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वनवासी लोक संस्कृति में श्रीराम

भगवान श्रीराम जनजातीय समाज में भी उतने ही पूज्य हैं, जितना शेष समाज में। श्रीराम और वनवासियों का परस्पर प्रेम और आत्मीयता तथा श्रीराम का सहायक बनने का उनका उत्साह वाल्मीकि रामायण में मनोहर रूप में चित्रित है

by WEB DESK
Jan 11, 2024, 07:53 am IST
in भारत, विश्लेषण, उत्तर प्रदेश, धर्म-संस्कृति
वनवास के दौरान माता सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण

वनवास के दौरान माता सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण

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अयोध्या में 22 जनवरी को रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में झारखंड से जनजातीय समाज के संत भी शामिल होंगे। इस समाज के 20 संतों को अयोध्या आने का निमंत्रण मिला है। वे बहुत उत्साहित हैं और स्वयं को सौभाग्यशाली मान रहे हैं। उनका कहना है कि भगवान की कृपा से ही यह अवसर मिल रहा है।

श्रीराम की नगरी अयोध्या में रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के साथ नवनिर्मित भव्य मंदिर का उद्घाटन समारोह एक ऐतिहासिक क्षण होगा। दुनिया के इस सबसे बड़े रामोत्सव की तैयारी अंतिम दौर में है। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट इस महोत्सव को विश्वव्यापी बनाने में लगा है। विदेशों में हिंदू समुदाय में इसे लेकर जबरदस्त उत्साह है। अमेरिका में तो एक सप्ताह तक प्राण प्रतिष्ठा उत्सव मनाने के लिए बड़े पैमाने पर तैयारियां की जा रही हैं।

झारखंड के जनजातीय संतों को निमंत्रण

देश के जनजातीय अंचलों में भी उत्साह और उमंग व्याप्त है। अयोध्या में 22 जनवरी को रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में झारखंड से जनजातीय समाज के संत भी शामिल होंगे। इस समाज के 20 संतों को अयोध्या आने का निमंत्रण मिला है। वे बहुत उत्साहित हैं और स्वयं को सौभाग्यशाली मान रहे हैं। उनका कहना है कि भगवान की कृपा से ही यह अवसर मिल रहा है।

वे इस ऐतिहासिक अवसर को खोना नहीं चाहते। उनके साथ-साथ झारखंड के दूसरे संप्रदायों के संत भी अयोध्या जाएंगे। इन संतों के आवागमन, अयोध्या में निवास और भोजन आदि की व्यवस्था श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट की ओर से की जाएगी। उल्लेखनीय है कि राम जन्मभूमि आंदोलन में कई जनजातीय कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था।

बलबीर दत्त
वरिष्ठ पत्रकार

हमारे देश में असम से लेकर गुजरात और विंध्यांचल से लेकर नीलगिरि के विस्तृत भूभाग के वनों, पठारों और पहाड़ियों में, प्रकृति की उन्मुक्त गोद में, आधुनिक सभ्यता से काफी हद तक दूर रहने वाले अधिसंख्य जनजातीय समुदाय मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम के जीवनादर्शों से प्रभावित हैं। श्रीराम के 14 वर्ष के वनवास के दौरान इन वनवासियों से उनका अंतरसंपर्क हुआ। भगवान राम ने अपने वनवास की अधिकांश अवधि वनवासी समुदायों के साथ बिताई जहां वे श्रीराम का स्नेह पाते रहे। उत्तर और दक्षिण को जोड़ने में भगवान राम के प्रयास का बड़ा योगदान रहा।

इन वनवासी बंधुओं को भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति कहकर संबोधित किया गया है। इन्हें ‘आदिम जनजाति’ और ‘आदिवासी’ भी कहा जाता है। यह नामकरण भी अंग्रेजों की देन है, जिन्होंने भारत के निवासियों को विभिन्न समुदायों में बांटकर उनके बीच जातीय भेदों की दीवार खड़ी करने की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य की सुरक्षा का प्रयत्न किया था। समाजशास्त्री और इतिहास के अध्येता डॉ. धुरिए ने अपने अध्ययन के आधार पर इन जनजातियों को ‘पिछड़े हिंदू’ माना है।

