भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम-2023 क्रमश: भारतीय दंड संहिता-1860, दंड प्रक्रिया संहिता-1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 का स्थान लेंगे। ये कानून समाज की चुनौतियों का समाधान करते हैं और संविधान की वास्तविक भावना के अनुरूप हैं।
संविधान अपनाते समय स्वतंत्र भारत की प्रतिबद्धताएं क्या थीं? आज 74 वर्ष से भी अधिक समय हो गया। 26 नवंबर, 1949 को हमने भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करने का लक्ष्य रखते हुए, गंभीरता से संकल्प लेकर, अधिनियमित करके, अंगीकार करते हुए स्वयं को संविधान सौंपा था। संविधान का निर्माण इस तरह किया गया था, जिससे सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक-राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास व पूजा की स्वतंत्रता, स्थिति और अवसर की समानता सुनिश्चित हो तथा व्यक्ति की गरिमा व राष्ट्र की एकता को सुनिश्चित किया जा सके।
बाद में प्रस्तावना में संशोधन कर विविधता में एकता की भारत की अनूठी विशेषता को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ शब्द जोड़े गए। हाल ही में भारत ने इसी प्रकार आपराधिक न्याय सुधार करते हुए महिलाओं, बच्चों और राष्ट्र के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए कड़े दंड के प्रावधान को प्राथमिकता दी है। ये संशोधन संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त प्रतिबद्धताओं के अनुरूप और औपनिवेशिक युग के कानूनों से हटकर हैं, जिसमें मुख्य ध्यान आम नागरिकों पर केंद्रित नहीं था।
न्यायशास्त्र का एक स्थापित सिद्धांत है कि कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं, जो बदलते सामाजिक-आर्थिक रुझानों का जवाब देने के लिए विकसित होने चाहिए। इस दृष्टि से तीनों नए आपराधिक कानून न केवल बहुपतीक्षित थे, बल्कि बहुत जरूरी भी थे। यह स्वागत योग्य कदम है। भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम-2023 क्रमश: भारतीय दंड संहिता-1860, दंड प्रक्रिया संहिता-1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 का स्थान लेंगे। ये कानून समाज की चुनौतियों का समाधान करते हैं और संविधान की वास्तविक भावना के अनुरूप हैं।
वास्तव में नए कानून निष्पक्ष और सामंजस्यपूर्ण समाज सुनिश्चित करने के लिए तैयार की गई सामाजिक इंजीनियरिंग के उपकरण हैं। यह ऐसी आवश्यकता है, जिस पर बहुत पहले ही ध्यान दिया जाना चाहिए था। ये कानून न्याय, समानता और निवारण के स्तंभों को मजबूत करते हैं। इनसे प्रक्रियात्मक कानून में बदलाव के साथ विशिष्ट समयसीमा में त्वरित सुनवाई की सुविधा मिलेगी। ये प्रावधान समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं, न कि प्रतिगामी। इस कारण समय के साथ ये कानून समाज में संतुलन और सद्भाव स्थापित करते हुए न्याय वितरण प्रणाली के प्रति हितधारकों के दृष्टिकोण को बदल देंगे। इन कानूनों से न्याय में तेजी लाने के उद्देश्य से पुलिस स्टेशनों, अदालतों, जेलों, प्रयोगशालाओं, अभियोजक के कार्यालयों व सचिवालय के बीच निर्बाध संपर्क सुनिश्चित होती है।
भारतीय न्याय संहिता-2023
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का मसौदा 1834 में तैयार किया गया था। इसे भारत के उस संविधान के अनुरूप कानून नहीं माना जा सकता है, जिसे आईपीसी लागू होने के काफी बाद 1949 में अपनाया गया था। स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी आईपीसी के कुछ प्रावधान जैसे-राजद्रोह, अस्तित्व में रहे, जो स्पष्ट रूप से स्वतंत्रता के बाद भी उपनिवेशवाद की अदृश्य उपस्थिति को दर्शाते हैं।
