आंदोलन से जुड़े। कोई आंदोलन शुरू करना, यह हमारे एजेंडे में नहीं रहता। हम तो शांतिपूर्वक संस्कार करते हुए प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करने वाले लोग हैं। हिंदू समाज क्या करेगा, यह मुझे पता नहीं, यह भविष्य की बात है। इस पर मैं अभी कुछ नहीं कह सकता। मैं इतना बताना चाहता हूं कि हम लोग कोई आंदोलन शुरू नहीं करते।अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर बनने के बाद क्या यह मंदिर केवल पूजा-पाठ तक ही सीमित रहेगा या उससे कुछ और भी अपेक्षाएं हैं?
पूजा-पाठ करने के लिए हमारे पास बहुत मंदिर हैं। इसके लिए इतना लंबा प्रयास करने की हिंदू समाज को कोई जरूरत नहीं थी। वास्तविकता यह है कि ये प्रमुख मंदिर इस देश के लोगों की नीति एवं धैर्य को समाप्त करने के लिए तोड़े गए थे। इसलिए हिंदू समाज की तब से ही यह इच्छा थी कि ये मंदिर फिर से खड़े हो जाएं। स्वतंत्र होने के बाद वे खड़े हो रहे हैं, लेकिन केवल प्रतीक खड़े होने से काम नहीं चलता। जिन मूल्यों एवं आचरण के वे प्रतीक हैं, वैसा बनना पड़ता है। मंदिर तो बनेगा, लेकिन हमें क्या करना है, उसका उल्लेख 5 अगस्त,2020 के दिन मैंने किया था। ‘परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत’ बनाने के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति को वैसा भारत निर्माण करने के योग्य बनना पड़ेगा। अत: मन की अयोध्या बनाना तुरंत शुरू कर देना चाहिए। राम मंदिर बनते-बनते तक ही प्रत्येक भारतवासी के मन की अयोध्या भी खड़ी होनी चाहिए। मन की अयोध्या क्या है, इस बारे में भी मैंने रामचरितमानस के दो दोहे कहे हैं-
काम कोह मद मान न मोहा! लोभ न छोभ न राग न द्रोहा!
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया! तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया!!
राम में रमे हुए लोगों की अयोध्या ऐसी होती है। प्रत्येक भारतीय को अपने हृदय को ऐसा बनाना चाहिए।
दूसरा दोहा है –
जाति पाति धनु धरमु बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई!
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई, तेहि के हृदयं रहहु रघुराई!!
ये बातें होती हैं और ये हम सभी के अभिमान के विषय हैं। उसका अभिमान होने में कुछ गलत नहीं है। लेकिन इसको लेकर भेद हो जाए, इसको लेकर स्वार्थ साधा जाए तो यह अनुचित है। ‘सब तजि’ का अर्थ यह नहीं है कि संन्यास धारण कर हिमालय में चले जाएं। इसका अर्थ यह है कि जिसके साथ हमारा मन जुड़ जाता है, जिससे मोह हो जाता है, उसे छोड़ दें। अपने हृदय में केवल राम को ही समाहित कर लें, राम से ही जोड़ लें। यानी रामजी के उस आदर्श को, उस आचरण को, उन मूल्यों को अपने हृदय में धारण कर लें। ‘…तेहि के हृदय रहहु रघुराई’ ऐसा जीवन बनाना, यह मुख्य काम है। उसके लिए मंदिर बनाने का आग्रह है। देश में इस संदर्भ में जागरूकता आनी चाहिए। इस भावना को सम्मान दिया जाना चाहिए। हमारे आदर्श श्रीराम के मंदिर को तोड़कर, हमें अपमानित करके हमारे जीवन को भ्रष्ट किया गया। हमें उसे फिर से खड़ा करना है, बड़ा करना है, इसलिए भव्य-दिव्य रूप से राम मंदिर बन रहा है।
प्रभु श्रीराम हमारे आदर्श हैं। इसके बावजूद देश में कुरीतियां और कुप्रथाएं हैं। उन्हें खत्म करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? क्या हमारे धर्माचार्यों को भी इसमें योगदान देना चाहिए?
