चोल विष्णु के अवतार श्रीराम के वंशज थे। अन्य दो तमिल राजवंशों चेर और पांड्य ने श्रीराम के साथ वंशानुगत संबंध होने का दावा नहीं किया था। हालांकि उन्होंने भी अपने कुछ दिव्य संबंधों का दावा किया था।
श्रीराम और आधुनिक तमिलनाडु का चोल वंश से संबंध होने के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं। चोल राजाओं के ताम्रपत्रों और शिलालेखों में उल्लेख है कि वे मनु और उनके पुत्र इक्ष्वाकु के वंशज थे। राजराज चोल के पिता सुंदर चोल ने अपने मंत्री अनिरुद्ध ब्रह्मराय को जारी अंबिल ताम्रपत्र में कहा है कि शाही चोल परिवार विष्णु के नेत्रों से उत्पन्न हुआ। इसे राजा द्वारा स्वयं को देवतुल्य बताने के प्रयास के रूप में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्य शिलालेखों में भी यह दावा किया गया है कि चोल विष्णु के अवतार श्रीराम के वंशज थे। अन्य दो तमिल राजवंशों चेर और पांड्य ने श्रीराम के साथ वंशानुगत संबंध होने का दावा नहीं किया था। हालांकि उन्होंने भी अपने कुछ दिव्य संबंधों का दावा किया था।
प्राचीन ग्रंथों और शब्दकोशों में चेरों के लिए एक नाम ‘वाणावर’ का उल्लेख है, जो इंद्र से संबंधित है। पांड्यों ने दावा किया था कि वे शिव की पत्नी मीनाक्षी देवी के वंशज थे और इसलिए स्वयं को ‘गौरिया’ (गौरी के पुत्र) कहते थे। इन दो राजवंशों की तुलना में चोल यह दावा करके अपनी उत्पत्ति के बारे में बहुत स्पष्ट थे कि वे इक्ष्वाकु वंश के वंशज थे। चोल वंश के चार शिलालेखों से उन सभी के साथ चोल वंश की एक उल्लेखनीय सूची बनती है। हालांकि ये सूचियां एक-दूसरे से थोड़ी भिन्न हैं, लेकिन अंतत: इक्ष्वाकु के वंशज श्रीराम की ओर संकेत करती हैं। ये चार शिलालेख हैं- सुंदर चोल द्वारा जारी अंबिल ताम्रपट्टिका, राजेंद्र चोल प्रथम द्वारा जारी ताम्रपट्टिकाएं, राजेंद्र चोल प्रथम द्वारा ही जारी तिरुवलंगाडु ताम्रपट्टिकाएं और उनके पुत्र वीर राजेंद्र चोल द्वारा जारी किए गए कन्याकुमारी शिलालेख।
चोल शिलालेखों में बताए गए प्रारंभिक राजाओं का वंश ठीक वही है, जिनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में श्रीराम विवाह के समय वसिष्ठ द्वारा वर्णित नामों में है। राजा मांधाता तक चोल और इक्ष्वाकु दोनों वंशावलियों में एक समान नाम हैं। मांधाता के उपरांत मुचुकुंद का उल्लेख राजेंद्र चोल के शिलालेखों में मिलता है। इसके आगे यह वंशावली सिबी और फिर चोल वर्मन तक जाती है, जिन्होंने चोल राजवंश की स्थापना की। इसे सुंदर चोल के अंबिल शिलालेखों में भी पाया जाता है। राजेंद्र चोल के तिरुवलंगाडु शिलालेखों में सूची सिबी के आगे भी जारी रहती है, जिसमें मरुत, दुष्यन्त और शकुंतला के पुत्र भरत शामिल हैं। इनके बाद चोल वर्मन का नाम भरत के पुत्र के रूप में है।
वीर राजेंद्र द्वारा कन्याकुमारी के अम्मन मंदिर के स्तंभों पर उकेरे गए शिलालेखों में वंशावली ब्रह्मा, मरीचि, कश्यप, वैवस्वत मनु एवं इक्ष्वाकु से शुरू होती है और फिर हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ से होते हुए राम तक जाती है। चार भजनों में श्रीराम की स्तुति की गई है और इसके बाद यह उल्लेख है कि श्रीराम के परिवार में चोल नामक राजा का जन्म हुआ था। सिबी का नाम, जो अन्य तीन शिलालेखों में आता है, वह इस शिलालेख में नहीं मिलता। मात्र यह शिलालेख चोल राजवंश के लिए श्रीराम के साथ सीधे संबंध की बात करता है।
