इसे लापरवाही कहें या फिर अनदेखी कि देश में आज भी एक नवाब की खातिरदारी सरकारी खजाने से हो रही है। उल्लेखनीय है कि सात दशक पहले लोकतंत्र लागू होने के साथ देश में निजामों का दौर खत्म हो गया था। इसके बावजूद आरकोट के नवाब यानी प्रिंस ऑफ आरकोट की पदवी बरकरार है। यही नहीं, उनके महल की देखरेख के लिए सालाना 2.74 करोड़ रुपए सरकार देती है। सरकारी पैसे के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए दायर एक याचिका पर सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जनवरी को नवाब मोहम्मद अब्दुल अली, केंद्र सरकार और तमिलनाडु के मुख्य सचिव को नोटिस जारी किया है।
न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ के समक्ष याचिकाकर्ता एस.कुमारवेलु के वकील विष्णु शंकर जैन ने दलीलें प्रस्तुत कीं। विष्णु शंकर जैन ने सरकार द्वारा प्रिंस ऑफ आरकोट की उपाधि (टाइटल) बरकरार रखने और सरकारी धन को ‘आमीर महल’ के रखरखाव पर खर्च किए जाने के बारे में बताया। पीठ ने भी आश्चर्य व्यक्त किया कि ऐसा कैसे हो सकता है, क्योंकि अनुच्छेद-18 में सेना या अकादमिक उपाधियों को छोड़कर बाकी उपाधियों को समाप्त कर दिया गया था। इसके बावजूद 1952 में प्रिंस ऑफ आरकोट का टाइटल सरकार की ओर से दिया गया और लगातार कई करोड़ रुपये का सालाना खर्च भी उठाया जा रहा है। पीठ ने वकील जैन की दलीलों से सहमति जताते हुए केंद्र सरकार समेत सभी पक्षकारों को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में जवाब मांगा है। याचिका के अनुसार देश के स्वतंत्र होने और भारतीय संविधान लागू होने के बावजूद प्रिंस ऑफ आरकोट को वंशानुगत उपाधि दिया जाना संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के खिलाफ है। प्रिंस ऑफ आरकोट के महल के रखरखाव पर सालाना 2.74 करोड़ रुपए से ज्यादा सरकारी धन खर्च किया जाना भी गैरकानूनी है।
बता दें कि याचिकाकर्ता कुमारवेलु ने इस मामले को पहले मद्रास हाईकोर्ट में उठाया था, लेकिन वहां उनकी याचिका खारिज हो गई। इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दाखिल की है।
विष्णु शंकर जैन के अनुसार अंग्रेजी हुकूमत में एक पत्र जारी कर किसी परिवार या व्यक्ति को उपाधि दी जाती थी, लेकिन भारत में संविधान लागू होने के बाद ऐसा नहीं किया जा सकता है। उन्होंने सवाल किया है कि क्या संविधान लागू होने के बाद किसी का ‘स्पेशल स्टेटस’ और वंशानुगत उपाधि संविधान के भाग तीन के अनुसार जारी रह सकता है! क्या संविधान का अनुच्छेद 14,15 और 16 प्रिंस ऑफ आरकोट का टाइटल जारी रखने और राजमहल की देखरेख करने व पेंशन देने की इजाजत देता है? दायर याचिका में ऐसे तमाम आधारों पर समुचित आदेश जारी करने की मांग की गई है।
याचिका में कहा गया है कि अंग्रेजी हुकूमत ने 2 अगस्त, 1870 को प्रिंस ऑफ आरकोट को उपाधि देने के लिए पत्र जारी किया था। याचिकाकर्ता का कहना है कि 1952 में जब कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं रहा तो भारत सरकार ने नए सिरे से 23-24 अक्तूबर, 1952 को प्रिंस ऑफ आरकोट के टाइटल को मान्यता प्रदान कर दी। यह संविधान के अनुच्छेद 18 का उल्लंघन है। 26वें संविधान संशोधन के जरिए 7 सितंबर, 1979 को प्रिवि पर्स (राजाओं को मिलने वाली पेंशन और ग्रांट) समाप्त कर दिया गया, लेकिन आरकोट के लिए यह जारी रखा गया। यह संविधान के विरुद्ध है।
याचिका के अनुसार प्रिंस ऑफ आरकोट का टाइटल जारी रखा जाना और महल का रखरखाव सरकारी खर्चे से करना एक बड़ी खामी है। संविधान के अनुच्छेद 372(1) के तहत लागू कानून में वही लागू होगा, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 व 18 सहित भाग तीन के प्रावधानों के अनुकूल होगा। इसलिए आरकोट के नवाब को टाइटल, सुविधाएं और पैसा देना बंद किया जाना चाहिए।
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