धर्माचार्यों को कैसा काम करना चाहिए, किस तरह से योगदान देना चाहिए, यह उपदेश मैं नहीं दे सकता। परंतु समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है, उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म की व्यवस्था तय करती है ‘आचार धर्म’। जैसे सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप, यह शाश्वत धर्म है। सदा सर्वदा, कहीं भी- कभी भी। परंतु इसका आचरण करना देश-काल-परिस्थिति पर निर्भर करता है। व्यक्ति विशेष पर भी यह निर्भर करता है। धर्म का आचरण देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति के स्वभाव को ध्यान में रखकर कर्तव्य के रूप में निर्धारित जो करते हैं, उसको कहते हैं ‘आचार धर्म’। हमारे यहां पुरातन स्मृतियां हैं और वह भी एक नहीं है, वह भी बदलती रही हैं। कहते हैं आखिरी स्मृति देवल स्मृति होगी, जिसमें महिलाओं को शिक्षा एवं अन्य प्रावधान हैं। जो जबरदस्ती भगाए गए हैं, उनको वापस लाने का भी प्रावधान है। जिन बातों की आज हम आवश्यकता महसूस करते हैं, उस समय वैसे ही उन लोगों ने की होगी। वही बातें इसमें लिखी होंगी। परंतु उसके बाद दसवीं सदी के आसपास देवल स्मृति समाप्त हो गई। इसके बाद 1000 साल तक कोई स्मृति ही नहीं आई। इसलिए चाहे जैसे लोग चल रहे हैं। सारे समाज का अवलोकन करके भारतीय धर्म के सभी धर्माचार्यों को मिलकर आज के समय में जो सभी भारतीयों के अनुकूल हो, आचरण में सरल हो, उनका जो परंपरागत आदर्श है जिसको दुनिया चाहती है, ऐसा जीवन जीने में उसको समर्थ बनाए, ऐसी एक नई आचार व्यवस्था देनी चाहिए।
अभी आपने स्मृतियों के विषय को स्पर्श किया। कई धर्मग्रंथ और स्मृतियां ऐसी हैं, जिनको समय के साथ परिवर्तित करना अति आवश्यक है। इस विषय पर आपकी क्या राय है?
हम यानी भारतीय समाज ग्रंथों पर नहीं चलता। यदि ग्रंथों पर चलता होता तो एकनाथ महाराज रामेश्वरम जाते समय गधे को गंगा का पानी नहीं पिलाते। ग्रंथों में कई ऐसी बातें हैं जो कालबाह्य हैं। भारतीय समाज, जो धर्म पर पूरी श्रद्धा रखता है, ग्रंथों की उन बातों को छोड़कर चल रहा है। और कोई उसे धर्म बाह्य नहीं करता या कोई उसे श्राप नहीं देता है, क्योंकि लोग जानते हैं कि पुस्तकीय शब्द देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उसका नया अर्थ बताना पड़ता है या शब्दों को बदलना पड़ता है। अपने जो ग्रंथ हैं, उनमें से ‘भगवद्गीता’ में बिल्कुल मिलावट नहीं है, ऐसा कह सकते हैं। वेदों में मिलावट नहीं है, क्योंकि वे मौखिक रूप से सुरक्षित हैं और उपनिषदों में भी मिलावट नहीं है। बाकी ग्रंथों में से महाभारत की तो प्रस्तावना में ही कहा है, जब पहली बार कथा बताई गई है वह 8,800 श्लोकों की थी और अभी जो पूर्ण ग्रंथ उपलब्ध है वह लगभग एक लाख श्लोकों का