आज जिस तरह प्रकृति का बेरहमी से दोहन और जाति-धर्म के नाम पर हिंसा के दुष्परिणाम मानव समाज को भोगने पड़ रहे हैं, उससे निजात पाने के तरीके को दत्तात्रेय महाराज सदियों पहले बता चुके हैं। उन्होंने मानव समाज को उस योग की शिक्षा दी, जिसके सहारे ईश्वर से तादात्म्य स्थापित हो सके। उनका मानना था कि ईश्वर और प्रकृति दोनों एक दूसरे में अंतर्भूत हैं। प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण के साथ हिन्दू धर्म के शैव, वैष्णव और शाक्त आदि संप्रदायों में समन्वय स्थापित करने वाले भगवान दत्तात्रेय की शिक्षाएं वर्तमान परिस्थितियों में कहीं अधिक प्रासंगिक हैं।
श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण, शिवपुराण व महाभारत के साथ दत्त संहिता, अवधूत गीता, दत्तात्रेय उपनिषद् और अवधूत उपनिषद्, दत्त महात्म्य ग्रंथ व गुरु चरित आदि ग्रन्थों में दत्तात्रेय महराज के अद्भुत जीवन दर्शन, लोकमंगलकारी शिक्षाओं व महान समन्वयकारी आध्यात्मिक विभूति के रूप में विस्तृत विवरण मिलता है। जहां एक ओर शैवपंथी दत्तात्रेय जी को महादेव शिव का अवतार मानते हैं, वहीं वैष्णव धर्म के अनुयायी इन्हें श्रीहरि विष्णु के छठे अंशावतार के रूप में पूजते हैं। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर नाथ संप्रदाय निर्मित किया था। ‘दत्त महात्म्य’ ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है कि दत्तात्रेय जी ने परशुरामजी को श्रीविद्या- मंत्र प्रदान किया था। शिवपुत्र कार्तिकेय को भी दत्तात्रेय ने अनेक विद्याएं दी थीं। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें श्रेष्ठ राजा बनाने का श्रेय दत्तात्रेय को ही जाता है। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय से ही प्राप्त हुआ था। इसी तरह ‘अवधूत उपनिषद्’ में दत्तात्रेय महराज द्वारा की गई ‘अवधूत’ शब्द की व्याख्या अपने आप में अद्भुत है। इस शब्द के प्रथम अक्षर ‘अ’ का तात्पर्य है- अक्षरत्व को उपलब्ध; यानी जो कभी ‘क्षर’ अर्थात नष्ट न हो।
संसार ‘क्षर’ है जबकि परमात्मा ‘अक्षर’। ‘व’ का अर्थ है वरण। जब व्यक्ति अपने जीवन में परमात्मा को वरण कर लेता है तो प्रज्ञावान बन जाता है। ‘धू’ अक्षर से उनका आशय है संसार को धूलमात्र समझना। अवधूत दत्तात्रेय कहते हैं कि संसार की नश्वरता का यह बोध व्यक्ति को सोते-जागते, उठते-बैठते, जीवन की प्रत्येक गतिविधि में सतत करते रहना चाहिए। आखिरी शब्द ‘त’ का अर्थ है- तत्वमसि। यानी इस संसार के प्रत्येक घटक के कण कण में परमात्मा विद्यमान है।
महायोगी दत्तात्रेय ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समन्वित शक्तिपुंज माने जाते हैं। कई वैदिक मंत्रों के द्रष्टा महायोगी दत्तात्रेय महर्षि अत्रि और महासती अनुसूइया के पुत्र रूप में मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा को अवतरित हुए थे। श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण, शिवपुराण व महाभारत के अलावा दत्त संहिता, अवधूत गीता, दत्तात्रेय उपनिषद्, दत्त महात्म्य ग्रंथ व गुरु चरित आदि ग्रन्थों में दत्तात्रेय महाराज के जीवन दर्शन व लोकमंगलकारी शिक्षाओं का विस्तृत विवरण मिलता है। उन्होंने प्रकृति के 24 घटकों से शिक्षा ग्रहण कर यह संदेश दिया कि जब तक पृथ्वी पर प्रकृति का संतुलन कायम रहेगा, तभी तक मानव व अन्य जीवधारियों का जीवन सुरक्षित रह सकेगा। पहली गुरु ‘पृथ्वी’ ने उनको सहनशीलता व परोपकार की भावना सिखाई। ‘पिंगला वेश्या’ से सबक लिया कि केवल पैसों के लिए नहीं जीना चाहिए। ‘कबूतर’ से सीखा कि ज्यादा मोह दु:ख की वजह होता है। ‘सूर्य’ ने आत्मा की एकरूपता का पाठ पढ़ाया। ‘वायु’ ने सिखाया कि हमें अपने गुणों व अच्छाइयों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। ‘हिरण’से यह सीखा कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में लापरवाह नहीं होना चाहिए। ‘समुद्र’ ने सीख दी कि जीवन के किसी भी उतार-चढ़ाव से डरना नहीं चाहिए। ‘पतंगा’ ने रूप-रंग के आकर्षण और मोह में न फंसने का पाठ पढ़ाया। ‘हाथी’ से सीखा कि तपस्वी पुरुष को कंचन व कामिनी से दूर रहना चाहिए।
‘आकाश’ ने प्रत्येक परिस्थिति में निर्विकार रहना सिखाया और ‘जल’ ने सदैव गतिमान व पवित्र रहना। ‘मधुमक्खी’ ने अपरिग्रह, ‘मछली’ ने स्वाद पर अंकुश रखने, ‘कुरर पक्षी’ ने वस्तु की आसक्ति से दूर रहने और ‘छोटे बच्चे’ ने सदा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना सिखाया। ‘आग’ ने हालातों के मुताबिक में ढल जाने की सीख दी। ‘चन्द्रमा’ ने सिखाया कि आकार के घटने-बढ़ने से गुणधर्म नहीं बदलते। ‘कुमारी कन्या’ से सीखा कि अकेले रहकर भी कुशलता से काम किया जाता है। इसी तरह उन्होंने तीर बनाने वाले ‘शिकारी’ से सतत अभ्यास से मन को वश में रखने की कला, ‘सर्प’ से सदैव चलायमान रहने का गुण, ‘मकड़ी’ से संसार रूपी मायाजाल की वास्तविकता, ‘भृंगी कीड़े’ से मन की एकाग्रता, ‘भौरें’ से सार्थक बात सीखने की कला और ‘अजगर’ से संतोषवृत्ति सीखी थी।
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