इंडी गठबंधन के सूत्रधार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खरमास के बाद नया दांव चलने की तैयारी में हैं। इसका मकसद राजनीतिक वजूद स्थापित करने के साथ-साथ जनता का विश्वास हासिल करना है, क्योंकि जातीय जनगणना के नाम पर समाज में उन्माद फैलाने और वैमनस्य पैदा करने की साजिश को जनता पहले ही खारिज कर चुकी है।
बिहार में सियासी हालात तेजी से बदल रहे हैं। एक ओर बेमेल गठबंधन से बनी सरकार पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं, तो दूसरी ओर सरकार के मुखिया नीतीश कुमार की पार्टी का अस्तित्व संकट में घिरता दिख रहा है। प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तो दूर, संयोजक बनने में भी नाकाम रहे इंडी गठबंधन के सूत्रधार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खरमास के बाद नया दांव चलने की तैयारी में हैं। इसका मकसद राजनीतिक वजूद स्थापित करने के साथ-साथ जनता का विश्वास हासिल करना है, क्योंकि जातीय जनगणना के नाम पर समाज में उन्माद फैलाने और वैमनस्य पैदा करने की साजिश को जनता पहले ही खारिज कर चुकी है।
दूसरी ओर, राजनीतिक अस्थिरता, सरकार की उदासीनता और पुलिस-प्रशासन की अकर्मण्यता के चलते राज्य एक बार फिर 1990 के बदनाम दशक की ओर बढ़ रहा है। अपराधियों के हौसले बुलंद होने से जंगलराज की वापसी तय मानी जा रही है। ‘चाचा-भतीजे’ की जोड़ी से आम जनता का भरोसा उठ गया है। कानून-व्यवस्था के अलावा शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र में भी राज्य सरकार की भूमिका सवालों के घेरे में आ चुकी है। एक जिम्मेदार विपक्ष होने के नाते भाजपा इन सारी गतिविधियों पर बारीकी से नजर रखे हुए है।
दबाव को भुनाना चाहते हैं नीतीश
सूबे में सत्ता की सबसे बड़ी सहयोगी राजद के साथ नजदीकियां बढ़ाने के चलते पिछले दिनों नीतीश ने अपनी पार्टी जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह की छुट्टी कर कमान अपने हाथों में ले ली। नीतीश के इस कदम से राजद और कांग्रेस खेमा दबाव में है। इस दबाव को नीतीश अपने पक्ष में भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। नेतृत्व में परिवर्तन के उनके इस फैसले ने एक साथ कई दिशाओं में तीर छोड़ दिए हैं।
पहला, राजद की ओर से मुख्यमंत्री की कुर्सी तेजस्वी यादव को सौंपने की बात को अगले लोकसभा चुनाव तक नेपथ्य में भेज दिया।
दूसरा, इंडी गठबंधन में सीट बंटवारे के समय जदयू की सौदेबाजी भरी दावेदारी को पुख्ता कर दिया।
तीसरा, खुद को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने की तैयारी भी शुरू कर दी। झारखंड, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अपने बलबूते रैली करने की घोषणा के यही मायने हैं। इसके लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद नीतीश ने दिल्ली में पार्टी सांसदों के अलावा अन्य राज्यों के प्रमुख जदयू नेताओं से इस मामले में फीडबैक भी लिया था।
जन आकांक्षाओं का गला घोंटा
जदयू में नेतृत्व परिवर्तन के मसले को भाजपा उनका अंदरूनी मामला मानती है, लेकिन इस बदलाव के पीछे नीतीश की महत्वाकांक्षा, अनैतिक गठजोड़ और जनादेश के अपमान जैसे तथ्यों को इंगित करना नहीं भूलती है। पार्टी का स्पष्ट तौर पर कहना है कि इन सब परिस्थितियों के लिए खुद नीतीश कुमार जिम्मेदार हैं। उन्होंने जनता की आकांक्षाओं का गला घोंट कर भाजपा की पीठ में छुरा घोंपा और जंगलराज का पर्याय रहे राजद के साथ मिलकर सरकार बना ली। फिर केंद्र की राशि से राज्य में हो रहे विकास कार्यों का सेहरा अपने माथे बांध लिया। जनता अब समझ चुकी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटी वाली गाड़ी से ही राज्य का विकास संभव है। सूबे में केंद्र की विकास योजनाओं के लाभार्थियों के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं।
बिहार में अब तक गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 8.71 करोड़, प्रधानमंत्री आवास योजना से 53.49 लाख लोग और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत 81 लाख किसान लाभान्वित हो चुके हैं। उज्ज्वला योजना के तहत अब तक 1.2 करोड़ से ज्यादा गैस कनेक्शन बांटे गए हैं। इसके अलावा, जन धन योजना के अंतर्गत 5.38 करोड़ बैंक खाते खोले गए हैं और स्वच्छ भारत मिशन के तहत 1.61 करोड़ शौचालय बनाए गए हैं।
रणनीति का इंडी गठबंधन पर होगा असर
राज्य के मुखिया की अगली रणनीति जो भी हो, उसके नतीजों से इंडी गठबंधन के अलावा उसके प्रमुख घटक दल राजद और कांग्रेस अछूते नहीं रह सकते। दोनों दलों के अग्रिम पंक्ति के नेता संभावित नफे-नुकसान का आकलन करने के बाद अब फूंक-फूंक कर बयान दे रहे हैं। राजनीति के मंझे खिलाड़ी लालू प्रसाद ने भी मान लिया है कि नीतीश के इस फैसले पर कुछ बोलने से बेहतर चुप्पी साध लेना है।
