बलिदान की याद में 26 दिसंबर का दिन ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह सही मायनों में इन वीर बालकों के बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि है।
गुरू गोबिंद सिंह जी के चार छोटे साहिबजादों के बलिदान की याद में 26 दिसंबर का दिन ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह सही मायनों में इन वीर बालकों के बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि है। दरअसल, इन बालकों ने छोटी उम्र में ही न केवल गजब की वीरता दिखाई, बल्कि धर्म के लिए अपनी जान भी न्योछावर कर दी। वीर बाल दिवस वही दिन है, जब दो साहिबजादों, नौ वर्षीय जोरावर सिंह और छह वर्षीय फतेह सिंह को मुगलों द्वारा दीवार में जिंदा चिनवा दिया गया था। अपनी जान देकर भी उन्होंने अपने धर्म को सुरक्षित रखा।
9 जनवरी, 2022 को गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश पर्व के अवसर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चारों साहिबजादों के साहस और देशभक्ति के साहसिक कार्यों से जन-जन को परिचित कराने तथा प्रेरित करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 26 दिसंबर को यह दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी। उन्होंने उस दौरान कहा था कि माता गुजरी, गुरु गोबिंद सिंह और उनके चारों साहिबजादों की वीरता और आदर्शों ने लाखों लोगों को ताकत दी, जिन्होंने कभी भी अन्याय के आगे सिर नहीं झुकाया एवं समावेशी और सौहार्दपूर्ण विश्व की कल्पना की। गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों साहिबजादों ने अन्याय के आगे सिर झुकाने के बजाए अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए हंसते-हंसते अपना बलिदान देकर अपनी वीरता और अपने आदर्शों से ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए, जो आज भी हर किसी के लिए अनुकरणीय हैं।
गुरु गोबिंद सिंह ने देशवासियों को अपने धर्म के प्रति जागरूक होने तथा कन्वर्जन न करने के लिए प्रेरित करते हुए मुगलों के खिलाफ लड़ाई में बहुत अहम भूमिका निभाई थी। गुरु गोबिंद सिंह और उनका पूरा परिवार सिख मत का प्रतीक था, जिन्होंने सिख पंथ को आगे बढ़ाने का दायित्व अपने हाथों में लिया था। उनका एक ही प्रण था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वे लोगों को कन्वर्जन नहीं करने देंगे और मुगलों के खिलाफ एकता से लड़ेंगे।
यही कारण था कि मुगलों द्वारा गुरु गोबिंद सिंह और उनके परिवार को अनेक कष्ट दिए गए। उनके दो बड़े बेटों अजीत सिंह और जुझार सिंह को उनके सामने ही मार डाला गया और छोटे बेटों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को जिंदा दीवार में चिनवा दिया गया, लेकिन गुरुजी ने सिख पंथ छोड़कर मुगल बनना कभी स्वीकार नहीं किया। सिखों के 10वें गुरु और उनके चारों साहिबजादों की महानता इसी से स्पष्ट पारिलक्षित होती रही है कि इन महान हस्तियों ने धर्म के महान सिद्धांतों से विचलित होने के बजाए बेहद कष्टदायक मौत को चुना। गुरु गोबिंद सिंह तथा उनके चारों पुत्रों की वीरता ने देश के लोगों को प्रेरित किया, जिनके हृदय में एक ही भाव था-
नहीं हम झुक नहीं सकते, नहीं हम रुक नहीं सकते।
हमें निज देश प्यारा है, हमें निज पंथ प्यारा है।
पिता दशमेश प्यारा है, श्री गुरु ग्रंथ प्यारा है।
20 दिसंबर, 1704 को मुगल सेना द्वारा अचानक आक्रमण किए जाने पर गुरु गोबिंद सिंह को पूरे परिवार के साथ कड़कड़ाती ठंड में आनंदपुर साहिब किला छोड़ना पड़ा था। किले को छोड़कर जब वे सरसा नदी को पार कर रहे थे तो नदी में पानी के तेज बहाव के कारण उनके परिवार के सदस्य एक-दूसरे से बिछुड़ गए। उनके दोनों बड़े बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह उनके साथ रह गए और चमकौर पहुंच गए, जबकि उनकी माता गुजरी तथा दोनों छोटे सुपुत्र जोरावर सिंह और फतेह सिंह अलग हो गए, जिनके साथ गुरु गोबिंद सिंह का निजी सेवक गंगू था। गंगू माता गुजरी और दोनों साहिबजादों को उनके परिवार से मिलाने का भरोसा देकर अपने गांव सहेड़ी ले गया और चंद सोने की मोहरों के लालच में इसकी खबर सरहिंद के नवाब वजीर खान को कर दी, जिसके बाद माता गुजरी और दोनों साहिबजादों को मुगलों ने गिरफ्तार कर लिया।