आपराधिक न्याय सुधारों की सिफारिश करने वाली मलिमथ समिति की रिपोर्ट ने व्यापक संशोधन का अवसर दिया था, लेकिन उसे दो दशक से भी अधिक समय तक नजरअंदाज किया जाता रहा। ऐसे में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से हटकर सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप कानून लाने के लिए विधायिका का स्वागत किया जाना चाहिए।
आईपीसी में 511 धाराएं थीं, पर भारतीय न्याय संहिता-2023 में 358 धाराएं ही हैं। इसमें 20 नए कृत्यों को अपराध माना गया है, 33 अपराधों के लिए सजा बढ़ाई गई है, 83 अपराधों के लिए जुर्माना बढ़ाया गया, 23 अपराधों के लिए अनिवार्य न्यूनतम दंड व 6 अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा दंड का प्रावधान है।
भारतीय न्याय संहिता-2023 में आतंकवाद को अपराध की श्रेणी में रखने के साथ इसे देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा या आर्थिक सुरक्षा को खतरे में डालने या लोगों में आतंक पैदा करने के इरादे से किए गए कृत्य के रूप में परिभाषित किया गया है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है। अपहरण, जबरन वसूली और साइबर अपराध आदि को भी इसमें शामिल किया गया है।
एक उल्लेखनीय बदलाव देशद्रोह की जगह नया अपराध लाना है, जो देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालता हो। एक लोकतांत्रिक देश में, जहां संविधान संप्रभु है और प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार प्राप्त है, उसमें ‘राजद्रोह’ की जगह ‘देशद्रोह’ शब्द का प्रयोग करने से कानून अपना लगता है। नया कानून उस बदले हुए समाज के लिए उपयुक्त है, जिसमें प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और न्याय देने की प्रणाली इससे परे नहीं रह सकती।
नए कानून के तहत अब यौन उत्पीड़न पीड़ित/पीड़िता का बयान आडियो और वीडियो में रिकॉर्ड करना अनिवार्य है। जीरो एफआईआर का पंजीकरण, जिसमें पीड़ितों को किसी भी पुलिस स्टेशन से संपर्क करने की अनुमति है और 24 घंटे के भीतर संबंधित क्षेत्र के पुलिस स्टेशन में एफआईआर स्थानांतरित करने जैसे प्रावधान लोगों की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
इसके अतिरिक्त, छोटे अपराधों के लिए कारावास के विकल्प के रूप में ‘सामुदायिक सेवा’ का प्रावधान और दुर्घटना के बाद यदि अपराधी पीड़ित को अस्पताल या पुलिस के पास स्वयं ले जाता है तो ‘हिट एंड रन’ के लिए कम सजा का प्रावधान उल्लेखनीय पहलू हैं। भारतीय न्याय संहिता-2023 के प्रावधान समाज में सुरक्षा की भावना पैदा करने के साथ हमारी विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान व गौरव को संरक्षित करते हुए हर अपराध के लिए अपराधियों से यथोचित व्यवहार करते हैं।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी)-1973 में 484 धाराएं थीं। सीआरपीसी का स्थान लेने वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 में 531 धाराएं हैं। इसमें 177 प्रावधान बदलने के साथ 9 नई धाराएं और 39 नई उपधाराएं जोड़ी गई हैं। नए कानून में 44 नए प्रावधान और स्पष्टीकरण शामिल के साथ 35 अनुभागों में समयसीमा जोड़ी गई है तथा 35 स्थानों पर आडियो-वीडियो के प्रावधान शामिल किए गए हैं। साथ ही, न्यूनतम 7 वर्ष कैद की सजा वाले अपराधों के लिए फॉरेंसिक जांच अनिवार्य की गई है। अब फॉरेंसिक विशेषज्ञ साथ्य इकट्ठा करने व प्रक्रिया को रिकॉर्ड करने के लिए अपराध स्थलों का दौरा करेंगे। मेडिकल परीक्षक को यौन उत्पीड़न के शिकार व्यक्ति की मेडिकल जांच रिपोर्ट 7 दिनों के भीतर जांच अधिकारी को भेजनी होगी।
