बांग्लादेश में चुनावी सरगर्मी जोरों पर है। सभी दल अपने चुनाव कार्यक्रमों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। वहां जनवरी 2024 में चुनाव होने प्रस्तावित हैं। इस देश में दो प्रमुख दल हैं सत्तारूढ़ अवामी लीग और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी, जो कट्टर मजहबी मुद्दों को उठाती रही है। इस सबके बीच बांग्लादेश की सबसे बड़ी अदालत का ताजा फैसला चर्चा का विषय बन गया है। अदालत ने कट्टरपंथी जमात—ए—इस्लामी को चुनाव से बाहर रखने का फैसला दिया है। इसके पीछे अदालत ने जो वजहें बताई हैं, वे अपने आप में बहुत मायने रखती हैं।
बांग्लादेश की सबसे बड़ी अदालत ने विपक्षी दल जमात—ए—इस्लामी को चुनाव से बाहर ही रखने का आदेश देते हुए कहा है कि यह पार्टी न तो देश के संविधान का सम्मान करती है, न ही यह यहां के सेक्युलर मूल्यों को मानती है।
उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश की सबसे बड़ी इस्लामवादी पार्टी जमात-ए-इस्लामी हमेशा ही कट्टरपंथी रास्ते पर चली है और मुल्लावाद को बढ़ावा देने में आगे रही है। अदालत के इस फैसले से पार्टी के मुल्ला—मौलवी खासे नाराज बताए जा रहे हैं। जमात बीएनपी को सहयोग करती आ रही है, क्योंकि खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी भी इस्लामवादी विषयों को ज्यादा हवा देती रही है।
भारत के इस पड़ोसी देश में जमात—ए—इस्लामी चौथी सबसे बड़ी पार्टी मानी जाती है। ये वही पार्टी है जिसने तब इस बात का विरोध किया था कि पूर्वी पाकिस्तान को मुख्य भूमि पाकिस्तान से अलग किया जाए। लेकिन इसका कुल जमा काम बांग्लादेश के मुल्ला—मौलवियों को भड़काने और कट्टर इस्लामी मूल्यों को आगे रखने का रहा है। दुनिया में कहीं भी मुस्लिम विरोधी कोई घटना होने पर यही पार्टी बांग्लादेश में उपद्रव खड़े करती आ रही है।
सबसे बड़ी अदालत के इस फैसले के बाद जमात-ए-इस्लामी में आक्रोश और असमंजस की स्थिति देखने में आ रही है। इस पार्टी ने आगामी चुनाव को देखते हुए उसमें उतरने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से अपने पर पहले से लगी पाबंदी को हटाने की याचिका डाली हुई थी। इसी की सुनवाई करने के बाद अदालत ने पार्टी को इस सिलसिले में कोई राहत नहीं दी है।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ओबैदुल हसन की अध्यक्षता में सबसे बड़ी अदालत की 5 सदसीय पीठ ने जमात-ए-इस्लामी की याचिका पर सुनवाई के बाद उक्त फैसला सुनाया है। निर्णय सुनाते हुए पीठ का कहना था कि चूंकि जमात-ए-इस्लामी न हमारे देश का संविधान मानती है, न ही यहां के सेक्युलर मत का सम्मान करती है। इसलिए इसे चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ओबैदुल हसन की अध्यक्षता में सबसे बड़ी अदालत की 5 सदसीय पीठ ने जमात-ए-इस्लामी की याचिका पर सुनवाई के बाद उक्त फैसला सुनाया है। निर्णय सुनाते हुए पीठ का कहना था कि चूंकि जमात-ए-इस्लामी न हमारे देश का संविधान मानती है, न ही यहां के सेक्युलर मत का सम्मान करती है। इसलिए इसे चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
उल्लेखनीय है कि इस्लामवादी जमात—ए—इस्लामी पार्टी पर 2013 में वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने ही चुनाव से बाहर किया था। तब भी अदालत ने सेक्युलर मूल्यों को इस पाबंदी की वजह बताया था। तब अदालत का यह फैसला आने के बाद बांग्लादेश के चुनाव आयोग ने फौरन जमात—ए—इस्लामी पार्टी का पंजीकरण निरस्त करते हुए चुनाव लड़ने की उसकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। तब अदालत ने न सिर्फ उस पार्टी के चुनाव में उतरने पर पाबंदी लगा दी थी बल्कि उसके चुनाव चिन्ह के प्रयोग पर भी रोक लगा दी थी।
उसके बाद जमात—ए—इस्लामी सड़कों पर उतरी थी और सत्ता विरोधी प्रदर्शन किए थे। बाद में भी अनेक अवसरों पर इस पार्टी ने शेख हसीना सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोले रखा और हर मुद्दे पर सरकार को घेरने में सबसे आगे रही है।
सूत्रों के अनुसार, जमात-ए-इस्लामी पार्टी पर चुनाव के संदर्भ में अदालत द्वारा रोक लगाने के बाद, अनेक विपक्षी दलों ने फैसले के प्रति अफसोस जताते हुए संकेत दिए हैं कि शायद वे चुनाव का बहिष्कार करें। विपक्षी दलों ने कहा है कि सत्तारूढ़ अवामी लीग और प्रधानमंत्री शेख हसीना जब तक कुर्सी पर रहेंगी तब तक इस देश में भी निष्पक्ष चुनाव होना संभव नहीं है।
यहां बता दें कि जमात-ए-इस्लामी पार्टी ने सबसे पहले इस देश में 1978 में हुए आम चुनावों में भाग लिया था। उसके बाद 1986 में संसद में इसका संख्याबल बढ़ गया और तब इसके संसद में 18 सदस्य थे। पाकिस्तान परस्त रही जमात ने अपना प्रभाव लगातार बढ़ाते हुए 2001 में सत्ता में भागीदारी की थी जब खालिदा जिया की बीपीएनपी सरकार में इसके नेता मंत्री तक बनाए गए थे।
यही कट्टरपंथी पार्टी है जिसके अनेक नेताओं पर 1971 के युद्ध में बांग्लादेशियों को यातनाएं देने और मुक्ति बाहिनी के लोगों को मारने के अनेक आरोप लगे थे। 1990 में बांग्लादेश में फौजी राज के खत्म होने के बाद, इसी जमात-ए-इस्लामी के कट्टरपंथी सदस्यों के विरुद्ध युद्ध-अपराध के मुकदमे चलाए गए थे। इनमें से कई मजहबी उन्मादी नेताओं को 2010 में युद्ध अपराधों का दोषी पाए जाने के बाद सजाएं सुनाई गई थीं।
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