साहिबजादों को जब वजीर खान के समक्ष पेश किया गया तो उसने उन्हें सिर झुकाकर खड़ा होने और इस्लाम अपनाने को कहा, लेकिन इतने छोटे होकर भी दोनों ने सिर झुकाने और इस्लाम को अपनाने से मना करते हुए कहा कि हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी और के समक्ष सिर नहीं झुकाते। उसके बाद दोनों बच्चों को काफी ललचाया, डराया, धमकाया गया लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। आखिरकार क्रूर नवाब ने दोनों को दीवार में जिंदा चिनवाने का आदेश दे डाला। जब उन्हें दीवार में चिना जाने लगा तो दोनों साहिबजादे जपुजी साहिब का पाठ करने लगे।
रखो ईंटें भरो गारे, चुनो दीवार हत्यारे।
हमारी सांस बोलेगी, हमारी लाश बोलेगी।
यही दीवार बोलेगी, हजारों बार बोलेगी।
हमारे देश की जय हो, पिता दशमेश की जय हो।
हमारे पंथ की जय हो, श्री गुरु ग्रंथ की जय हो।
आखिरकार 26 दिसंबर, 1705 को छह वर्षीय सिंह और नौ वर्षीय जोरावर सिंह को दीवार में जिंदा चिनवा दिया गया और इस प्रकार दोनों साहिबजादों ने अपने पंथ की खातिर हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। कहा जाता है कि दोनों बालक इतने वीर थे कि दीवार पूरी बन जाने के बाद भी अंदर से उनके जयकारे लगाने की आवाजें आती रहीं। कहा जाता है कि माता गुजरी को भी सरहिंद के किले से खड्ड में गिराकर मार डाला गया था।
गुरु गोबिंद सिंह और उनका पूरा परिवार सिख मत का प्रतीक था, जिन्होंने सिख पंथ को आगे बढ़ाने का दायित्व अपने हाथों में लिया था। उनका एक ही प्रण था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वे लोगों को कन्वर्जन नहीं करने देंगे और मुगलों के खिलाफ एकता से लड़ेंगे।
गुरु गोबिंद सिंह को जब इस घटनाक्रम के बारे में पता चला तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी और छोटे साहिबजादों के बलिदान दुखी होने और मुगलों के अत्याचारों के समक्ष घुटने टेकने के बजाय औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय पत्र) लिखा, जिसमें उन्होंने बादशाह को स्पष्ट चेतावनी दे डाली तुम्हारे साम्राज्य को समाप्त करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो चुका है। अजीत सिंह गुरु गोबिंद सिंह के सबसे बड़े बेटे थे जिन्होंने चमकौर के युद्ध में केवल 17 साल की आयु में ही मुगल फौज के छक्के छुड़ा
दिए थे। तीर खत्म होने पर उन्होंने तलवार निकालकर दुश्मनों से युद्ध किया लेकिन युद्ध के दौरान तलवार टूट जाने पर वे वीरगति को प्राप्त हुए। उनके बलिदान के बाद गुरु जी के दूसरे बेटे जुझार सिंह ने रणभूमि में मोर्चा संभाला और अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु गोबिंद सिंह की वीरता और धर्म की रक्षा के लिए उनके बलिदान को तो पूरी दुनिया जानती है, लेकिन उनके साहिबजादों की वीरता और बलिदान के बारे में आज की पीढ़ी कम ही जानती है, इसलिए उनकी वीरता और बलिदान को सम्मान देना अत्यंत जरूरी है।
खेलने-कूदने की छोटी-सी उम्र में उनका यह साहसिक कृत्य वर्तमान युवा पीढ़ी को अपने देश और धर्म से प्रेम करने और इनकी रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहने का संदेश देता है। समय की मांग भी है कि ऐसे महान वीर बालकों का बलिदान व्यर्थ न जाए और लोगों को उनके साहस, न्याय स्थापना की उनकी कोशिश तथा बलिदान के बारे में पता चले और उससे लोग प्रेरित हों।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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