ये सभी चार शिलालेख वर्तमान युग की 10वीं और 11वीं शताब्दी में चार पीढ़ियों तक चले चोल राजाओं की राजाज्ञा से तैयार किए गए थे। उनके समक्ष राम और सिबी को अपने वंश में शामिल करने की कोई आवश्यकता या अनिवार्यता तब तक नहीं थी, जब तक उसमें सत्य का कोई तत्व न हो। इसके अलावा, सिबी, राम और भरत को चोल-वंश के पूर्वजों के रूप में एक साथ रखना एक असामान्य बात भी है, क्योंकि उनके बारे में हमारे पुराने ज्ञान के अनुसार उन्हें एक-दूसरे से संबंधित नहीं माना जाता था। चोल वंश के पहले राजा चोल वर्मन के पूर्वज कैसे हो सकते हैं, इस गूढ़ प्रश्न की इस लेख में विवेचना की गई है।
इन चारों शिलालेखों के बारे में एक सामान्य विशेषता यह है कि संस्कृत में हैं। तमिल राजवंशों के बीच एक प्रथा रही कि जब भी वे अपनी वंशावली को विस्तार से शामिल करना चाहते थे, तो वे अपने शिलालेखों को दो भाषाओं में लिखवाते थे। ऐसे मामलों में वंशावली संस्कृत में दी गई है, ताकि इसे भारत में कहीं भी कोई भी पढ़ सके, वहीं दान भाग तमिल में लिखा गया है, जिसमें भूमि के आयाम या उपहार में दी गई वस्तुओं का विवरण है। ऐसा पाया गया है कि केवल संस्कृत विद्वानों ने पैतृक वंशावली को अधिकांश मामलों में अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशन विवरण पुष्पिका के साथ सुरचित छंदों में लिखा था, लेकिन वे राजा की सहमति के बिना अपने आप नहीं लिख सकते थे।
राजाओं ने अवश्य ही उस राजवंशीय वंशावली को अनुमति दी होगी, जिसे वे पत्थर या तांबे की पट्टिकाओं में उकेरना चाहते थे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि दादा (सुंदर चोल) द्वारा जारी शिलालेख में प्रथम चोल को सिबी के वंशज के रूप में लिखा गया और पोते (राजेंद्र चोल) के शिलालेख में भरत का पुत्र लिखा गया? प्रपौत्र (वीर राजेंद्र) ने प्रथम चोल का जन्म श्रीराम के परिवार में होने का दावा करके उन सभी को पीछे छोड़ दिया। तीनों पूर्वजों सिबी, भरत और राम के बीच कोई न कोई संबंध अवश्य रहा होगा, जिसका अब तक पता नहीं चला है।
भगवान रंगनाथ का विग्रह तमिलनाडु के श्रीरंगम मंदिर में स्थित है। इसके बारे में एक किंवदंती है कि श्रीराम ने इस देवता की पूजा की थी और उनके राज्याभिषेक के दौरान उनका विग्रह विभीषण को दिया था। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम द्वारा विभीषण (6-128-90) को सौंपे गए ‘कुल धनम्’ का उल्लेख है। इस देवता का एक बार फिर उल्लेख हुआ, जब श्रीराम मृत्युलोक छोड़ने के लिए तैयार हो रहे थे। उन्होंने विभीषण को इक्ष्वाकुओं के देवता ‘जगन्नाथ’ (7-121) की पूजा करने की सलाह दी।
तिरुवलंगाडु ताम्रपत्रों में दिए गए भरत के संबंध की विवेचना करें, तो विष्णु पुराण के अनुसार, दुष्यंत के पुत्र भरत की तीन पत्नियां और उनसे नौ पुत्र थे। भरत ने अपनी पत्नियों को यह कहकर धिक्कारा था कि नौ पुत्रों में से कोई भी पुत्र उनके जैसा नहीं था, जिसके कारण पत्नियों ने सभी नौ पुत्रों को मार डाला, ऐसा विष्णु पुराण (4-19) में कहा गया है। तिरुवलंगाडु शिलालेखों के विवरण से पता चलता है कि इन पुत्रों को वास्तव में मारा नहीं गया था, बल्कि भरत ने उन्हें त्याग दिया था। चोल वर्मन उनमें से एक थे। वीर राजेंद्र के कन्याकुमारी शिलालेख के अनुसार, उन्होंने अपने माता-पिता को छोड़ दिया, फिर दक्षिण की यात्रा की और पुम्पूहार पहुंचे, जहां उन्होंने अपना शासन स्थापित किया।