है। शेष सारे श्लोक बाद में जुड़े हैं। उनमें से जो वर्तमान समय में काल बाह्य हैं, उन्हें निकालना चाहिए और जो काल-सुसंगत हैं और हमारे मूल्यों से सुसंगत हैं, इन दोनों बातों को रखना चाहिए। ऐसा किसी ने सोचा तो गलत विचार है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। लेकिन यह करने के सारे अधिकार हमारे धर्माचार्यों के हैं। वह यह कर सकते हैं। अन्य लोगों को इसमें हाथ नहीं डालना चाहिए, किंतु अन्य लोग धमार्चार्यों को हाथ जोड़कर आग्रह कर सकते हैं कि कृपया ऐसा कीजिए। कई लोग ऐसा चाहते भी हैं, अनेक लोग मुझसे भी मिलते रहते हैं। समाज के बड़े-बड़े, अच्छे लोग जो राजनीति में नहीं हैं, जिनका कोई स्वार्थ नहीं है, अगर उनको यह लगता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए तो फिर ऐसा नहीं होना चाहिए।
राम मंदिर का आदर्श देखकर हिंदू धर्म के अंतर्गत आने वाले सभी संप्रदाय व पंथ एकजुट हो सकते हैं और समाज भी बलशाली हो सकता है, लेकिन हमारे देश में मुस्लिम और ईसाई मत को मानने वाले भी हैं, उनको हमारी विचारधारा में लाने के लिए क्या प्रयास करना चाहिए?
उनको लाना क्या है? उन्हें केवल इतना ही करना है कि उससे अलग जाना नहीं है। रसखान का नाम तो आपने सुना है न, वे मुसलमान थे, उन्होंने इस्लाम छोड़ा नहीं था, परंतु उनका कृष्ण पर कितना सुंदर काव्य है। वह कृष्ण भक्त थे। शेख मोहम्मद थे, वह विट्ठल के भक्त थे। ये कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। हमारे यहां श्रीरामकृष्ण परमहंस ने इस्लाम-ईसाई सहित सभी उपासना पद्धतियों की प्रत्यक्ष उपासना करके कहा कि सभी धर्म-संप्रदाय एक ही जगह पहुंचते हैं। रमण महर्षि से जब पाल ब्रन्टन ने कहा कि मुझे लगता है कि मैं हिंदू बन जाऊं तो रमण महर्षि ने कहा, ‘नहीं, तुम ईसाई मत में जन्मे हो तो अच्छे ईसाई बनो। तुमको भी वही फल मिलेगा जो एक हिंदू को अच्छा हिंदू बनने पर मिलता है।’ यह हमारे यहां सदा हुआ है। समय-समय पर कट्टरपंथी लोग इनको अलग दिशा में ले जाने का प्रयास करते हैं। उस प्रयास को शिवाजी महाराज ने रोका। उनकी नौसेना में मुसलमान भी थे, सिद्दी भी थे।
महाराणा प्रताप की सेना में कई मुसलमान थे, जिन्होंने अकबर को हल्दी घाटी में रोका। इतिहास के हर मोड़ पर सब लोग साथ खड़े थे। जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। जिनके स्वार्थों पर आघात होता है, वे लोग बार-बार अलगाव और कट्टरता फैलाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में हमारा ही एकमात्र देश है, जहां पर सब के सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश है, जहां पर उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय रहा हो जो उस देश के वासियों का नहीं और वह अभी तक चल रहा है? ऐसा