सनातन संस्कृति के मूल में है मानवाधिकार

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पूनम नेगी

आज मानवाधिकार दिवस है। बीसवीं सदी में हुए विश्व युद्ध की विभीषिका से झुलसने वाले लोगों की पीड़ा को महसूस कर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1948 को मानवाधिकार घोषणापत्र जारी कर 1950 में 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार दिवस घोषित किया था। मानवता के खिलाफ होने वाले रहे अन्यायों को रोकने और अमानवीय कृत्यों के खिलाफ संघर्ष की आवाज को मुखर करने में इस दिवस की अत्यंत महत्वूपूर्ण भूमिका मानी जाती है। सामान्यता देश-दुनिया का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग मानवाधिकार की अवधारणा को पश्चिम की देन मानता है।

आधुनिक इतिहास की दृष्टि से विचार करने पर कहा जा सकता है कि मानव अधिकारों के आधुनिक रूप में  पृष्ठभूमि 17वीं और 18वीं शताब्दी में आरंभ हुई थी। 1689 में ब्रिटेन में हुई क्रांति ने मानवाधिकार की अवधारणा का विस्तार दिया। इस क्रांति में “बिल ऑफ राइट्स” के द्वारा व्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रताओं को मान्यता दी गयी थी। इसके बाद 1776 की अमेरिकी क्रांति तथा 1789 की फ्रांस की क्रांति ने आधुनिक मानवाधिकारों को विकसित होने के लिए विस्तृत आधारभूमि तैयार की थी। लेकिन इस विषय पर गंभीरता से विचार विमर्श  करने पर स्पष्ट होता है कि मानवाधिकार की अवधारणा का मूल भारत की “जियो और जीने दो ” की सनातन जीवन दृष्टि ही है जिसमें मानवीय समृद्धि, प्रतिष्ठा व शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की आकांक्षा पूर्ण उत्कर्ष पर प्रतिबिंबित होती है।

वैदिक मनीषा स्पष्ट कहती है कि समाज के हर व्यक्ति को जीने का बराबर अधिकार है। प्राचीन हिन्दू विधिक पध्दति की  “वसुधैव कुटुम्बकम ” की अवधारणा और हमारे सनातन तत्वदर्शन का सुप्रसिद्ध वैदिक सूक्त  ‘’न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥‘’ अर्थात मैं अपने लिए राज्य की अथवा स्वर्ग की अथवा मुक्ति की भी इच्छा नहीं करता। मैं तो केवल यही चाहता हूं कि दुःख से पीड़ित प्राणियों की पीड़ा का नाश हो; मानवाधिकारों की वैदिक आधारशिला है। वैदिक ऋषियों का “सर्वे भवन्तु सुखिन, सर्वे सन्तु निरामया” का चिंतन प्रकारांतर से मानवाधिकारों का सर्वोच्च दर्शन है जो समाज के अंतिम  व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के सम्मान के साथ जीने का अधिकार सुनिश्चित कराता है।

मानव अधिकारों का सरंक्षण में वैदिक भारत का मूल धर्म था। भारत के बुद्ध, महावीर, कबीर, गुरुनानक जैसे महामानवों ने अंतिम क्षण तक मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए सतत प्रयास किये थे। बताते चलें कि मानव अधिकार के संरक्षण के प्रमाण प्राचीन भारत में वैदिक कालीन धर्म   विचारकों के “प्राकृतिक विधि” और “प्राकृतिक अधिकार” की दार्शनिक अवधारणाओं में पायी गयी है। इन मानव अधिकारों को  मूलभूत अधिकार, आधारभूत अधिकार, अन्तर्निहित अधिकार, प्राकृतिक अधिकार और जन्मसिद्ध अधिकार भी कहा जा सकता है। ये अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए नितांत आवश्यक हैं क्योंकि ये मानव की गरिमा एवं स्वतंत्रता के अनुरूप है तथा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक और भौतिक कल्याण के लिए आवश्यक हैं।

इन अधिकारों की अनुपस्थिति में मानव कभी भी किसी प्रकार का विकास नहीं कर सकता। यही वजह है कि आजादी के बाद हमारे नीति निर्माताओं ने देश के संविधान में मौलिक अधिकारों एवं नीति निदेशक सिद्धांतों को इसी भावना को ध्यान में रखते हुए स्थान दिया गया था। इसे एक सुखद संयोग कहा जाना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र में जब मानवाधिकारों पर चर्चा हो रही थी उसी समय भारतीय संविधान का प्रणयन हो रहा था।

हमारे संविधान निर्माता इस तथ्य से पूरी तरह वाकिफ थे और अपने देश के नागरिकों के लिए ऐसी ही व्यवस्था के लिए प्रयत्नशील थे। परिणामस्वरूप भारतीय संविधान में मानवाधिकारों को उच्च स्थान देते हुए उसे मौलिक अधिकारों के खंड में न केवल शामिल किया गया बल्कि इसकी रक्षा की जिम्मेदारी न्यायपालिका को सौप कर इसे गारंटीकृत भी किया गया था। इन मानव अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। इन अधिकारों में प्रदूषण मुक्त वातावरण में जीने का अधिकार, अभिरक्षा में यातनापूर्ण और अपमानजनक व्यवहार न होने पाये, अनावश्यक अभिरक्षा में भी न रखे जाने के विषय पर हाल ही में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने भी गहरी चिंता प्रकट की थी। मानवाधिकार न सिर्फ किसी संविधान, किसी विधि, बिल ऑफ राइट्स या किसी मेग्नाकार्टा तथा मानव आधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने नहीं प्रदान किये हैं, बल्कि ये तो ऐसे प्रकृति प्रदत्त अधिकार हैं;  भारत में जिनका पालन अनादिकाल से परंपरागत रूप से होता आया है।

इतिहास गवाह है कि भारत ने कभी भी संस्कृति, धर्म या अन्य कारकों के आधार पर दूसरों को अपने अधीन करने की कोशिश नहीं की है। भारत एक ऐसा देश है जिसके मूल में मानवाधिकार की अवधारणा है। भारत के लोग मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प भी लेते हैं। भारत विश्व स्तर पर आज भी मानवाधिकार का समर्थन करता रहा है।

इसे एक बड़ी विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के तमाम प्रयासों  के बजूद आज देश दुनिया में मानवाधिकारों का लगातार क्षरण हो रहा है। समझना होगा कि मानव द्वारा मानव के दर्द को महसूस करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत नहीं होती; ऐसे अपराधों को मानवीय जागरूकता से ही रोका जा सकता है।

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