पांच में से तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की विजय को इसी जागरुकता के प्रतीक के रूप में देखना होगा। भाजपा की इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे मुख्य कारण निश्चित रूप से संपूर्ण भारत को विकास के पथ पर ले जाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को मिली सफलता है।
इस पृष्ठ पर यह आशंका पहले भी व्यक्त की जा चुकी थी कि जैसे-जैसे 2024 में होने वाले आम चुनाव निकट आते जाएंगे, देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की दिशा में किए जाने वाले षड्यंत्र तीव्र हो सकते हैं। संतोष की बात यह है कि देश की जनता की अपनी क्षमता, दक्षता और सुदृढ़ता उन षड्यंत्रों को विफल करने में सफल रही है। यह हमारा राष्ट्र है, लिहाजा इसके भविष्य को लेकर, इसके वर्तमान को लेकर हम सोये नहीं रह सकते।
पांच में से तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की विजय को इसी जागरुकता के प्रतीक के रूप में देखना होगा। भाजपा की इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे मुख्य कारण निश्चित रूप से संपूर्ण भारत को विकास के पथ पर ले जाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को मिली सफलता है। लेकिन फिर भी, यह भी स्पष्ट है कि मात्र विकास कार्यों में सफलता और सुशासन कभी चुनाव में सफलता के लिए पर्याप्त नहीं होता है, प्रचार और धारणाएं भी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि कई राज्यों में अभी भी ‘राष्ट्र’ के प्रति नकारात्मकता पोसने वाले दलों का शासन है और एक बड़ी हिंदुत्व विरोधी पार्टी, जो सत्ता के लोभ में भारत-विरोधी होने से भी संकोच नहीं करती, वह बिल्कुल राजवंश के अंदाज में देश पर तीन-चौथाई शताब्दी तक शासन कर सकी है, तो उसका मुख्य कारण यह प्रचार और धारणागत पहलू ही है।
इससे समझा जा सकता है कि 4 में से 3 बड़े राज्यों में सम्मानजनक जीत का एक बड़ा कारण निश्चित रूप से सभी भारत समर्थक, भारत हितैषी, संस्कृति प्रेमी व मोदी समर्थकों का पुरजोर प्रयास ही है। देश भर के वे सैकड़ों-हजारों राष्ट्रवादी, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा शासित राज्यों की उपलब्धियों पर प्रकाश डालने के कार्य में सोशल मीडिया से लेकर गांवों की चौपालों और शहरों के मेलजोल-संवाद के प्रसंगों में पूरी शक्ति और उत्साह से डटे रहे, जिन्होंने आई.एन.डी. आई. अलायंस और उनके ‘अपने’ और कथित मुख्यधारा के मीडिया द्वारा फैलाए गए झूठे और फर्जी आख्यानों का भंडाफोड़ पूरे तथ्यों और तर्कों के साथ किया, वास्तव में यह उनके प्रयासों की भी विजय है। जीत-हार के कारणों का विश्लेषण व मीमांसा तो चलती रहेगी और आगे के पृष्ठों पर आप भी पढ़ सकते हैं। लेकिन संभवत: उससे अधिक महत्वपूर्ण दो बातों को स्पष्ट रूप से समझना होगा। एक, यह विजय किन परिस्थितियों में हुई और क्यों इतनी महत्वपूर्ण है?