कोई नहीं। वह केवल हमारा देश ही है। इस्लाम के आक्रमण से कुछ समय पहले मुसलमान भारत में आए। आक्रमण के साथ बहुत अधिक संख्या में आए। बहुत सारा खून-खराबा, संघर्ष, युद्ध, बैर का इतिहास रहा है। फिर भी हमारे यहां मुसलमान हैं। हमारे यहां ईसाई हैं। उनके साथ किसी ने कुछ बुरा नहीं किया। उन्हें तो यहां सारे अधिकार मिले हुए हैं, पर पाकिस्तान ने तो अन्य मतावलंबियों को वे अधिकार नहीं दिए।
हिंदुस्थान का बंटवारा कर मुसलमानों के रहने के लिए पाकिस्तान बना। उस समय की स्थिति के अनुसार भारत में हिंदुओं की ही चलेगी और किसी की नहीं चलेगी, जाना है तो अभी चले जाओ और अगर रहना है तो हिंदू के नीचे ही रहना पड़ेगा, ऐसा हमारे संविधान ने नहीं कहा। हमारी संविधान सभा में सब प्रकार के लोग थे। बाबासाहेब आंबेडकर भी यह मानते थे कि जनसंख्या की अदला-बदली होनी चाहिए। परंतु उन्होंने भी यहां जो लोग रह गए, उन्हें स्थानांतरित करना पड़े, ऐसा संविधान नहीं बनाया। उनके लिए भी एक जगह बनाई गई। यह हमारे देश का स्वभाव है और इस स्वभाव को हिंदू कहते हैं। हम किसकी पूजा करते हैं, उससे हिंदू का कोई संबंध नहीं है। धर्म जोड़ने वाला, ऊपर उठाने वाला, समाज को एक सूत्र में पिरोने वाला होना चाहिए। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के सुख जिसके आचरण करने से मिल सकते हों, ऐसा धर्म हो। अर्थ और काम का नियमन करते हुए पूरे समाज को ठीक से चलाने वाला धर्म है। पूजा-पद्धति आपकी कोई भी हो। राष्ट्रीयता का पूजा-पद्धति से कोई संबंध नहीं है। पहले-पहले जब पाकिस्तान की बात चली थी, तब जमात-ए-इस्लामी के चीफ थे मदनी साहब। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कौम और रिलिजन का कोई संबंध नहीं है। जो लोग यह कह रहे थे कि जो मुसलमान हैं वे हिंदुस्थान के नहीं हैं, यह गलत है। अत: बीच-बीच में अगर कट्टरता फैलती है तो उस वातावरण में भटकना नहीं, इतना करना पड़ेगा। और उसके लिए हम एक राष्ट्र हैं, सनातन काल से चलते आए हुए पुरातन राष्ट्र हैं, हम हिंदू राष्ट्र हैं। कुछ बदलना नहीं पड़ता, केवल कुछ बुराइयां छोड़नी पड़ती हैं, संकुचितता छोड़नी पड़ती है। यह सब संभव है और इन बातों को मानने वाले हमको मिलते भी हैं। ईसाई और मुसलमान दोनों मिलते हैं, अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे उच्च पदस्थ मुसलमान भी मिलते हैं।
जब भी भविष्य के भारत का विषय होता है तब ‘विश्वगुरु भारत’ यह विषय भी चर्चा में आता है। स्वामी विवेकानंद जी से लेकर श्रीगुरुजी तक अनेक महापुरुषों ने विश्वगुरु भारत की संकल्पना व्यक्त की है। आज की स्थिति में विश्वगुरु भारत कैसा होगा? अनेक देशों की तरह अर्थसत्ता के बल पर दूसरों को झुकाने वाला या विश्व गुरु भारत? हमारी संकल्पना क्या है?