माना कि चोल वर्मन भरत के पुत्र थे, फिर सिबी से उनका संबंध किस प्रकार था? वास्तव में, चोल राजाओं को सिबी के वंशज होने के कारण ‘चेम्बियान’ उपाधि प्राप्त थी। कई संगम ग्रंथों में एक कबूतर को बचाने के लिए सिबी द्वारा अपना मांस अर्पित करने की दुर्लभ घटना का हवाला देते हुए उन्हें चेम्बियानों के रूप में महिमामंडित किया गया है।
सिबी के पूर्ववृत्तांत की खोज करने पर हमें एक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है जो भरत के दादा से संबंधित है। इसकी शुरुआत महाराज ययाति के पांच पुत्रों से होती है। यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु और पुरु नामक इन पांच पुत्रों में से दुष्यन्त पुरु के वंश में हुए। मरुत्त पुरु के भाई तुर्वसु के वंशज थे। चूंकि उनकी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने पुरु के परिवार के दुष्यन्त को गोद ले लिया (विष्णु पुराण 4-16)। सिबी उसिनारा के पुत्र थे, जो एक अन्य भाई अनु के वंश में पैदा हुए थे। इस प्रकार, वे सभी एक ही पिता अर्थात् ययाति के पुत्रों से जन्मे सजातीय हैं।
इसके अनुसार, अनु के वंश में उत्पन्न सिबी, पुरु के सीधे वंश में पैदा हुए भरत के चचेरे भाई थे। इसका अर्थ यह हुआ कि सिबी चोल वर्मन के चाचा हुए, जो भरत के जैविक पुत्र थे। चूंकि तमिल संगम ग्रंथों में अक्सर कहा गया है कि चोल का जन्म सिबी के वंश में हुआ था, इसलिए इसकी अत्यधिक संभावना है कि भरत द्वारा डांटे जाने पर सिबी के परिवार ने उन्हें गोद ले लिया हो।
चोल राजवंश की स्थापना करने वाले चोल वर्मन को त्यागने के लिए चोल वंश ने लंबे समय तक भरत के प्रति द्वेष भाव रखा होगा। उन्होंने केवल सिबी को याद किया, भरत या उनके पिता दुष्यन्त को नहीं। यह प्राचीन तमिल साहित्य में भी व्यक्त होता रहा, लेकिन 10वीं शताब्दी में राजेंद्र चोल ने भरत से अपने वंश की शुरुआत को दर्ज कराना चाहा।
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम विवाह के समय वसिष्ठ द्वारा वर्णित नामों में है। राजा मांधाता तक चोल और इक्ष्वाकु दोनों वंशावलियों में एक समान नाम हैं। मांधाता के उपरांत मुचुकुंद का उल्लेख राजेंद्र चोल के शिलालेखों में मिलता है। इसके आगे यह वंशावली सिबी और फिर चोल वर्मन तक जाती है, जिन्होंने चोल राजवंश की स्थापना की। इसे सुंदर चोल के अंबिल शिलालेखों में भी पाया जाता है। राजेंद्र चोल के तिरुवलंगाडु शिलालेखों में सूची सिबी के आगे भी जारी रहती है, जिसमें मरुत, दुष्यन्त और शकुंतला के पुत्र भरत शामिल हैं। इनके बाद चोल वर्मन का नाम भरत के पुत्र के रूप में है।
भरत और सिबी के साथ चोल वर्मन का वंशावली संबंध श्रीराम के साथ भी कैसे जारी रहा? इस पहेली को इस बात से सुलझाया जा सकता है कि श्रीराम का उन पांच भाई-बहनों के पिता ययाति से क्या संबंध था। वाल्मीकि रामायण (1-70-42) में ययाति का नाम श्रीराम के पूर्वज के रूप में आता है। वे नहुष के पुत्र थे, जिसका वर्णन वसिष्ठ ने किया था, जिन्होंने श्रीराम के विवाह के समय सभी पूर्वजों की सूची बनाई थी। इस सूची से श्रीराम और ययाति के बीच सीधा आनुवांशिक संबंध स्पष्ट हो जाता है।
