बाबासाहेब ने भारत के इस मूल विचार को फिर से गुंजाया कि प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म का अंश है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य, व्यक्ति विकास और समाज-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले डॉ. आंबेडकर का जन्म एक आस्थावान परिवार में हुआ
यह भारत भूमि की विशेषता है कि उसे समयानुकूल राजनीतिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक नेतृत्व प्राप्त होता रहा है। इनमें आचार्य चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर राजा दाहिर, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज और आद्यगुरु शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद तथा आधुनिक भारत में नेताजी सुभाषचंद्र बोस, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर, पं. मदन मोहन मालवीय, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जैसे अनेक नाम शामिल हैं। इसी कड़ी में बाबा डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर का नाम आता है। उनका जीवन संघर्ष और प्रेरणा से भरा हुआ है।
बाबासाहेब ने भारत के इस मूल विचार को फिर से गुंजाया कि प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म का अंश है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य, व्यक्ति विकास और समाज-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले डॉ. आंबेडकर का जन्म एक आस्थावान परिवार में हुआ था। उनके दादाजी मालोजी राव रामानंद संप्रदाय से दीक्षित थे और पिताजी रामजी ने कबीर पंथ की दीक्षा ली थी। डॉ. आंबेडकर के ताऊजी भी संन्यासी हो गए थे।
अलौकिक घटना
डॉ. आंबेडकर के जन्म से लगभग 12 वर्ष पूर्व परिवार में एक अलौकिक घटना घटी थी। इसके बाद से ही पिता रामजी और माता भीमाबाई को विश्वास हो गया था कि उनके घर में कोई अनूठा बालक जन्म लेगा। बाबासाहेब की पहली प्रामाणिक जीवनी लिखने वाले चांगदेव भवान राव खैरमोड़े ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि 1879 में सूबेदार रामजी परिवार के साथ रावलपिंडी के सैनिक कैम्प में रहते थे। एक दिन शाम को भीमाबाई कुछ महिलाओं के साथ नदी में कपड़े-बर्तन धो रही थीं। तभी कुछ साधु आए और पास ही स्नान करने लगे। काम करते हुए महिलाएं आपस में कोंकणी भाषा में बात कर रही थीं। महिलाओं की बातचीत सुनकर एक वृद्ध साधु ने उत्सुकता से उनकी ओर देखा। फिर भीमाबाई से कहा- भीमा, तुम यहां कैसे? भीमाबाई को बहुत आश्चर्य हुआ कि गोसाई को उनका नाम कैसे पता चला? उन्हें बदहवास देखकर गोसाई आगे बढ़े और बोले- ‘‘भीमा, तुम घबराओ मत। मैं तुम्हारा जेठ हूं। मैंने संन्यास ले लिया है और अपने दल के साथ घूमते-घूमते यहां आया हूं।’’
यह जानकर भीमाबाई ने जेठ और उनके दल के सदस्यों को घर आने का न्यौता दिया। जब वह संन्यासियों के साथ घर आए तो भीमाबाई ने उन्हें अपने बच्चों से मिलवाना चाहा। तब उन्होंने कहा कि हमारे वंश की तीन पीढ़ियों के पुरुष संन्यासी बन गए। तीनों ने घोर तपस्या करके भगवान से एक ही वर मांगा है कि वंश में ऐसे पुत्र का जन्म हो, जो कुल का नाम रोशन करे तथा अपने बंधुओं को जाति के बंधन से मुक्त कर धर्म को प्रकाशित करे। ईश्वर ने वह वर दे दिया है और यह निश्चित है कि अपने कुल के प्रथम साधु की तीसरी पीढ़ी में अर्थात् वर्तमान पीढ़ी में ऐसा बालक जन्म लेने वाला है। यह बात मेरे मुंह से निकले यही परमात्मा की इच्छा थी और इसीलिए इस तरह अचानक अपनी भेंट हो गई। इतना कह कर उन्होंने एक स्त्री के हाथों नारियल-रोली आदि से भीमाबाई की गोद भरवाई।
