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प्रकाश पर्व : प्रेरणादायी हैं गुरु गोबिंद सिंह जी के उपदेश

सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का 357वां प्रकाश पर्व इस वर्ष 17 जनवरी को मनाया जा रहा है

by योगेश कुमार गोयल
Jan 17, 2024, 10:45 am IST
in पंजाब
गुरु गोबिंद सिंह जी

गुरु गोबिंद सिंह जी

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सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का 357वां प्रकाश पर्व इस वर्ष 17 जनवरी को मनाया जा रहा है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 1667 ई. में पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को 1723 विक्रम संवत् को पटना साहिब में हुआ था। प्रतिवर्ष इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह का प्रकाशोत्सव मनाया जाता है। बचपन में गुरु गोबिंद सिंह जी को गोबिंद राय के नाम से जाना जाता था। उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु थे। पंजाबी, हिन्दी, संस्कृत, बृज, फारसी भाषाएं सीखने के साथ गुरु गोबिंद सिंह जी ने घुड़सवारी, तीरंदाजी, नेजेबाजी इत्यादि युद्ध कलाओं में भी महारत हासिल की थी। कश्मीरी पंडितों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी ने महान बलिदान दिया था। इसके बाद मात्र 9 वर्ष की आयु में ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख गुरु की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाली और खालसा पंथ के संस्थापक बने।

अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी का वाक्य ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं तां गोबिंद सिंह नाम धराऊं’ सैकड़ों वर्षों बाद आज भी प्रेरणा और हिम्मत देता है। उन्होंने समाज में फैले भेदभाव को समाप्त कर समानता स्थापित की थी और लोगों में आत्मसम्मान तथा निडर रहने की भावना पैदा की। शौर्य, साहस, त्याग और बलिदान के सच्चे प्रतीक तथा इतिहास को नई धारा देने वाले अद्वितीय, विलक्षण और अनुपम व्यक्तित्व के स्वामी गुरु गोबिंद सिंह को इतिहास में एक विलक्षण क्रांतिकारी संत व्यक्तित्व का दर्जा प्राप्त है। एक आध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ वे एक निर्भयी योद्धा, कवि, दार्शनिक और उच्च कोटि के लेखक भी थे। उन्हें विद्वानों का संरक्षक भी माना जाता था। कहा जाता है कि 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति सदैव उनके दरबार में बनी रहती थी और इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की थी। ‘बिचित्र नाटक’ को गुरु गोबिंद सिंह की आत्मकथा माना जाता है, जो उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह ‘दशम ग्रंथ’ का एक भाग है, जो गुरु गोबिंद सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। इस दशम ग्रंथ की रचना गुरु जी ने हिमाचल के पोंटा साहिब में की थी।

कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह एक बार अपने घोड़े पर सवार होकर हिमाचल प्रदेश से गुजर रहे थे और एक स्थान पर उनका घोड़ा अपने आप आकर रुक गया। उसी के बाद से उस जगह को पवित्र माना जाने लगा और उस जगह को पोंटा साहिब के नाम से जाना जाने लगा। दरअसल ‘पोंटा’शब्द का अर्थ होता है ‘पांव’ और जिस जगह पर घोड़े के पांव अपने आप थम गए, उसी जगह को पोंटा साहिब नाम दिया गया। गुरु जी ने अपने जीवन के चार वर्ष पोंटा साहिब में ही बिताए, जहां अभी भी उनके हथियार और कलम रखे हैं। 1699 में बैसाखी के दिन तख्त श्री केसगढ़ साहिब में कड़ी परीक्षा के बाद पांच सिखों को ‘पंज प्यारे’ चुनकर गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, जिसके बाद प्रत्येक सिख के लिए कृपाण या श्रीसाहिब धारण करना अनिवार्य कर दिया गया। वहीं पर उन्होंने ‘खालसा वाणी’ भी दी, जिसे ‘वाहे गुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह’ कहा जाता है। उन्होंने जीवन जीने के पांच सिद्धांत दिए थे, जिन्हें ‘पंच ककार’ (केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा) कहा जाता है।

गुरु गोबिंद सिंह ने ही ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को सिखों के स्थायी गुरु का दर्जा दिया था। सन 1708 में उन्होंने महाराष्ट्र के नांदेड़ में शिविर लगाया था। वहां जब उन्हें लगा कि अब उनका अंतिम समय आ गया है, तब उन्होंने संगतों को आदेश दिया कि अब गुरु ग्रंथ साहिब ही आपके गुरु हैं। उन्होंने कई बार मुगलों को परास्त किया। आनंदपुर साहिब में तो मुगलों से उनके संघर्ष और उनकी वीरता का स्वर्णिम इतिहास बिखरा पड़ा है। गुरु गोबिंद सिंह के चारों पुत्र बाबा अजीत सिंह, फतेह सिंह, जोरावर सिंह और जुझार सिंह जी भी उन्हीं की भांति बेहद निडर और बहादुर योद्धा थे। अपने धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से लड़ते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पूरे परिवार का बलिदान कर दिया था। उनके दो पुत्र बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में बलिदान हुए थे। 26 दिसम्बर 1704 को गुरु गोबिंद सिंह के दो अन्य साहिबजादों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करने पर सरहिंद के नवाब द्वारा दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया था और माता गुजरी को किले की दीवार से गिरा दिया गया। नांदेड़ में दो हमलावरों से लड़ते समय गुरु गोबिन्द सिंह के सीने में हृदय के ऊपर गहरी चोट लगी थी, जिसके कारण 18 अक्तूबर 1708 को नांदेड में करीब 41 वर्ष की आयु में उन्होंने बलिदान दिया था।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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