नए कानून के तहत किसी घोषित अपराधी पर मुकदमा चलाया जा सकता है। यदि अभियोजन से बचने के लिए अपराधी फरार हो गया और तत्काल उसकी गिरफ्तारी की कोई संभावना नहीं है, तो उसकी अनुपस्थिति में फैसला सुनाया जा सकता है। पूछताछ या कानूनी प्रक्रिया के लिए उंगलियों के निशान, आवाज के नमूने और हस्ताक्षर या लिखावट के नमूने एकत्र किए जा सकते हैं। ऐसे व्यक्ति से भी नमूने लिए जा सकते हैं, जिसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।
नए कानूनों में दया याचिकाओं के लिए समयसीमा, गवाहों की सुरक्षा के लिए एक योजना, बयान दर्ज करने और साक्ष्य एकत्र करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की अनुमति जैसी नई अवधारणाओं के प्रावधान किए गए हैं। नए कानून में कई प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के लिए सख्त समयसीमा का प्रावधान किया गया है। जैसे-पुलिस को पहली सुनवाई के 7 दिनों के भीतर अदालत में चालान प्रस्तुत करना होगा। आरोपपत्र दाखिल करने के 90 दिनों के भीतर जांच समाप्त होनी चाहिए। सुरक्षित रखे गए निर्णयों को 30 दिनों के भीतर सुनाया जाना आवश्यक है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये सभी सुधार बहुत आवश्यक थे। ये कानून अभी भले ही किसी को अवास्तविक या अव्यवहारिक लगें, लेकिन समय के साथ इनके कारण न्याय देने की प्रणाली में सुधार होगा और वांछित परिणाम दिखेंगे।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम-2023
भारतीय साक्ष्य अधिनियम-2023 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम (आईईए)-1872 के अधिकांश प्रावधानों को रखा गया है, जिनमें स्वीकारोक्ति, तथ्यों की प्रासंगिकता और सबूत का दायित्व जैसे प्रावधान शामिल हैं। नए कानून में 24 प्रावधान बदले गए हैं तथा 167 की बजाए 170 प्रावधान किए गए हैं। दो नए प्रावधान और 6 उप-प्रावधान भी जोड़े गए हैं। इसके अलावा, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को दस्तावेजों की श्रेणी में रखा गया है और पूरी सुनवाई इलेक्ट्रॉनिक तरीके से करने की अनुमति दी गई है।
साथ ही परीक्षण, जांच या पूछताछ के लिए इलेक्ट्रॉनिक संचार उपकरणों को पेश करने की अनुमति दी गई है, यदि उनमें डिजिटल साक्ष्य होने की संभावना हो। किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष अपराध की स्वीकारोक्ति मान्य नहीं होगी तथा जब तक मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित न किया जाए, पुलिस हिरासत में दिया गया बयान भी स्वीकार्य नहीं होगा।
नए कानूनों में कई प्रक्रियात्मक जरूरतों के लिए समयसीमा का प्रावधान किया गया है। जैसे-पुलिस को पहली सुनवाई के 7 दिनों के भीतर अदालत में चालान पेश करना होगा
हालांकि जेल में किसी आरोपी व्यक्ति से मिली जानकारी पर किसी तथ्य की खोज होती है, तो उस जानकारी को स्वीकार किया जा सकता है, बशर्ते उसका खोजे गए तथ्य से स्पष्ट संबंध हो। इसी तरह, कोई आरोपी फरार हो या गिरफ्तारी वारंट का जवाब नहीं दे, तो नए कानून में कई लोगों के लिए संयुक्त मुकदमे चलाने का प्रावधान है। उन्हें संयुक्त सुनवाई के रूप में स्वीकार किया जाएगा। नए कानून में बड़ा बदलाव नहीं किया गया है, लेकिन जो बदलाव हुए हैं, वे वर्तमान समाज की जरूरतों के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं और समयसीमा में प्रभावी न्याय में भी बड़ा योगदान देंगे।