हम सत्ता पर तो विश्वास ही नहीं करते। हम जब बड़े होते हैं तो भूभाग नहीं, शत-शत मानवों के हृदय को जीतने का हमारा संकल्प है।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रे शिक्षरेन्पृथिव्यां सर्वमानवा:।।
अपने-अपने चरित्र, एक-एक के चरित्र द्वारा दुनिया को यह शिक्षा हमें देनी है। हम किसी को हड़पना नहीं चाहते और किसी का वैशिष्ट्य नष्ट नहीं करना चाहते। हम किसी देश को गुलाम नहीं बनाना चाहते और किसी की संपत्ति हथियाना भी नहीं चाहते। इस अर्थ में हम महाशक्ति बनना नहीं चाहते। हमारी शक्ति होगी, हमारा ज्ञान होगा, हमारे पास धन-संपत्ति भरपूर होगी, दुनिया में अर्थ की दृष्टि में क्रमांक एक हम होंगे, लेकिन हम इसका उपयोग क्या करेंगे- ‘ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।’ हमारे यहां कहा जाता है-
विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्ति परेषां परिपीड़नाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
जो महाशक्ति बनते हैं वे डंडा चलाते हैं। हम ऐसा नहीं करेंगे। हम दुनिया का ज्ञान बढ़ाने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करेंगे। दुनिया में दुर्बल की रक्षा हो, हम इस तरह अपनी शक्ति का उपयोग करेंगे। दुनिया में जिनके पास नहीं है, उनको देंगे। हमारी संपत्ति बढ़ेगी तो हम दूसरों को देंगे। बाकी लोगों को अपने अस्तित्व की चिंता है। उनके बुनियादी विचार ही ऐसे हैं। अच्छा बुरा छोड़ दीजिए। उनके अनुभव से उनका निष्कर्ष यह है। यह दौड़ है, उसमें जीतना है। जो आगे रहेगा, वह जीतेगा। किसी भी प्रकार से आगे चलो। वह कितनी भी चिकनी-चुपड़ी बातें कर दें, गंतव्य तो वही रहता है। अंत में सब वापस आ जाते हैं। ‘संपूर्ण विश्व’ वैश्विक बाजार आदि की बात बार-बार करते थे, पर आज कह रहे हैं स्वदेशी-स्वदेशी। क्योंकि कोई विचार तब तक है, जब तक अपने को वह हानि नहीं पहुंचाता। लेकिन भारत कहता है कि ‘सब जिएंगे तो हम जिएंगे और अगर हम जिएंगे तो सबको जीना चाहिए।’ जब भारत ऐसा देश बनेगा तो लोग इसे विश्व गुरु मानेंगे। वैसे आज भी विश्व हमें मानता है।
कारगिल युद्ध के बाद उसका अध्ययन करने के लिए चार-पांच प्रगत देशों की टीमें भारत में आई थीं। हमारे जवानों का शौर्य और पराक्रम है ही, पर सर्वाधिक महत्व की बात है कि दूसरे देश के द्वारा लादा गया युद्ध उनकी सीमा का उल्लंघन न करते हुए हमने कैसे जीता? यह विचार कौन कर सकता है? यह विचार केवल भारतीय कर सकते हैं। यह सही है या गलत, यह चर्चा छोड़ दीजिए, लेकिन यह विचार मन में आना, यह सिर्फ भारत में ही हो सकता है। इसलिए भारत जब विश्वगुरु बनेगा, तब भारत ‘एक देश के नाते एक राष्ट्र का आचरण’ से और भारत के एक-एक व्यक्ति के जीवन के अनुसरण से, सारी दुनिया अपना जीवन बनाएगी। अमेरिका में 60 प्रतिशत लोग शाकाहार का उपयोग क्यों कर रहे हैं? सारा विश्व योग क्यों कर रहा है? धीरे-धीरे पूरी दुनिया हमारी ओर देख रही है और विचार कर रही है। हम दुनिया की आवश्यकता पूर्ण करने वाले बनेंगे, ऐसी शक्ति हमारे पास होनी चाहिए।
भारतीय जनमानस में रामराज्य के प्रति सदियों से गहरी आस्था है। रामराज्य की संकल्पना क्या है और उसे हम वर्तमान में किस प्रकार से पूरी कर सकते हैं?