उसी वाल्मीकि रामायण में वसिष्ठ एक बार फिर श्रीराम के पूर्वजों के नाम बताते हैं, जब वे भरत के साथ श्रीराम को अयोध्या लौटने के लिए मनाने के लिए जंगल गए थे। श्रीराम को यह समझाने के लिए कि उनके वंश में केवल सबसे बड़े पुत्र का ही राज्याभिषेक किया जाता है, वसिष्ठ ने प्रत्येक पीढ़ी के सबसे बड़े पुत्र के नाम बताना शुरू किया, जिन्होंने देश पर राज करने की जिम्मेदारी संभाली थी। उस सूची में नहुष का नाम आता है, ययाति का नहीं! महर्षि वसिष्ठ का कहना है कि नहुष के बाद उनके पुत्र नाभाग का राज्याभिषेक हुआ (2-110-32), जबकि श्रीराम के विवाह के दौरान उनके द्वारा दी गई सूची में नाभाग का नाम ययाति के पुत्र के रूप में अंकित है। इससे पता चलता है कि अयोध्या का राजपाट ययाति को नहीं, बल्कि उनके पुत्र को मिला था। श्रीराम नाभाग के प्रपौत्र थे!
और आगे विवेचना करें, तो विष्णु पुराण (4-6) कहता है कि ययाति चंद्र वंश (सोम-वंश) से थे। यह वंश इक्ष्वाकु की सबसे बड़ी बहन इला से शुरू हुआ। चंद्र वंश में पिता और पुत्र के रूप में नहुष और ययाति का नाम मिलना अजीब लगता है। दूसरे शब्दों में, नहुष और ययाति सूर्य वंश के साथ-साथ चंद्र वंश में भी दिखाई देते हैं। दोनों में से केवल नहुष ही इक्ष्वाकु सिंहासन पर बैठे और उनके बाद ययाति के पुत्र नाभाग आए। किसी कारणवश ययाति अयोध्या के राजा नहीं बन पाए। इसका कारण शिलालेखों में दिए गए चोल वंश के वर्णन से ही समझा जा सकता है।
चोल वंश के सामान्य पूर्वजों में से भरत और सिबी, पुरु और अनु के माध्यम से ययाति के वंशज थे। राम ययाति के वंशज थे जो सूर्य वंश के नाभाग के पिता थे। सूर्य वंश और चंद्र वंश, दोनों में ययाति का नाम आने से पता चलता है कि सूर्य वंश में उत्पन्न ययाति को चंद्र वंश के राजा ने गोद लिया था। वंशनाम जो भी रखा गया हो, उनके सभी वंशज समानुवंशिक थे, जिससे वे सभी एक ही पितृवंशीय धारा के होते थे। इसी कारण चोलों ने भरत, सिबी और राम, तीनों को अपने पूर्वजों के रूप में मान्यता दी। उनके शिलालेखों में स्पष्ट रूप से दी गई यह जानकारी भारत के इतिहास में एक नया अध्याय खोल देती है कि उत्तर-दक्षिण विभाजन जैसा कुछ नहीं है। बहुत पहले के अतीत में इक्ष्वाकु वंश कावेरी नदी के जन्म से पहले ही दक्षिण भारत में पुम्पूहार तक पहुंच गया था, क्योंकि तिरुवलंगाडु शिलालेखों में चोल वर्मन के बाद के वंशज चित्रधनवन का उल्लेख है, जो कावेरी को पश्चिमी घाट से उसी प्रकार लाए थे, जैसे भगीरथ गंगा लेकर आए थे।
भगवान रंगनाथ का विग्रह तमिलनाडु के श्रीरंगम मंदिर में स्थित है। इसके बारे में एक किंवदंती है कि श्रीराम ने इस देवता की पूजा की थी और उनके राज्याभिषेक के दौरान उनका विग्रह विभीषण को दिया था। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम द्वारा विभीषण (6-128-90) को सौंपे गए ‘कुल धनम्’ का उल्लेख है। इस देवता का एक बार फिर उल्लेख हुआ, जब श्रीराम मृत्युलोक छोड़ने के लिए तैयार हो रहे थे। उन्होंने विभीषण को इक्ष्वाकुओं के देवता ‘जगन्नाथ’ (7-121) की पूजा करने की सलाह दी।