श्रीराम और वनवासियों का परस्पर प्रेम

अंग्रेजों ने इन्हें शेष भारतीय समाज से पृथक रखने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी, लेकिन इनके उत्थान की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। प्रकृति के ये पुत्र मानव-प्रकृति की सहज अनुभूति के लिए उन्मुक्त हैं। वन्य एवं पर्वतीय अंचलों में गूंजते हुए इनके मधुर लोकगीत, मनोहर वाद्य और नृत्य न केवल कला के चरमोत्कर्ष के उदाहरण हैं, बल्कि इनके सहज जीवन के प्रतिबिंब भी हैं।

ये हमारे समाज के अभिन्न अंग हैं। हां, पिछड़े अवश्य हैं। हमारे महाकाव्यों में वनवासियों का जो वर्णन आता है, वह उनकी महत्ता व महिमा का द्योतक है। वाल्मीकि रामायण तो वनवासी-खंड के गौरव का महाकाव्य ही है। श्रीराम और वनवासियों का परस्पर प्रेम और आत्मीयता तथा श्रीराम का सहायक बनने का उनका उत्साह इस रामायण में सुंदर ढंग से चित्रित हुआ है। राम ने उन्हीं से अपनी सेना बनाई और सुग्रीव को सेनापति बनाया। पूजा में राम, कृष्ण, गंगा, गोवंंश आदि की अर्चना असंख्य वनवासी बंधुओं में आज भी सजीव रूप से विद्यमान है।

संत जेवियर कॉलेज, रांची में हिंदी तथा संस्कृत के पूर्व विभागाध्यक्ष फादर कामिल बुल्के ने अपने शोधग्रंथ ‘रामकथा’ में जनजातीय समुदायों में प्रचलित रामकथा के संबंध में लिखा था, ‘‘जनजातियों का साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका, केवल उनकी कुछ दंतकथाएं मिलती हैं। उन कथाओं में रामकथा का मूलरूप ढूंढना असाध्य है।’’ पूर्वी भारत के झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा आदि प्रांतों की संथाल जनजाति में प्रचलित रामकथा की कुछ अलग विशेषताएं और विचित्रताएं हैं, जैसे-हनुमान राम-बाण के सहारे समुद्र पार करते हैं और रावण वध के बाद लौटकर राम ने संथालों के यहां रहकर एक शिव मंदिर बनाया तथा उसमें वे नित्यप्रति सीता के साथ पूजा करने जाते थे।

शरतचंद्र राय ने बिरहोर जनजाति पर लिखित अपने शोधग्रंथ ‘द बिरहोर्स’ में बिरहोरों में प्रचलित एक रामकथा को उद्द्धृत किया है, जिसमें भगवान के अवतार राम के जन्म से लेकर रावण तथा कुंभकर्ण के वध तक का वृत्तांत संक्षेप में वर्णित है। इसकी भी कुछ अपनी विशेषताएं हैं, जैसे-सीता का आंगन को लीपने के लिए शिव धनुष उठाना, हनुमान का शुक के रूप में लंका में प्रवेश करना और लक्ष्मण द्वारा रावण-वध।

 ‘रामकथा’ में जनजातीय समुदायों में प्रचलित रामकथा के संबंध में लिखा था, ‘‘जनजातियों का साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका, केवल उनकी कुछ दंतकथाएं मिलती हैं। उन कथाओं में रामकथा का मूलरूप ढूंढना असाध्य है।’’

-पूर्व विभागाध्यक्ष फादर कामिल बुल्के ने अपने शोधग्रंथ

मुंडा जनजाति में दंतकथा के रूप में जो रामकथा प्रचलित है, उसमें बिरहोर जाति की उपर्युक्त रामकथा के अनुसार सीता की खोज का कुछ वर्णन किया गया है। डॉ. डब्ल्यू. रूबेन ने झारखंड की असुर जनजाति में प्रचलित दंतकथाओं का जो संकलन किया है, उसमें भी हनुमान के अपने ही बाण पर समुद्र पार करने की कथा है। खड़िया यहां की एक अन्य प्रमुख जनजाति है। इसके लोकगीतों में प्रकृति की पूजा के साथ रामकथा पर आधारित कई गीत मिलते हैं। राम और सीता के विवाह से संबंधित कई सुरीले लोकगीत हैं जिनमें धूमधाम के साथ इनके विवाह और चहल-पहल का सजीव चित्रण है।

