पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ थी, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन यह इंद्रप्रस्थ कैसा था? अभाविप के राष्ट्रीय अधिवेशन में इसकी एक झलक दिखी। दिल्ली में बुराड़ी के ‘डीडीए ग्राउंड’ में ‘इंद्रप्रस्थ नगर’ नाम से भव्य एवं विशाल अस्थायी टेंट सिटी का निर्माण किया गया था।
महाभारत काल में पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ थी, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन यह इंद्रप्रस्थ कैसा था? अभाविप के राष्ट्रीय अधिवेशन में इसकी एक झलक दिखी। दिल्ली में बुराड़ी के ‘डीडीए ग्राउंड’ में ‘इंद्रप्रस्थ नगर’ नाम से भव्य एवं विशाल अस्थायी टेंट सिटी का निर्माण किया गया था। 52 एकड़ में बनी टेंट सिटी में 10,000 से अधिक विद्यार्थियों के रहने एवं खाने-पीने की व्यवस्था की गई थी। इसी में विशाल दत्ता जी डिडोलकर प्रदर्शनी सभागार भी था।
खास बात यह थी कि टेंट सिटी को 13 नगरों में बांटा गया था और इनके नाम संतों, महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर रखे गए थे। नगरों के नाम थे- संत ज्ञानेश्वर, अहिल्या बाई होल्कर, मदन मोहन मालवीय, भगवान बिरसा मुंडा, गुरु तेग बहादुर, सुब्रमण्यम भारती, महाराणा प्रताप, गुरु नानक देव, भगवान विश्वकर्मा, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मी बाई, रानी गाईदिनल्यू और लाचित बड़फूकन। इन नगरों में भारतीय संस्कृति, परंपराओं को मूर्ति, पेंटिंग और इतिहास से जुड़ी जानकारियों को दर्शाया गया था। इसमें राम मंदिर और अक्षरधाम मंदिर के अलावा रानी लक्ष्मी बाई की मूर्ति छात्रों के बीच विशेष लोकप्रिय रही।
सनातन धर्म को मिटाने तथा क्षेत्र, भाषा, जाति व पांथिक आधार पर देश-समाज को बांटने के षड्यंत्र के बीच अभाविप अधिवेशन देशभर से आए छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीयता का भाव में पिरोने में सफल रहा।
यहां बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं सेल्फी ले रहे थे। पूरा परिसर ‘भारत माता की जय’, ‘जय प्रताप’ और जय शिवचर के उद्घोष से गूंज रहा था। मुख्य कार्यक्रम स्थल दत्ता जी डिडोलकर को समर्पित था, जबकि परिसर के एक पंडाल का नाम संघ के सहसरकार्यवाह स्व. मदनदास जी के नाम पर रखा गया था। परिसर के द्वार का नाम महाराजा सूरजमल और सम्राट मिहिर भोज के नाम पर रखा गया था। ‘इंद्रप्रस्थ नगर’ में दत्ता जी डिडोलकर की स्मृति में प्रदर्शनी भी लगाई गई थी।
आठ विषयों और नौ हिस्सों में विभाजित प्रदर्शनी में शिवाजी महाराज की शौर्यगाथा, विश्वगुरु भारत, स्वाधीनता का अमृत महोत्सव, अभाविप के विभिन्न आयामों व कार्यों, दिल्ली के वास्तविक इतिहास, दिल्ली में हुए प्रमुख छात्र आंदोलन एवं अभाविप के 75 वर्षों की ध्येय यात्रा को मूर्तियों और पेंटिंग के माध्यम से प्रदर्शित किया गया था। इन्हें देशभर के अलग-अलग शैक्षणिक संस्थानों के विद्यार्थियों ने तैयार किया था, जिन्हें सम्मानित भी किया गया।
महाभारत कालीन नगर ही क्यों?