राजद ने तो अपनी पार्टी के विधान पार्षद सुनील सिंह, पूर्व मंत्री सुधाकर सिंह जैसे बड़बोले नेताओं को पार्टी लाइन से अलग बयान नहीं देने की सख्त हिदायत भी दे दी है। फिलहाल राजद का ध्यान दरक रहे ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण को दुरुस्त करने पर है। वोट बैंक की राजनीति और तुष्टीकरण के लिए वह सनातन धर्म का अपमान करने से भी नहीं चूक रही है। कभी हिन्दू धर्म ग्रंथों तो कभी देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करवा कर राजद नेतृत्व समाज में विद्वेष पैदा करने की कोशिश कर रहा है।
बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं को नजरंदाज कर तुष्टीकरण की राह पर चलना उसके लिए भारी पड़ेगा या फायदेमंद साबित होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। कांग्रेस की बात की जाए, तो बिहार में उसके सामने पहचान का संकट खड़ा हो गया है। राजद की पिछलग्गू पार्टी का ठप्पा लगने के बाद से वह वाचक नहीं, श्रोता की भूमिका में आ चुकी है। वाम दलों की स्थिति भी कमोबेश याचक वाली हो गई है।
बीच सड़क पर रौंदी जा रही वर्दी
सियासी उठापटक से इतर, थोड़ी जमीनी हकीकत पर गौर करें। सूबे में अंधेरगर्दी का आलम यह है कि आपराधिक तत्व बीच सड़क पर वर्दी में तैनात दारोगा को भी गाड़ी से रौंदकर मौत की नींद सुला दे रहे हैं। जमुई में कुछ दिन पहले सड़क से गाड़ी हटाने के चलते पुलिस के जवान की पिटाई कर दी गई। अवैध कमाई का बड़ा जरिया होने की वजह से शराब माफिया और बालू माफिया सक्रिय हैं।
कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने की दिशा में सरकार कुछ ठोस और त्वरित कार्रवाई करेगी, इसको लेकर आशंकाएं भी हैं। इसका कारण है कि राज्य सरकार ऐसे सहयोगी की बैसाखी पर टिकी हुई है जिसका अतीत काफी दागदार रहा है। राजद के शासनकाल और पलायन के उस दौर को याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
बीते कुछ माह की घटनाओं पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि अपराधियों पर नकेल कसने में राज्य सरकार पूरी तरह से विफल साबित हुई है। बीते साल अक्तूबर तक के आंकड़ों पर गौर करें, तो राज्य में पिछले दस महीने में कुल 2418 लोगों की हत्या कर दी गई यानी रोज तकरीबन आठ लोग मारे जा रहे हैं। ये आंकड़े किसी स्वयंसेवी संस्था के नहीं, बल्कि राज्य पुलिस मुख्यालय के हैं।
शिक्षा विभाग की राजभवन से तकरार
शिक्षा की स्थिति में भी फिलहाल कोई सुधार होता नहीं दिख रहा है। वैसे राज्य सरकार ने इस बार बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) के माध्यम से शिक्षकों की नियुक्ति की है, लेकिन पूरी नियुक्ति प्रक्रिया सवालों के घेरे में है। शिक्षकों के लिए असंवैधानिक फरमान जारी करने के चलते शिक्षा विभाग की राजभवन से कई बार तकरार हो चुकी है, जो अब भी जारी है। आलम यह है कि पिछले दो महीने में 150 से अधिक सरकारी शिक्षक इस्तीफा दे चुके हैं। रोजगार का आंकड़ा बढ़ाने के लिए वैसे लोगों को नियुक्ति पत्र दिया जा रहा है, जो एक साल पहले से नौकरी कर रहे हैं।
मुफ्त जांच की जगह निजी लैब में भुगतान
जहां तक स्वास्थ्य महकमे का सवाल है, तो राज्य के सबसे बड़े अस्पताल पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) का एक उदाहरण सरकार की पोल खोलने के लिए काफी है। पीएमसीएच के मेडिसिन विभाग की एंडोस्कोपी मशीन मामूली खराबी की वजह से तकरीबन 20 दिनों से बंद है। सरकार की ओर से मुफ्त जांच की सुविधा होने के बावजूद मरीजों को एंडोस्कोपी के लिए निजी लैब में जाना पड़ रहा है और 2500 से 3000 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं।
चावल जमा होने की प्रक्रिया लंबित
खेती-किसानी की दिशा में भी राज्य सरकार की उदासीनता लोगों को साल रही है। 15 फरवरी धान खरीद की आखिरी तारीख है लेकिन पटना समेत 11 जिलों में खाद्य निगम के गोदामों में चावल जमा होने की प्रक्रिया तक शुरू नहीं हुई है, जबकि उत्तर बिहार में बीते एक नवंबर और दक्षिण बिहार में 15 नवंबर से धान की खरीद शुरू है।
लोकसभा चुनाव में होगी असली परीक्षा
बहरहाल, बिहार का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। ताजा परिस्थितियों के अनुसार डबल इंजन की सरकार में पटरी पर लौटी गाड़ी एक व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते फिर बेपटरी हो चुकी है। कुर्सी के प्रति आसक्ति किसी शख्स को कहां से कहां पहुंचा देती है, इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं नीतीश कुमार।
सुशासन बाबू की कड़क और बेदाग छवि कब, कैसे और क्यों बदल गई, यह उनसे बेहतर कोई नहीं जान सकता। बिहार सहित देश भर में राममय हो चुके वातावरण में नीतीश की रणनीति उनके वजूद और इंडी गठबंधन के लिए कहां तक कारगर होगी, उसकी असली परीक्षा तो आगामी लोकसभा चुनाव में ही होगी।
(लेखक बिहार में भाजपा के विधायक और उत्तर प्रदेश के सह प्रभारी हैं)
टिप्पणियाँ