भगवान राम के अनन्य भक्त और सेवक हनुमान जनजातियों के महानायक पराक्रमी योद्धा हैं। रामायण में वर्णित वन्य जातियों के बारे में कतिपय विद्वानों के अनुसार वानर का अर्थ बंदर नहीं है। यह शब्द बंदर का सूचक न होकर वनवासी का प्रतीक है। मुख्यत: दक्षिण भारत में निवास करने वाली यह मानव जाति बुद्धिसंपन्न और मानव भाषा बोलने वाली थी, जिसने सीता की खोज और रावण का घमंड चूर करने में सर्वाधिक योगदान किया था।

एक समय था जब विभिन्न जातियों के झंडों पर पशु-पक्षियों आदि के चिन्ह अंंकित रहते थे। जिस जाति के झंडे पर बंदर अंकित था, वह वानर जाति कहलाती थी। यह जनजाति वानर की पूजा करती थी। कई जनजातीय लोग गिद्ध और रीछ (ऋक्ष) आदि की पूजा करते थे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की जनजातियों में उन्हीं नामों के गोत्र आज भी प्रचलित हैं।

राम रेखा धाम, सिमडेगा

हनुमान जी की जन्मस्थली आंजनधाम

फादर कामिल बुल्के ने परमवीर हनुमान की माता अंजना की कथा के कई रूपों का उल्लेख किया है। एक व्यापक प्रचलित कथा के अनुसार मां अंजना ने एक गुफा में हनुमान को जन्म दिया। यह गुफा कहां थी, इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं में भी अंतर है। झारखंड के गुमला जिले (जनजातियों की आबादी 67 प्रतिशत) में एक बहुत पुराना गांव है आंजन।

किंवदंती के अनुसार यह माना जाता है कि यहां हनुमान जी का जन्म हुआ था, उनकी माता अंजना का भी इसी गांव में जन्म हुआ था। झारखंड का यह पश्चिमी-दक्षिणी भाग तथा छत्तीसगढ़ का पूर्वी भाग मिलकर रामायण में वर्णित दंडकारण्य क्षेत्र था। रांची डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (1970) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि इस स्थल को हनुमान जी का जन्मस्थल माना गया है। यहां बड़ी संख्या में शिवलिंग पाए गए हैं जिससे संकेत मिलता है कि यहां कभी प्राचीन समय में कई शिव मंदिर थे।

बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह आंजन गांव आए थे और यहां जो हनुमान यज्ञ हुआ था, उसमें उन्होंने हिस्सा लिया था। पुराने जमाने से यहां हनुमान जी की उपासना होती आ रही है। किसी समय यह पूरा क्षेत्र बड़ा दुर्गम और घनघोर जंगलों से घिरा हुआ था, लेकिन अब यहां पहुंचना आसान हो गया है। आंजन गांव जाने के लिए पक्की सड़क बन गई है। अब पहले वाले जंगल भी नहीं रहे।

आंजन गांव से चार किलोमीटर दूर पहाड़ी श्रृंखला में एक गुफा है जिसे अंजनी गुफा कहते हैं। गुफा द्वार पर अंजना माता की एक प्रस्तर प्रतिमा है। गुफा के पास एक जलकुंड है, जिसे ‘राम गंगा’ कहते हैं। मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शनार्थ जुटते हैं। रामनवमी पर यहां मेला भी आयोजित होता है। जनजाति पुजारी अंजना माता और हनुमान जी की पूजा के पश्चात् प्रार्थना करते हैं।

रामरेखा धाम

इस क्षेत्र में एक और तीर्थधाम है रामरेखा। यह पड़ोसी जिले सिमडेगा (जनजातियों की आबादी 70 प्रतिशत) में स्थित है। किंवदंती के अनुसार श्रीराम ने वनवास के दौरान सीता माता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट से दंडकारण्य जाने के क्रम में वर्षा ऋतु में यहीं चातुर्मास बिताया था। रामरेखा धाम विंध्य पर्वत श्रृंखला की एक पहाड़ी पर स्थित है।

