दुनिया के तमाम देशों की जटिलतम समस्याओं का समाधान क्या भारतवर्ष दे सकता है? क्या अयोध्यापुरी में बन रहा भव्य मंदिर क्या विश्व को नई दिशा दे सकता है? इसे समझना और समझाना कठिन भी नहीं, मगर दुनियाभर में भारतवर्ष को लेकर आज जो दृष्टिकोण बदला, भारत का अपना स्वाभिमान जागा, यदि इनसे जुड़ी सभी घटनाओं पर साधारण सा भी चिंतन है, तो उत्तर है हाँ।
श्री रामायण का हर घटनाक्रम अपने आप में बड़ा संदेश भी है, और उसे समझना भी सरल है। जैसे एक वृद्धा, वनवासिनी, सन्यासिनी, ऋषियों की सेविका के मुख से चखे हुए बेर उन्हीं के हाथ से जब तीनों लोकों के पालनहार स्वीकार करते हैं, उसे स्वाद लेकर खाते हैं, तब ऐसा सम्भाव, प्रभु और भक्त का ऐसा संबंध तो पश्चिमी समाज की कल्पना से भी परे है। जबकि इधर भारत के हर तत्व में, इस पावन धरा के संस्कारों में, प्रभु श्रीराम का यह चरित्र कण कण में मिल जाएगा।
माता शबरी और प्रभु श्रीराम का संबंध विचित्र भी है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ भक्ति का एकमात्र भाव है, और उसी में उस वृद्धा के जीवन का उद्धार भी है। श्रीराम जब माता सीता की खोज में निकले थे तो रास्ते में कबंध ने उन्हे पम्पा सरोवर के समीप की विशेषताएं बताते हुए वृद्ध सन्यासिनी शबरी की चर्चा की। बोले- वहां एकाग्रचित्त मतंग महर्षि के शिष्यों की सेवा में एक सन्यासिनी हैं, उसका नाम शबरी है, आप उनके आश्रम अवश्य जाएं।
प्रभु श्रीराम और भ्राता लक्ष्मण जब शबरी के आश्रम पहुंचे तो शबरी के आत्मीय स्वागत सत्कार से प्रभु श्रीराम प्रसन्न हुए। प्रभु श्रीराम और माता शबरी के बीच संवाद की गहराई से समझिए, कि जिस वृद्धा को वो जानते नहीं थे, पर उसकी कितनी चिंता भी करते थे। श्रीराम पूछते हैं-
“कश्चित ते निर्जिता विघ्ना: कश्चित ते वर्धते तप:।
कश्चित ते नियत: क्रोध अहारश्च तपोधने।
कश्चित ते नियमा: प्राप्ता: कश्चित ते मनस: सुखम।
कश्चित ते गुरुसुश्रूषा सफला चारूभाषिणि….।”
अर्थ – “हे तपस्विनी, तुम्हारी तपोविधियां बिना किसी बाधा के चल तो रही हैं ना? तुम पर आक्रमण तो नहीं हुआ? तुम्हारे आहार नियमों में कोई बाधा तो नहीं पड़ रही? तुम प्रशांत जीवन तो व्यतीत कर रही हो ना? हे मृदुभाषिणि, तुम अपने गुरु की सेवा में अपने आप को धन्य तो बना रही हो ना?”
श्रीराम का सूत्र शबरी का भक्तिभाव
वन में रहने वाली एक वृद्धा को एक चक्रवर्ती सम्राट कैसे संबोधित करता है, ये वास्तव में इस पावन धरा का ही चरित्र हो सकता है। या इसे दूसरी तरह से देखें तो वनवासिनी सन्यासिनी वृद्धा की तपस्या में कितना बल हो सकता है कि एक चक्रवर्ती सम्राट चलकर स्वयं उसके दर तक पहुंच आएं। श्रीरामायण की इस घटना में कोई बड़ा छोटा नहीं है, ये भक्ति भाव है, जिस कारण प्रभु श्रीराम स्वयं चलकर वहां तक आए। अब इससे बड़ा परमानंद शबरी के जीवन में कहां होगा। कहती हैं- “हे रामचंद्र प्रभु, मतंग ऋषि की सेवा का आज ये फल मुझे मिला। उन्होंने कहा था कि श्रीराम पधारेंगे, उनकी सेवा और दर्शन से मुझे अक्षयलोक की प्राप्ति होगी। आज यही हुआ है।”
शबरी के शब्द हैं- “मयातु विविधं वन्यं संचितं पुरुषर्षभ”
यानी – “यहां वन में मिलने वाले फलों को मैने आपके लिए संचित किया है”
श्रीरामचरितमानस के अरण्यकांड में लिखा है –
“कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥”
यानी माता शबरी ने रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥ (अरण्यकाण्ड)
इसी में आगे के संवाद में प्रभु श्रीराम कहते हैं –
“सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भग्ति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुर्लभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥”
अर्थ ये कि हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुम में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई।
शबरी के उद्धारक श्रीराम
फिर प्रभु श्रीराम माता जानकी की कोई जानकारी होने की बात पूछते हैं, तो शबरी का उत्तर है-
“पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥”
शबरी कहती हैं- हे रघुनाथजी, आप पंपा सरोवर जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव, वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि, आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं।
अरण्यकाण्ड में फिर लिखा है –
“कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥”
यानी सारी कथा कहकर भगवान के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता।
माता, सहयोगी और भक्त शबरी
आज के सन्दर्भों में समझना हो तो माता शबरी भील समाज से आती थीं, वन की ही वासी थीं, ऋषियों की सेवा में पूरा जन्म लगाया और अंत में प्रभु के दर्शन के बाद स्वयं ही देह छोड़ दी। इधर रघुकुल में जन्मे श्रीराम उन्हें भामिनी संबोधित करते हैं, उन्हीं के मुख के चखे फल खाते हैं, माता सीता को खोजने में मदद मांगते हैं, और अंत में मुक्ति भी देते हैं। श्रीराम ने यहां उन्हें माता के रूप में भी स्वीकार किया, सहयोगी के रुप में भी और भक्त के रुप में भी। इसी कारण बाद में श्रीराम की सेना में निषादों के साथ भील योद्धा भी आए। भारतभूमि की इसी सांस्कृतिक विशिष्टता ने, अपने पराए का भेद ना करने वाली भक्ति ने, माता शबरी को अमर बना दिया है। जब जब श्रीराम की बात होगी, तो चर्चा शबरी की भी होगी। तो राम शबरी के भी हैं, राम निषाद के भी हैं, राम केवट के भी हैं, राम सबके है।
श्रीराम जन्मभूमि पर बन रहा मंदिर श्री राम के जीवन का सार भी है और विश्व के लिए श्री रामायण का संदेशवाहक भी। जब हम कहते हैं सबके राम, तो श्री रामायण का यही सार तो आज दुनिया के लिए रामबाण समाधान भी है, जो संसार के हर वर्ग, श्रेणी के प्राणी को गले लगाने का संदेश भी है।
लेखक राज चावला, वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक
(पत्रकारिता में 25 वर्ष से अधिक। ज़ी न्यूज़, आजतक, राज्य सभा टीवी, न्यूज़ वर्ल्ड इंडिया जैसे चैनलों से सम्बंधित रहे। सलाहकार के रुप में कई संस्थाओं से जुड़े। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकार, वृत्तचित्र निर्माता व समीक्षक)
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