इन कानूनों को लाने का औचित्य राष्ट्रीय पहचान के संरक्षण के लक्ष्य में निहित है, क्योंकि इनका उद्देश्य राष्ट्र की अद्वितीय सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व सामाजिक पहचान की रक्षा करना तथा उसे पुष्ट करना है। ये कानून राष्ट्र की स्वायत्तता और संप्रभुता की रक्षा के लिए बनाए गए हैं, जो सुनिश्चित करते हैं कि न्याय वितरण प्रणाली समाज की आवश्यकता के अनुसार और देश के सर्वोत्तम हित में रहे। हम औपनिवेशिक प्रणाली द्वारा शासित न रहें, जो सात दशक से अधिक समय से स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद भी अप्रत्यक्ष रूप से हम पर शासन करती आ रही है।
नए कानून अपराध आधारित दृष्टिकोण की बजाय सामाजिक सुरक्षा परिप्रेक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। इन कानूनों से नागरिकों के बीच एकता और अपनेपन की भावना सुनिश्चित होगी। इन कानूनों में जोर इस पर है कि दंड का निर्धारण हमारे मूल्यों के अनुसार हो, जो हमारे इतिहास पर आधारित हैं और उद्देश्यपरकता की सामूहिक भावना प्रस्तुत करते हैं, जो सामाजिक एकता और स्थिरता में योगदान देते हैं। ये कानून समाज की विशिष्ट आवश्यकताओं और चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
यह सुनिश्चित करते हैं कि कम समय में न्याय दिया जाए और राष्ट्र के सांस्कृतिक ताने-बाने को संरक्षित करते हुए नागरिक सामाजिक रूप से सुरक्षित महसूस करें। यह हमारी विशिष्ट पहचान, संप्रभुता, कल्याण की रक्षा और प्रचार के लिए एक स्वागत योग्य कदम है। ये कानून राष्ट्र के प्रति अपनत्व और लगाव की भावना पैदा करने, हमारी अपनी पहचान को सुदृढ़ करने का संदेश हैं और सामूहिक राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा देते हैं।
राष्ट्रीय पहचान का संरक्षण ही किसी राष्ट्र को परिभाषित करता है। भारतीय सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप भारत के अपने आपराधिक कानूनों को लागू करने का उद्देश्य देश की सांस्कृतिक विरासत व नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ विविध आबादी के बीच एकता और गौरव की भावना को बढ़ावा देते हुए विशिष्ट चुनौतियों का समाधान करता है। हालांकि इस नई प्रणाली की आदत डालने में समय लगेगा, लेकिन मात्र इस कारण कि यह असुविधाजनक है, ऐसा नहीं हो सकता कि हम वापस आत्मगौरव के साथ न जिएं और हमारी सरकार हमारे लिए कानून न बनाए।
मात्र इसलिए इसे नकारा नहीं जा सकता कि जो कुछ दशक पहले किया जाना था, उस समय नहीं किया गया। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे, तो वह स्वतंत्रता कहां रह जाएगी, जब प्रत्येक नागरिक का नियमित जीवन उन कानूनों द्वारा शासित होगा, जिन्हें उस सरकार ने बनाया था, जिससे स्वतंत्रता पाने के लिए हमने लड़ाई लड़ी थी। दुख की बात है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद 74 वर्ष तक हम परोक्ष रूप से ऐसी ही सरकारों द्वारा शासित होते रहे, लेकिन देर आए दुरुस्त आए।
(लेखिका श्रीराम जन्मभूमि मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रामजन्म भूमि न्यास की ओर से अधिवक्ता रही हैं)
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