दूसरी, भविष्य के लिए इसी कार्यशक्ति की दृष्टि और दिशा क्या होनी चाहिए? शुरुआत पहले बिंदु से करते हैं। ‘गोदी मीडिया’ शब्द तो बहुत सुना है, लेकिन यह ‘अपना मीडिया’ क्या होता है? यह पिछले कुछ समय से नजर भी आने लगा है और महसूस भी होने लगा है। पहले एक राजनीतिक दल ने समाचार चैनलों में ‘अपने’-पराए के आधार पर भेद करने और बहिष्कार तक जाने की ठानी, फिर इसी दल के ‘अपनेपन’ से प्रेरित मीडिया ने बिना तथ्य जांचे अदाणी समूह के खिलाफ हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ‘अपने आकाओं’ के लिए छाप मारी। यह बात और कि राजनीतिक मंशाओं को मीडिया के माध्यम से ढोने और सारा तमाशा करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में जाकर वह ‘खबर’ तिरोहित हो गई। यह एक उदाहरण है।
भारत को विकास के पथ पर ले जाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को मिली सफलता है। लेकिन फिर भी, यह भी स्पष्ट है कि मात्र विकास कार्यों में सफलता और सुशासन कभी चुनाव में सफलता के लिए पर्याप्त नहीं होता है, प्रचार और धारणाएं भी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि कई राज्यों में अभी भी ‘राष्ट्र’ के प्रति नकारात्मकता पोसने वाले दलों का शासन है और एक बड़ी हिंदुत्व विरोधी पार्टी, जो सत्ता के लोभ में भारत-विरोधी होने से भी संकोच नहीं करती, वह बिल्कुल राजवंश के अंदाज में देश पर तीन-चौथाई शताब्दी तक शासन कर सकी है, तो उसका मुख्य कारण यह प्रचार और धारणागत पहलू ही है।
इसी प्रकार पांच राज्यों के चुनाव को सत्ता विरोधी रुझान से लेकर सेमीफाइनल तक की तमाम बातों में उलझा कर जमीन से मीलों दूर, अट्टालिकाओं में बंद कमरों में लिखे गए लेखों के आधार पर परिणाम का फैसला कर दिया गया। लेकिन जब जनता का फैसला आया तो वही ‘अपना मीडिया’ उस पर क्रिकेट के डकवर्थ लुईस पद्धति के अंदाज के निष्कर्ष निकालने लगा। इस तरह का ‘अपना मीडिया’ सच्चाई से कितना दूर रह सकता है, यह देखना आश्चर्यजनक है। कहां यह निष्कर्ष निकाल दिया गया था कि कांग्रेस के प्रथम परिवार के युवराज एक फाइव स्टार यात्रा निकालकर अचानक से परिपक्व हो गए हैं और कहां परिणाम आने के बाद उसी ‘अपने मीडिया’ ने उनकी सुध लेने की भी जरूरत नहीं समझी।
यह भी पता करने की कोशिश नहीं कि वह दुखी हैं या सुखी? उनकी क्या सोच है और क्या नहीं? यहां तक कि यह भी नहीं पता कि वह देश में हैं भी या नहीं, और अगर हैं तो कब तक के लिए हैं? बैठे-ठाले यह निष्कर्ष निकाल दिया गया कि वह तो उत्तर भारत का हिंदी भाषी क्षेत्र है, इसलिए भाजपा जीत गई, बाकी दक्षिण में तो उसका कोई नामलेवा भी नहीं है। अकेले तेलंगाना और कर्नाटक के बूते दक्षिण से सबसे ज्यादा सांसद भाजपा के हैं। दक्षिण के किसी भी और दल से अधिक। लेकिन ऐसे तथ्यों की ‘अपने मीडिया’ को कोई आवश्यकता भी महसूस नहीं होती।
इस तरह की बातों का निहितार्थ क्या निकाला जा सकता है, ‘अपने मीडिया’ को इसकी चिंता भी आवश्यक नहीं लगती। जब चुनाव परिणाम इस ‘अपने मीडिया’ की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रहे, तो उनका अति सरलीकरण कर दिया गया – वह तो यह एक योजना थी या रणनीति थी। अगर इन्हीं टोटकों से चुनाव जीता जा सकता होता, तब तो कांग्रेस को कभी सत्ता से उतरना ही नहीं था। वह तो ‘प्रजा’ को भोजन करने का अधिकार देने जा रही थी। फिर? यह वास्तविक मीमांसा है, जिस पर विमर्श जरूरी है। आइए इस विमर्श से जुड़ें, पाञ्चजन्य के इस अंक में …
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