आतंकी अजमल कसाब को फांसी की सजा दिलाने वाले सरकारी वकील उज्ज्वल निकम ने कहा कि उस समय बहुत दबाव था। कसाब अपने बचाव के लिए दांव-पेच आजमा रहा था, जबकि देश के बड़े वकील और जनता ही नहीं, तत्कालीन केंद्र सरकार भी कसाब को जल्दी फांसी पर लटकाना चाहती थी
‘मुंबई संकल्प’ के एक सत्र में ऑर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर अधिवक्ता उज्ज्वल निकम से रू-ब-रू हुए। निकम ने 26/11 आतंकी हमले के दौरान आई मुश्किलों और चुनौतियों पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा, ‘‘ हमें आतंकी का चेहरा तो दिखता है, लेकिन उसके पीछे कौन-सी ताकत है और इसे ‘ऑन रिकॉर्ड’ लाना है? मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी, आतंकी अजमल कसाब के माध्यम से पाकिस्तान को बेनकाब करना। 26/11 हमले के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार की एक राय थी कि कसाब का अलग-अलग तरह से ट्रायल किया जाए, ताकि उसे जल्द से जल्द फांसी दी जा सके। लेकिन क्या कसाब अकेला था? उसके पीछे एक शक्ति थी, जिसने सारा षड्यंत्र रचा। आतंकी हमले की साजिश हमारे देश में नहीं रची गई थी, यह साजिश पाकिस्तान में रची गई थी। अगर उस समय हम इस तरह नहीं सोचते तो शायद दुनिया के सामने पाकिस्तान का चेहरा उजागर नहीं कर पाते।’’
पहले भी पाकिस्तान हुआ बेनकाब
उज्ज्वल निकम ने कहा कि ऐसा नहीं है कि भारत ने पहली बार पाकिस्तान का चेहरा उजागर किया है। इससे पहले 1993 में मुंबई में जो सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे, उसकी साजिश भले ही दुबई में रची गई थी, लेकिन इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ था। इस धमाके में दुबई में मौजूद अंडरवर्ल्ड सरगना ने मुंबई के तीन लोगों का इस्तेमाल किया था। तीनों को इस्लामाबाद से 30 किलोमीटर दूर सैन्य छावनी में प्रशिक्षण दिया गया था। उस समय भी मैंने कहा था कि इन अभियुक्तों के विरुद्ध भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का चार्ज लगाया जाए। भले ही वे हमारे देश के नागरिक थे, लेकिन उन्हें आतंकवाद के लिए प्रोत्साहित किया गया। उसके पीछे कौन लोग थे?
एक बात और, कसाब ने सुनवाई के दौरान जो ड्रामे किए, उसके बारे में सभी जानते हैं। पहले उसने कहा कि वह नाबालिग है। किशोर न्याय अधिनियम के अनुसार, उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। तब मैंने अदालत को बताया कि आतंकियों को किस तरह से प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिए बाकायदा अलकायदा का मैन्युअल अदालत के समक्ष पेश किया। मैंने अदालत को बताया कि पकड़े जाने पर पुलिस को किस तरह बरगलाना है, अदालत में कैसा व्यवहार करना है और अपने बचाव के लिए क्या करना है, आतंकवादियों को इसका प्रशिक्षण दिया जाता है। इसीलिए अपने खिलाफ सबूत मिलने पर कसाब ने पहले अपना अपराध स्वीकार किया। वह बड़ी चालाकी से आंशिक रूप से अपना अपराध स्वीकार कर रहा था और आंशिक रूप से उसे नकार भी रहा था। उसका कहना था, ‘‘मैंने कुछ नहीं किया।
मेरे साथ अबु इस्माइल ने गोलियां चलाई। मैं तो उसके साथ पाकिस्तान से इसलिए आया, क्योंकि बॉलीवुड में मेरी रुचि थी।’’ इसलिए जब अदालत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं कसाब के बयान से सहमत हूं, तो मैंने तत्काल कहा कि सहमत नहीं हूं। हालांकि उस समय जनता का बहुत दबाव था। इसी के साथ मैंने अदालत में साक्ष्य पेश किए। मीडिया में आलोचना शुरू हो गई। बड़े-बड़े वकील टीवी पर बोलने लगे कि फिजूल में जनता का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। अगर उस समय मैं दबाव में झुक जाता तो मुंबई आतंकी हमले में पाकिस्तान का नाम कभी नहीं आता। उसके द्वारा रची गई साजिश पर से परदा नहीं उठता। मेरा एक ही उद्देश्य था, कसाब का अपराध साबित करना।
मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी
उन्होंने आगे बताया कि 26/11 आतंकी हमले के सिलसिले में जो 4 सदस्यीय जांच दल पाकिस्तान भेजा गया था, उसमें वह भी थे। इनमें तीन अधिकारी थे। इस्लामाबाद में हमने पाकिस्तान के गृह मंत्री से बात की और उन्हें आतंकी हमले के सबूत दिखाए। हमें यह देखना था कि उन्होंने क्या सबूत इकट्ठे किए हैं। आश्चर्य! उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया। यहां तक कि छोटे-मोटे अपराधियों की गिरफ्तारी दिखाकर हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद और जकी-उर-रहमान लखवी को रिहा कर दिया। मैंने इस्लामाबाद गृह मंत्रालय में कॉन्फ्रेंस बैठक के दौरान पाकिस्तानी सेना के ब्रिगेडियर से पूछा भी कि इन आतंकियों को आप क्यों गिरफ्तार नहीं कर रहे हैं? उनके खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र रचने का मामला क्यों नहीं दर्ज किया?