प्रदर्शनी के उद्घाटन अवसर पर अभाविप के पूर्व अध्यक्ष राजकुमार भाटिया ने कहा कि कलुषित मानसिकता वाले कुछ इतिहासकारों ने देश के गौरवशाली इतिहास के साथ षड्यंत्र किया, जो समय के साथ उजागर होता गया। इसी प्रकार, जब देश की राजधानी दिल्ली की बात आती है, पांडव कालीन इस प्राचीन शहर, जिसका मूल नाम इंद्रप्रस्थ था, के वैभवशाली इतिहास को इन कुटिल और तथाकथित इतिहासकारों ने सिर्फ मुगलों के इतिहास तक सीमित कर दिया।
राष्ट्र पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाने वाले अभाविप ने अपने अमृत वर्ष अधिवेशन में दिल्ली के प्राचीन इतिहास को पुन: चित्रित करने का जिम्मा उठाया और देश के गौरवपूर्ण इतिहास एवं महापुरुषों की गौरवगाथा को सबके सामने प्रस्तुत किया। इस नगर के मुख्य द्वार पर भव्य पांडव किला बनाया गया था, जिसके मुख्य द्वार का नाम इंद्रप्रस्थ था। पूरे अधिवेशन परिसर में भारत को गौरवान्वित करने वाले वीर-वीरांगनाओं, प्रतापी राजाओं, महापुरुषों और अभाविप के 75 वर्ष की गौरवपूर्ण यात्रा के महान अध्याय यात्रियों की आठ प्रकार की प्रतिमाएं लगाई गई थीं, जिनमें महाराणा प्रताप, महाराजा सूरजमल, महाराजा मिहिर भोज, रानी दुर्गावती, छत्रपति शिवाजी महाराज, पृथ्वीराज चौहान, दत्ता जी डिडोलकर एवं मदनदास देवी की प्रतिमा शामिल थी।
सिटी को 13 नगरों में बांटा गया था और इनके नाम संतों, महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर रखे गए थे।
नगरों के नाम थे-
संत ज्ञानेश्वर, अहिल्या बाई होल्कर, मदन मोहन मालवीय
भगवान बिरसा मुंडा, गुरु तेग बहादुर, सुब्रमण्यम भारती
महाराणा प्रताप, गुरु नानक देव, भगवान विश्वकर्मा
रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मी बाई, रानी गाईदिनल्यू, लाचित बड़फूकन।
प्रदर्शनी में विश्व गुरु भारत के गौरवशाली इतिहास के चित्रण के लिए राष्ट्रीय कला मंच आगे आया और छात्रों के लिए पेंटिंग इंटर्नशिप का आयोजन किया गया। इसमें हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय और मेरठ सहित देश के महत्वपूर्ण संस्थानों से कला के विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़कर सहभाग किया। पेंटिंग इंटर्नशिप के लिए 150 छात्रों का चयन किया गया था। विश्व गुरु भारत और गुरुकुल पद्धति विषय पर पेंटिंग बनाने वाली अंग्रेजी आनर्स की छात्रा अंजलि ने बताया कि भारत के पुरातन इतिहास को नजदीक से जानने-समझने और देखने के लिए यह अधिवेशन खास रहा। साथ ही, यह समझने का भी अवसर मिला कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर कितनी समृद्ध है।
लॉ के छात्र मनोज ने कहा कि भारत का फिर से विश्व गुरु बनने का सपना पूरा होने जा रहा है। चित्तौड़गढ़ से आए सुनील पांडे का कहना था कि अधिवेशन में आने के बाद उन्हें यह बात समझ में आई कि भारत माता की सेवा केवल राजनीति के जरिए ही नहीं, अन्य कार्य से भी हो सकती है। इसी तरह, प्रदर्शनी में बलिया (उत्तर प्रदेश) की श्रुति, पटना (बिहार) की माधुरी, देवघर (झारखंड) की अमृता, हिसार (हरियाणा) से आने वाले साहिल व श्रेष्ठी ने भारतीय मंदिरों पर आधारित अपनी कला का प्रदर्शन किया।
पूरा परिसर ‘भारत माता की जय’, ‘जय प्रताप’ और जय शिवचर के उद्घोष से गूंज रहा था। मुख्य कार्यक्रम स्थल दत्ता जी डिडोलकर को समर्पित था, जबकि परिसर के एक पंडाल का नाम संघ के सहसरकार्यवाह स्व. मदनदास जी के नाम पर रखा गया था। परिसर के द्वार का नाम महाराजा सूरजमल और सम्राट मिहिर भोज के नाम पर रखा गया था। ‘इंद्रप्रस्थ नगर’ में दत्ता जी डिडोलकर की स्मृति में प्रदर्शनी भी लगाई गई थी।
इन्होंने जी-20, चंद्रयान और भारत की अमृतकाल की उपलब्धियों को मिट्टी से बनी कलाकृतियों से दर्शाया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि अधिवेशन में आए विद्यार्थी बेहद अनुशासित थे। आयोजन स्थल ही नहीं, पारंपरिक परिधानों में नॉर्थ कैम्पस तक पांच किलोमीटर की शोभायात्रा के दौरान जय घोष करते हुए भी हजारों विद्यार्थियों अनुशासित और संयमित दिखे।
कुल मिलाकर सनातन धर्म को खत्म करने तथा क्षेत्र, भाषा, जाति और पांथिक आधार पर देश-समाज को बांटने के षड्यंत्र के बीच अभाविप का यह अधिवेशन देश के कोने-कोने से आए 10,000 से अधिक छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीयता का भाव में पिरोने में सफल रहा। अधिवेशन के अंतिम दिन हर ओर राष्ट्रीयता का नाद था। वंदे मातरम् और भारत माता जय की गूंज थी। भगवा वेश-भूषा में लिपटी नगरी की आभा और इसका ओज देखते ही बन रहा था।
युवाओं का उत्साह और विभिन्नता में एकता की विशिष्टता को अंगीकार कर देश को शीर्ष पर ले जाने का प्रखर स्वप्न भी दिखा, जो भारतीय मूल्य आधारित होगा। अधिवेशन में विभिन्न कस्बों, गांवों और शहरों से आने वाले विद्यार्थियों के लिए इस तरह के महाकुंभ में शामिल होने का पहला मौका था। चार दिन शीर्ष पदाधिकारी और कार्यकर्ता साथ रहे। भाषा अलग-अलग होने के बावजूद भावों, विचारों और संस्कृति को साझा करने की कोशिश करते दिखे। लघु भारत का यह अनुभव उनके अंदर सामूहिकता का भाव भरने में कामयाब रहा है।
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