यहां गुफा के निकट एक जलकुंड है जिसे ‘राम गंगा’ कहते हैं। रामरेखा धाम गुफाओं का धाम है। मुख्य मंदिर में शिवलिंग स्थापित है, जिसके बारे में मान्यता है कि इसे स्वयं श्रीराम ने स्थापित किया था। तीर्थयात्री यहां कुंड में स्नान करके पूजा-अर्चना करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहां एक बड़ा मेला लगता है। कड़कड़ाती ठंड के बावजूद इस मेले में हजारों की भीड़ रहती है।

रामनवमी के अवसर पर रांची और झारखंड के कई अन्य नगरों में महावीरी झंडों के साथ विशाल जुलूस निकलते हैं। इन शोभायात्राओं में जनजातीय समाज के लोग भी पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ शामिल रहते हैं। दिलचस्प बात यह कि सभी झंडों पर हनुमान जी का चित्र रहता है और लोग ‘बजरंग बली की जय’ के नारे लगाते हुए चलते हैं। झारखंड की अलग-अलग जनजातियां सदियों पूर्व से हनुमान जी की उपासना करती आ रही हैं। यहां जगह-जगह महावीर मंदिर और महावीर मंडप स्थापित हैं।

जनजातीय समाज को बरगलाने का प्रयास

अयोध्या जाने वाले जनजातीय समाज के संतों ने कहा है कि जनजातीय समाज में भ्रम फैलाया जा रहा है कि हम हिंदू नहीं हैं। पिछले कुछ अरसे से एक अभियान चलाया जा रहा है कि जनजातियों को जनगणना में ‘हिंदू’ या ‘अन्य’ में शामिल न किया जाए। इसके बदले इस अभियान के सूत्र-संचालकों ने अपने लिए ‘सरना धर्म कोड’ की मांग की है; जबकि इस मांग के विरोधियों का कहना है कि ‘सरना’ तो जनजातियों के पूजा स्थल को कहते हैं। यह किसी पंथ का नाम कैसे हो सकता है। इस अभियान के पीछे ईसाई मिशनरियों का हाथ बताया जाता है। झारखंड के क्रांतिनायक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में ब्रिटिश शासनकाल में जो जनआंदोलन चला था, उसमें कन्वर्जन करने वाले विदेशी ईसाई मिशनरियों का सक्रिय विरोध भी शामिल था।

जनजाति समुदायों के लोग अनादि काल से वनों में निवास करते आए हैं, इसलिए इन्हें वनवासी कहा गया। भले ही आज की स्थिति में कइयों को यह नाम स्वीकार्य नहीं है। वेद-पुराणों में अरण्यवासियों के आख्यान और किस्से भरे पड़े हैं। विज्ञ जनों का कहना है कि वृहद वैदिक समाज ने जनजातियों के अस्तित्व को वर्णव्यवस्था में पांचवें स्वतंत्र अंग के रूप में स्वीकार किया है। इसलिए इन्हें सनातन धर्मावलंबी कहा जा सकता है।

‘सरना धर्म कोड’ अभियान के नेताओं ने 30 दिसंबर, 2023 को अपनी मांग पर दबाव डालने के लिए ‘भारत बंद’ का आह्वान किया। लेकिन केवल झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में इसका मामूली असर देखा गया। दिलचस्प बात यह कि इस अभियान के नेता झारखंड में रजरप्पा में छिन्नमस्तिका मंदिर, देवघर में वैद्यनाथधाम (इसे झारखंडी महादेव भी कहा जाता है) के अलावा पूजा के लिए विंध्यांचल तक पहुंच जाते हैं!

वे दुर्गा पूजा के पंडालों में भी जाते हैं। यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, जो संथाल जनजाति से हैं, झारखंड में राज्यपाल के पद पर रहते हुए वैद्यनाथधाम सहित कई मंदिरों में जाती रही हैं और अब भी देश के कई मंदिरों में जाती हैं। वे एक गहन आस्थावान शिवभक्त हैं।

आज पूरे देश में जब श्री राम के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था का प्रस्फुटन हो रहा है, कुछ विपरीतदर्शी तत्व नकारात्मकता की अंतर्धारा प्रवाहित करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें उन्हें कोई सफलता नहीं मिलने वाली।

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