इससे पहले, वाल्मीकि ने दशरथ द्वारा आयोजित राज्याभिषेक के पहले अवसर पर श्रीराम द्वारा विष्णु की पूजा करने का वर्णन किया है। ऐसा कहा गया था कि श्रीराम और सीता ने उस समय विष्णु की पूजा की, विष्णु के लिए यज्ञ किया और विष्णु के निवास (मंदिर) में रात बिताई (वा. रा. 2-6)। इन सभी से संकेत मिलता है कि श्रीराम के पास अपने लिए विष्णु का विग्रह था। यहां यह प्रश्न उठता है कि यदि विग्रह पारिवारिक संपत्ति होती, तो कोई इसे परिवार के बाहर के लोगों को कैसे देगा? यदि यह विभीषण को दिया गया था, तो उन्होंने इसे कावेरी नदी के द्वीप पर क्यों छोड़ दिया? यदि श्रीराम ने विग्रह दिया तो विभीषण से यह अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि वह इसे अपने निवास (लंका) ले जाते और रास्ते में नहीं छोड़ते। लेकिन उन्होंने इसे कावेरी के बीच एक टीले पर छोड़ दिया, जिसे श्रीरंगम के नाम से जाना जाने लगा। क्या ऐसा इसलिए था, क्योंकि वह क्षेत्र चोलों के नियंत्रण में था?
इसी के समानांतर रूप से हमें एक शिलालेख के रूप में यह जानकारी मिलती है कि श्रीरंगम के भगवान रंगनाथ चोल वंश के ‘कुल धनम्’ थे! श्रीरंगम मंदिर के सफेद टावर की भीतरी दीवार पर पाए गए कुलोत्तुंगा-तृतीय के शासन काल के एक शिलालेख में कहा गया है कि श्रीरंगम देवता चोल राजा के पास ‘कुल धनम्’ के रूप में आए थे (एसआईआई खंड 24, क्रं. 133, ए.आर. क्रंं. 1936-37 का 89)।
वही अभिव्यक्ति (कुल धनम्), जो वाल्मीकि रामायण में विभीषण को दिए गए विग्रह के लिए पाई गई थी, शिलालेख में चोल वंश के आधिपत्य के रूप में पाई जाती है। इसका केवल एक ही अर्थ है कि श्रीराम ने अपने ‘कुल धनम्’ को अपने वंशज चोल को उपहार के रूप में भेजा था, जो राज्याभिषेक समारोह में शामिल नहीं हो सका था, जिसे श्रीराम के लंका से लौटने पर अल्प सूचना पर बुलाया गया था। ययाति राम से कुछ ही पीढ़ी बड़े थे और पहले चोल (चोल वर्मन) श्रीराम के समय के बहुत करीब रहे होंगे।
श्रीराम ने विभीषण के माध्यम से अपने देवता को भेजकर सुदूर दक्षिण में अपने चचेरे भाई को याद किया, जिन्हें अपने गृह क्षेत्र लंका पहुंचने के लिए चोल क्षेत्र को पार करना पड़ा। विभीषण ने चोल वंश को देवता सौंपने के लिए मात्र एक संवाहक का कार्य किया। श्रीरंगम मंदिर के इतिहास ‘कोयिल ओलुगु’ में भी इसका उल्लेख है कि विभीषण द्वारा लाए जाने के समय से ही यह देवता चोल वंश के आधिपत्य में थे। यदि श्रीराम का आशय इसे विभीषण को देना रहा होता, तो विभीषण ने इसे श्रीरंगम में नहीं छोड़ा होता।
इस शिलालेख से कन्याकुमारी शिलालेख में वर्णित राम के वंश की भी पुष्टि होती है। चोलों के पूर्वज के रूप में श्रीराम का उल्लेख संगम युग से लेकर 10वीं शताब्दी के मध्य चोल-काल तक के साहित्यिक संदर्भों में भी है। यह खेदजनक है कि श्रीराम के साथ चोलों को इस अमूल्य संबंध को स्वयं तमिलों ने भुला दिया है। कम से कम अब तीनों (भरत, सिबी और राम) के बीच दक्षिण के चोल वंश (तमिलों) के साथ संबंध को एक भारत, श्रेष्ठ भारत की भावना के साथ पूरे भारत में प्रचारित किया जाना चाहिए।
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