संभव है कुछ लोगों को यह घटना अतिश्योक्ति लगे या वे इसे अंध श्रद्धा बताकर नकार दें। लेकिन उससे पहले यह समझना आवश्यक है कि इस घटना का वर्णन खैरमोडे ने किया है। खैरमोड़े ने बाबासाहेब के सान्निध्य में लंबा समय बिताया, उनके जीवन को समीप से देखा और उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर अनुसंधान किया था। उनके द्वारा लिखित बाबासाहेब के चरित्र का पहला खंड 1952 में (बाबासाहेब के जीवनकाल) प्रकाशित हुआ था। इसलिए बाबासाहेब के चरित्र में वर्णित इस अलौकिक प्रसंग पर अविश्वास करना उचित नहीं होगा। बाबासाहेब ने भी इस प्रसंग का कभी खंडन नहीं किया।
धार्मिक संस्कार
बाबासाहेब के पिता ने बच्चों को धार्मिक संस्कार दिए थे। रात के आठ बजते ही बाबा साहब, उनकी दोनों बहनें व बड़े भाई का देवघर में पहुंचना अनिवार्य था। उनके पिता इस नियम के प्रति बहुत कठोर थे। वह स्वयं ब्रह्म मुहूर्त में उठते और ऊंचे स्वर में अभंगों, स्त्रोतों और श्लोकों आदि का पाठ किया करते थे। शाम को भी लगभग दो घंटे पूजा-अर्चना करते थे। पूजा समाप्त होने के बाद वह गीता के दूसरे अध्याय के 19 से 23 श्लोकों का पाठ करते थे।
घर में रामायण, पांडव प्रताप, ज्ञानेश्वरी और अन्य संत साहित्य के नित्य पाठन व भजन के दैनंदिन प्रभाव से निर्माण होने वाले धार्मिक, पवित्र वातावरण का सविस्तार वर्णन बाबासाहेब के जीवन पर चरित्र ग्रंथ लिखने वाले ग्रंथकारों चांगदेव भवानराव खैरमोडेÞ और धनंजय कीर ने किया है। धनंजय कीर के अनुसार, बाबासाहेब के घर का वातावरण ‘संत के भोजन, अमृत का पान, करते कीर्तन सदा’ का था। बाबासाहेब स्वयं कहते थे- ‘‘जब मेरी बहनें मीठे स्वर में पद गातीं, तब मुझे लगता था कि धर्म और धार्मिक शिक्षा मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। अक्सर यह समझा जाता है कि मैं धर्म से विमुख हूं, परंतु यह बात सही नहीं है। मेरे बारे में लोगों की यह गलतफहमी है। जो मेरे सान्निध्य में आए हैं, उन्हें मेरी धर्म विषयक श्रद्धा एवं प्रेम के बारे में मालूम है। धार्मिक ढोंग मुझे जरा भी पसंद नहीं है। पिताजी के भजनपाठ के कारण मुक्तेश्वर, तुकाराम आदि संत कवियों की रचनाएं मुझे कंठस्थ हुर्इं। इतना ही नहीं, मैं इस काव्य पर मन में विचार भी करने लगा।’’
घर के धार्मिक वातावरण के स्वयं पर पड़े प्रभाव के बारे में डॉ. आंबेडकर कहते हैं, ‘‘हमारा परिवार निर्धन होते हुए भी ऐसा था कि किसी प्रगतिशील सुशिक्षित परिवार को शोभा दे सके। हमारे पिता इस बात को लेकर सदैव सजग रहते थे कि हममें विद्याध्ययन की रुचि जाग्रत हो तथा हमारा चरित्र उज्ज्वल बने। वे भोजन से पूर्व हमें पूजा घर में बैठा कर हमसे अभंग, दोहे-भजन आदि करवाया करते थे। वैसे तो हम सभी विशेष तौर से मैं, अक्सर ही टालमटोल किया करते थे। किसी तरह दो-चार आधे-अधूरे अभंग गा कर भोजन के लिए बैठ जाया करते थे। पिताजी तत्काल हमसे पूछा करते थे, ‘क्यों रे, आज तुम लोगों के भजन जल्दी पूरे हो गए?’ उनके प्रश्न का उत्तर देने से पहले ही हम वहां से नौ-दो ग्यारह हो हो जाते। मगर यह सब सुबह होने वाली धींगामस्ती थी। शाम को पिताजी ऐसा कभी भी नहीं होने देते थे। उनका यह कड़ा नियम-निर्देश था कि रात के आठ बजते ही मेरी दोनों बहनें, मेरे बड़े भाई और मैं पूजागृह में होने ही चाहिए। किसी के भी अनुपस्थित रहने पर वे उसे क्षमा नहीं करते थे। जब वे भक्तिभाव से संतों के अभंग और कबीर के दोहे गाने लगते थे, तो उस समय बड़ा गंभीर और पवित्र वातावरण निर्मित हो जाता था। हमारे पिताजी में कंठस्थीकरण की बड़ी क्षमता थी।’’
