मीडिया की सीमाएं उसकी भाषा को प्रभावित करती रही हैं। वाचिक परंपरा के दौर में पद्यात्मक अभिव्यक्ति का विशेष महत्व था और कम शब्दों का प्रयोग श्रेयस्कर था। भाषा अपेक्षाकृत परिमार्जित होती थी, क्योंकि अभिव्यक्ति के दोनों छोरों पर मौजूद व्यक्ति सुशिक्षित होते थे।
हमने देखा है कि हर दौर के मीडिया की सीमाएं उसकी भाषा को प्रभावित करती रही हैं। वाचिक परंपरा के दौर में पद्यात्मक अभिव्यक्ति का विशेष महत्व था और कम शब्दों का प्रयोग श्रेयस्कर था। भाषा अपेक्षाकृत परिमार्जित होती थी, क्योंकि अभिव्यक्ति के दोनों छोरों पर मौजूद व्यक्ति सुशिक्षित होते थे। शास्त्रों को कंठस्थ कर दूसरों तक पहुंचाना एक अनिवार्यता थी। गेय तत्व के कारण पद्य को वरीयता मिलती थी, जो ज्ञान-प्रसारक और ज्ञान-प्राप्तकर्ता, दोनों को ही अपील करती थी। पद्य में कुछ हद तक कम शब्दों में बड़ी बात कहने की रचनात्मक स्वतंत्रता हुआ करती थी, फिर भले ही आप उनकी कितनी भी विस्तृत टीकाएं कर लें।
वहीं वाचिक परंपरा में आडियन्स का दायरा बहुत सीमित था। बाद के माध्यमों में वह बढ़ता चला गया। टेलीविजन और वीडियो के दौर में संचार माध्यमों का दायरा समाज के अंतिम छोर पर मौजूद व्यक्ति तक पहुंचा, इसलिए भाषा की सरलता महत्वपूर्ण हो गई। टेलीविजन के विज्ञापनों की भाषा में इसके बड़े सुंदर उदाहरण दिखाई देते हैं। ‘मेन्टोस- दिमाग की बत्ती जला दे’, ‘रिन-सफेदी की चमकार’, ‘लाइफबॉय है जहां, तंदुरुस्ती है वहां’, ‘ठंडा मतलब कोका कोला’, ‘कुर्रम कर्रम- स्वाद स्वाद में लज्जत- लिज्जत पापड़’, ‘मेलोडी खाओ खुद जान जाओ’ इत्यादि।
इधर, नया मीडिया भाषा के संदर्भ में और भी नए किस्म के तथा अपारंपरिक प्रयोग कर रहा है। इनमें से बहुत सारे प्रयोग हमें चौंकाते हैं और अनेक मन को गुदगुदाते हैं। ट्विटर, फेसबुक और टिकटॉक जैसे माध्यम तथा यूट्यूब और इन्स्टाग्राम के रील्स दिखाते हैं कि यहां कम से कम शब्दों तथा कम से कम समय में बात कहने की क्षमता बड़े मायने रखती है।
इंटरनेट ने सूचनाओं को खोजने और ग्रहण करने के तरीके बदल दिए हैं और हमारे पढ़ने-लिखने की प्रकृति में ठोस बदलाव किया है। निकोलस कार ने लिखा है कि इंटरनेट हमारी स्मृति और दिमागों को सीमित करता चला जा रहा है।
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह यहां कोई चौकीदार नहीं है- न तो कोई वर्ग, न कोई संस्थान। सूचनाएं पाने वाला सूचनाएं देने का भी हक रखता है। वास्तव में सब मिलकर ही तो सोशल मीडिया को शक्ल और आकार देते हैं। कन्टेन्ट प्रदाताओं की इस विविधता को इंटरनेट की भाषा में भी देखा जा सकता है। यहां परिनिष्ठित भाषा भी दिखेगी तो आम लोगों की भाषा भी, हमारी बोलियां भी और सबकी खिचड़ी भी। यहां श्रेष्ठ और स्तरीय सामग्री के साथ-साथ जमीनी सूचनाओं का भी स्वागत है, जिन्हें कोई भी दे सकता है।
आज मीडिया न्यूनतम शब्दों के प्रयोग को महत्व देता है और वह आपकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का एक विशिष्ट पहलू बन रहा है। वजह? यहां कन्टेन्ट को ग्रहण करने वाले लोगों के पास समय का अभाव है। इंटरनेट का प्रयोक्ता हमेशा ही जल्दी में रहता है, क्योंकि उसे लुभाने और बुलाने के लिए अनगिनत किस्म के कन्टेन्ट उपलब्ध हैं, जो कभी पॉप-अप विंडोज, तो कभी एडसेन्स के विज्ञापनों और कभी मजेदार वीडियो तथा मीम्स के जरिए उसका ध्यान खींचते हैं। किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं के पाठक की तरह टिककर गहरा ज्ञान ग्रहण करने का संयम इंटरनेट पर कम ही दिखाई देता है।
नया मीडिया सबके लिए है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह यहां कोई चौकीदार नहीं है- न तो कोई वर्ग, न कोई संस्थान। सूचनाएं पाने वाला सूचनाएं देने का भी हक रखता है। वास्तव में सब मिलकर ही तो सोशल मीडिया को शक्ल और आकार देते हैं। कन्टेन्ट प्रदाताओं की इस विविधता को इंटरनेट की भाषा में भी देखा जा सकता है। यहां परिनिष्ठित भाषा भी दिखेगी तो आम लोगों की भाषा भी, हमारी बोलियां भी और सबकी खिचड़ी भी। यहां श्रेष्ठ और स्तरीय सामग्री के साथ-साथ जमीनी सूचनाओं का भी स्वागत है, जिन्हें कोई भी दे सकता है।
अक्सर नए मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियो, रील्स, मीम्स और पोस्ट बहुत सामान्य पृष्ठभूमि से आते हैं- व्यक्तियों के लिहाज से भी, भाषा के लिहाज से भी और परिवेश के लिहाज से भी। भाषा की ये विविध धाराएं इंटरनेट के महासमुद्र की हिंदी, अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में जा मिलती हैं और अपना ली जाती हैं। इसका अर्थ यह कि कोई भी व्यक्ति भाषा के विकास और विस्तार की इस अनवरत प्रक्रिया में हाथ बंटा सकता है।
(लेखक माइक्रोसॉफ्ट एशिया में डेवलपर मार्केटिंग के प्रमुख हैं)
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