मामूली अपराधियों को क्यों गिरफ्तार किया गया है? तब उनकी तरफ से कहा गया कि हमने कोई सबूत ही नहीं दिया है। मैं अचंभित रह गया। उनसे कहा कि साजिश तो आपके यहां रची गई। सबूत भी आपको ढूंढना चाहिए था। तब उनका जवाब था कि भारत ने संयुक्त जांच की अनुमति नहीं दी। इस मामले में मिलकर जांच करने का मतलब क्या है? हमारा काम सबूत देना था, जो दे दिया गया। लेकिन पाकिस्तानी पक्ष इससे भी मुकर गया। इस तरह, आठ दिन वहां रह कर हमने उन्हें सारे सबूत दिए।
निकम ने आगे बताया कि भारत आने के बाद उन्हें पता चला कि डेविड हेडली ने शिकागो अदालत में क्षमा याचिका दाखिल कर अपराध कबूल किया है। आनलाइन माध्यम से मैंने शिकागो अदालत की कार्रवाई पढ़ी। अदालत ने उसकी याचिका स्वीकार कर ली थी। इसमें हेडली ने बताया था कि मुंबई में 26/11 आतंकी के हमले से पहले वह होटल ताज, आॅबरॉय, नरीमन हाउस गया था। जहां-जहां हमले होने थे, उसकी फोटो लेकर उसने पाकिस्तान को भेजे थे। इस आधार पर उसे 35 साल की सजा सुनाई गई थी। उसने एक शर्त पर अपना अपराध कबूला था कि उसे भारत या पाकिस्तान को नहीं सौंपा जाए। लेकिन मुझे उसका बयान चाहिए था, इसलिए उसी रात मैं तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पास गया और उन्हें सारी बात बताई। उन्होंने तत्काल जो किया, वह उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति को दिखाता है। उनके सहयोग के बिना हेडली के बयान को रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता था। जब तक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, तब तक आतंकवाद का खात्मा नहीं किया जा सकता।
उन्होंने कहा कि हेडली को माफी दी गई थी। उसे भारत लाकर अदालत में पेश नहीं किया जा सकता था, क्योंकि अमेरिका के साथ उसका समझौता हुआ था। तब हमने ‘काउंटर टेररिज्म’ की चाल ली। हमने भी उसे माफी दे दी। लेकिन उसे गवाही देने के लिए तैयार कर लिया। उसने हमें बताया कि आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा के बीच किस तरह की सांठगांठ है। हेडली ने बाकायदा आईएसआई अधिकारियों के फोन नंबर दिए, जिसे मैंने अदालत में पेश किया। फिर पूरा साक्ष्य केंद्र सरकार को दिया। सरकार ने वे साक्ष्य राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को दिए, जो बाद में पाकिस्तान को सौंपे गए। लेकिन पाकिस्तान सबूत लेकर चुपचाप बैठ गया।
प्रोपेगेंडा से मुकाबले के लिए तंत्र बने
यह पूछने पर आतंकियों का भी मानवाधिकार हो सकता है, उन्होंने कहा कि बहुत कुछ मीडिया पर निर्भर करता है। कई बार देखने में आया है कि आतंकियों और अपराधियों की मानवाधिकार की दुहाई देते हुए एक इको सिस्टम सक्रिय हो जाता है। महाराष्ट्र के शक्ति मिल सामूहिक बलात्कार मामले में भी यह देखा गया है। चार लोगों ने एक लड़की का बलात्कार किया था। इस मामले में तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का रवैया देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। लड़की के साथ जो मानवाधिकार कार्यकर्ता थी, उसका कहना था कि आरोपियों को फांसी की सजा दी जानी चाहिए। लेकिन दूसरे तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता इसके खिलाफ थे।
उन्होंने बताया कि 26/11 आतंकी हमले के सिलसिले में जो 4 सदस्यीय जांच दल पाकिस्तान भेजा गया था, उसमें वह भी थे। इनमें तीन अधिकारी थे। इस्लामाबाद में हमने पाकिस्तान के गृह मंत्री से बात की और उन्हें आतंकी हमले के सबूत दिखाए। हमें यह देखना था कि उन्होंने क्या सबूत इकट्ठे किए हैं। आश्चर्य ! उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया।