जनता नीतिमान और राजा शक्तिमान इस प्रकार की वह व्यवस्था थी। जनता के सामने राजा नम्र था और राजा की आज्ञा में जनता थी। यानी लोगों की चलेगी या राज्य की चलेगी, ऐसा सवाल नहीं था। राजा कहता था जैसा लोग कहेंगे वैसा होगा और समाज कहता था कि राजा को सब पता है, वह जो कहेगा वैसा होगा। मुख्यत: चोरी-चपाटी की बातें नहीं थीं। नीतिमतता थी, उद्योग-परिश्रम की कीमत थी। श्रम को आदर और सम्मान दिया जाता था और अपने परिश्रम से जीने की युक्ति थी, अत: समृद्धि थी। अपने यहां श्रीसूक्त में एक मंत्र है-अगर लक्ष्मी नहीं है तो उसके क्या लक्षण होते हैं-क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहं।
अर्थात् रोग, भूख और प्यास यह एक लक्षण है। दूसरा है क्रोध, मात्सर्य यानी एक-दूसरे से ईर्ष्या, लोभ, गुस्सा अर्थात् आपस में लड़ाई, अस्वच्छता यह सब अलक्ष्मी के लक्षण हैं। यह सब नहीं थे, इसलिए भरपूर लक्ष्मी थी और धन का व्यय धर्म के लिए होता था, भोग के लिए नहीं। जितने भोग आवश्यक थे, वह सब दिए जाते थे। जहां-जहां आवश्यकता है, वहां थोड़ा बहुत जीवन रंग-बिरंगा हो इसलिए साज-सज्जा भी रहती थी। सुविधाएं थीं, आवश्यकताएं पूरी कीं, पर भोग-विलास को टाला। इस प्रकार का जनजीवन अपने को समझने वाला, अनुशासित, संयमित, जागरूक, संगठित और राजा धर्म की रक्षा करने वाला और स्वयं धर्म से चलने वाला, नियमों का पूर्ण पालन करने वाला, सत्ता को प्रतिष्ठा मानकर उसका उपयोग जनहित के लिए करने वाला था। यानी राजा बोल रहा था कि राज्य आपका है, आप करो। पिताजी के मन में भी यही था, पर माताजी के कारण राम को जंगल में भेज दिया। वे चले भी गए। भरत ने कहा- मुझे राज्य मिला। माताजी का भी आग्रह छूट गया। अब मैं आपको कह रहा हंू, वापस चलो। पर राम जी कहते हैं-नहीं, मैंने वचन दिया है। यह दोनों सत्ताधारी हैं लेकिन राज्य का लालच किसी को भी नहीं है। आखिर भरत को वापस जाना पड़ा तो राम की पादुका को सिंहासन पर बिठाया। तो राजा ऐसे और प्रजा ऐसी- यह रामराज्य था। व्यवस्थाएं आज बदल गई हैं। लेकिन लोगों की नीयत-नीति, भौतिक अवस्था, राजा की नीयत-नीति और भौतिक अवस्था यानी राज्य शासन में जितने भी लोग हैं और इस बीच जो प्रशासन है यह तीनों की जो गुणवत्ता है, वह गुणवत्ता हमको फिर से लानी पड़ेगी। उस गुणवत्ता को रामराज्य कहते हैं। उसके परिणाम यह हैं कि रोग नहीं रहते, असमय मृत्यु नहीं होती, कोई भूखा नहीं, कोई प्यासा नहीं, कोई भिखारी नहीं, कोई चोर नहीं, कोई दंड देने के लिए नहीं तो फिर दंड क्या करें। यह सारी बातें परिणाम स्वरूप हैं, क्योंकि उसके मूल में राज्य व्यवस्था-प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक संगठन इन तीनों की एक वृत्ति है। राम के अवतार लेने से यह नहीं होगा। राम का अवतार तो बाधा हटाने के लिए था। समाज की ऐसी स्थिति थी इसलिए बाधाएं हटने के बाद यह सब हो गया। तो आज समाज की स्थिति रामराज्य जैसी बनानी पड़ेगी, क्योंकि आज राजा भी और प्रशासन भी समाज से ही जा रहा है। हम वहां से शुरू करेंगे तो राम राज्य आएगा।
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