धर्म पर उपदेश
14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में हिंदू धर्म त्यागने व बौद्ध मत अपनाने पर उन्होंने कहा, ‘‘मनुष्य मात्र के उत्कर्ष के लिए धर्म एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है। मुझे पता है कि कार्ल मार्क्स के अध्ययन के कारण एक ऐसा वर्ग का आविर्भाव हुआ है जिसके अनुसार, धर्म वगैरह कुछ भी नहीं होता। उनके लिए धर्म का कोई महत्व नहीं है। उन्हें सुबह नाश्ता मिल जाए, ब्रेड, मलाई, मक्खन, मुर्गे की टांग आदि भरपेट भोजन मिल जाए, आरामदायक नींद मिल जाए तो सब कुछ मिल गया। यही उनका तत्वज्ञान है। मैं इस विचार का नहीं हूं। मेरे पिता निर्धन थे। इसलिए मुझे इस तरह के सुख नहीं मिले। मेरे जैसा कष्टमय जीवन किसी ने भी नहीं बिताया है। इसलिए मुझे इस बात का अहसास है कि सुख-संतोष के अभाव में व्यक्ति का जीवन किस तरह कष्टप्रद हो जाता है। धर्म की आवश्यकता गरीबों को है। गरीब आदमी आशा पर ही जीता है। जीवन का मूल आशा में है। यह आशा ही यदि नष्ट हो गई तो जीवन कैसा होगा? धर्म आशावादी बनाता है। पीड़ितों और निर्धनों को संदेश देता है कि घबराओ नहीं, जीवन आशादायी होगा।’’
बाबासाहेब अपने भाषणों और लेखन में संतों की वाणी, उनके भजनों के पदों एवं श्लोकों का बहुधा उपयोग किया करते थे। परिवार में उन्हें जो धार्मिक वातावरण मिला, यह उसका प्रभाव था। उन्होंने सबसे पहला समाचारपत्र प्रकाशित किया- मूकनायक।
इस समाचारपत्र के पहले पृष्ठ पर उन्होंने सबसे ऊपर तुकाराम महाराज का एक अभंग लिखा था-
काय करू आता धरूनिया भीड़।
नि:शंक हे तोंड वाजविले।।
नव्हे जगी कोणी मुक्तियांचा जाणे।
सार्थक लाजून नव्हे हित।।
बाबासाहेब ने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक और समाचारपत्र का प्रकाशन किया। इसके प्रथम पृष्ठ पर ज्ञानेश्वरी की पंक्तियां थीं-
आता कोदंड घेऊनी हाती। आरूढ पां इये रथी।
देई आलिंगन वीरवृत्ती। समाधाने।।
अंगी कीर्ति रूढवीं। स्वधर्माचा मानु वाढवीं।
इया भारापासोंनि सोडवी। मोहिनीहे।।
आतां पार्था नि:शंकु होई। या संग्रामा चित्त देई।
एथ हे वांचूनि काही। बोलो नये।।
डॉ. आंबेडकर को यह अहसास था कि मनुष्य के जीवन को नियंत्रित करने वाली कोई न कोई अज्ञात शक्ति कहीं है। इस शक्ति पर उनका विश्वास था। धनंजय कीर ने एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘‘एक बार एक छोटे से शहर से गुजरते समय उनकी (बाबासाहेब की) गाड़ी पुल से फिसली और नीचे पड़े एक पत्थर के आधार के कारण नदी के ऊपर लटकती रही। चालक और उन्होंने (डॉ. आंबेडकर) पलक झपकते नीचे छलांग लगा दी। वे भय के मारे पत्थर की तरह अचल खड़े रहे। अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने अदृश्य शक्ति को प्रार्थनापूर्वक धन्यवाद दिया। वापस लौटने के बाद अपने पुत्र और भतीजे को कस कर भींचते हुए बोले कि नियति के उपहार और अदृश्य शक्ति की कृपा के कारण मेरी जान बची। यह कह कर वह फूट-फूट कर रो पड़े। वह कहा करते थे कि जो यह डींग मारे कि अपने धर्म और ईश्वर पर उसका विश्वास नहीं है, उस पर मैं विश्वास नहीं कर सकता।’’ कुल मिलाकर धार्मिक संस्कारों का प्रभाव बाबासाहेब के संपूर्ण जीवन में दिखाई देता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार
विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं)
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