कसाब के मामले में भी यही हुआ था। इसलिए अपराधियों और आतंकवादियों को लेकर उठने वाले मानवाधिकार की दलीलों की अनदेखी करनी चाहिए। साथ ही, इस तरह के ‘गॉब्लस प्रोपेगेंडा’ का मुकाबला करने के लिए हमें एक तंत्र विकसित करना चाहिए। यदि एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो आम आदमी उसे सच मानने लगता है। कसाब का मटन बिरयानी का किस्सा सबके सामने है। सबको लगता था कि कसाब ने सचमुच मटन बिरयानी मांगी थी। हालांकि कसाब ने ऐसा कुछ नहीं मांगा था, लेकिन कभी-कभी हमें ऐसा करना पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी स्तर पर हमें सतर्क रहना होगा, ताकि देख सकें कि भविष्य में क्या होने वाला है।
अफजल गुरु जैसे आतंकियों के लिए आधी रात को अदालत का दरवाजा खोलने के सवाल पर उन्होंने कहा कि भारत की न्याययिक प्रक्रिया बहुत ही गड्डमड्ड है। हमें इस तरह के मामलों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कानून में बहुत कमियां हैं। गुलशन कुमार हत्याकांड में भी ये कमियां देखने में आई। इस मामले में नदीम सैफी ने मजहब को आधार बनाकर लंदन की अदालत में याचिका दाखिल की और प्रत्यर्पण से बचने में सफल रहा। समस्या यह है कि हमारे यहां मरते समय कोई कहता है कि मुझे फलां ने मारा है, तो कानून उसे मान लेगा। लेकिन यही बात अगर कोई इंग्लैंड में कहता है तो उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा।
भारत की अदालत द्वारा अगर कोई गैरजमानती वारंट जारी किया गया, जिसे इंटरपोल के जरिये प्रभाव में लाया गया तो दूसरे देश की अदालत को प्रथमदृष्टया इसे साक्ष्य मानते हुए स्वीकार करना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। वे हमारे मुकदमों की सुनवाई अपने यहां क्यों करती हैं? विजय माल्या के मामले में भी यही हो रहा है। भारतीय कानून में इस विरोधाभास को ठीक करना होगा। कानून में इन्हीं कमियों के कारण आज तक अपराधियों के प्रत्यर्पण में बाधाएं आती हैं। यही बात आतंकवाद और इसके वित्तपोषण के मामले में लागू होती है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को दृढ़ता से इस पर विचार करना होगा कि आतंकवाद को वित्तपोषण भी आतंकवाद ही है।
अमेरिका में 9/11 आतंकी हमले के बाद की कोई तस्वीर मीडिया में नहीं आई, लेकिन मुंबई आतंकी हमले की लाइव रिपोर्टिंग करने पर उन्होंने कहा कि सर्वोच्च अदालत ने कई बार कहा है कि मीडिया को आत्मसंयम बरतना चाहिए। 26/11 आतंकी हमले की लाइव रिपोर्टिंग देखकर आतंकियों के सरगना उन्हें लगातार निर्देश दे रहे थे कि फलां जगह से हट जाओ, वहां सेना आ गई है। इस तथ्य को मैंने बाकायदा सबूत के तौर पर अदालत में भी प्रस्तुत किया। राष्ट्रहित में मीडिया को ऐसा नहीं करना चाहिए था। न्यायपालिका में परिवारवाद के सवाल पर उन्होंने कहा कि इस मामले में कानून मंत्री किरेन रीजिजू ने जो कहा है, उससे मैं सहमत हूं। न्यायपालिका पर मुझे गर्व है, लेकिन मेरे हिसाब से इसमें पारदर्शिता होनी चाहिए।
कार्यक्रम के अंत में अपने काम के प्रति संतुष्टि जताते हुए निकम ने कहा कि उन्हें इस बात की बहुत खुशी है कि उन्होंने मुंबई हमले में पाकिस्तान की भूमिका को उजागर किया। क्योंकि इसी कारण से फाइनेंशियल टास्क फोर्स ने पाकिस्तान को ग्रे सूची में डाला था। दुर्भाग्य से 1993 बम धमाके में सबूत के अभाव में पाकिस्तान का हाथ होने के सबूत नहीं मिले। अबु जिंदाल मामले में भी गवाही लगभग पूरी हो चुकी है। उच्च न्यायालय से उसने स्टे लिया है, इसलिए सुनवाई रुकी हुई है।
(वर्ष 2022 में प्रकाशित, साभार पाञ्चजन्य आर्काइव )
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