भगवान श्रीराम लंका विजय करके कार्तिक मास की अमावस को अयोध्या लौटे। अयोध्या आने में उन्हें 20 दिन लगे।
भारतीय उत्सव परंपरा में एक महत्वपूर्ण अवधि विजयादशमी से दीपावली के बीच के 20 दिनों की है। यह अवधि भगवान श्रीराम द्वारा सभी वर्गों और समाज के सभी जनों को एक सूत्र में पिरोने से जुड़ी है। इसका अनुपालन आज भी भारतीय सनातन समाज कर रहा है। लेकिन संदेश कुछ विस्मृत हो गया है और स्वरूप थोड़ा बदल गया है।
भगवान श्रीराम लंका विजय करके कार्तिक मास की अमावस को अयोध्या लौटे। अयोध्या आने में उन्हें 20 दिन लगे। श्रीराम ने रावण का वध दशहरे पर किया था। लंका में रावण सहित उसके सभी परिजनों के अंतिम संस्कार में एक दिन लगा। दूसरे दिन विभीषण का राज्याभिषेक हुआ और उसी दिन सीता माता को ससम्मान भगवान श्रीराम के पास भेजने की व्यवस्था विभीषण ने कर दी थी। एक मतानुसार, यदि ससम्मान विदाई में एक दिन और मान लें, तो भी कुल मिलाकर तीन दिन होते हैं। विभीषण ने श्रीराम को पुष्पक विमान भेंट किया था, जिससे वह अयोध्या लौटे थे। पुष्पक विमान की गति पवन से भी तेज थी।
इसका अर्थ हुआ कि भगवान श्रीराम कुछ घंटों में ही लंका से अयोध्या आ सकते थे। तब मार्ग में 17 दिन क्यों लगे? यदि उनके लौटने पर दीप जलाए गए तो आगे चलकर यह उत्सव दीपोत्सव तक ही सीमित क्यों नहीं रहा? यदि यह मात्र दीपोत्सव होता, तो इन 20 दिनों में दीपावली की जो तैयारी होती है, वह सिर्फएक व्यक्ति या परिवार की होती, पर इसमें समाज के विभिन्न समूहों का सहयोग लगता है।
धनवन्तरि उत्सव से लेकर भाई दूज तक पांच दिनों तक तो उत्सव ही चलता है। इन पांच दिनों में ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो क्रय नहीं की जाती? ऐसा कौन-सा वर्ग है, जिससे संपर्क करके सहयोग नहीं लिया जाता? घर की झाड़ू से लेकर स्वर्णाभूषण तक, सभी वस्तुएं क्रय की जाती हैं। समाज का ऐसा कौन-सा वर्ग या व्यक्ति है, जिसे भेंट नहीं दी जाती? इन प्रश्नों का उत्तर भगवान श्रीराम के अयोध्या वापसी के यात्रा वृत्तांत में मिलता है। पुष्पक विमान में बैठकर उन्होंने सीधे अयोध्या का मार्ग नहीं अपनाया था, अपितु वे विभिन्न वन्य, ग्राम्य क्षेत्रों और ऋषि आश्रमों में गए। ये सभी क्षेत्र वे थे, जहां श्रीराम वनवास यात्रा में सीताहरण से पहले भी गए थे। वे सभी समाजों से मिले और समाज प्रमुखों को अयोध्या आने का आमंत्रण दिया। वास्तव में इस कार्य में ही उन्हें 17 दिन लगे। लंका से विदा होने से पहले समस्त लंकावासी उनसे मिले, श्रीराम ने उन्हें भी अयोध्या आमंत्रित किया।
इस प्रकार ये 20 दिन सभी वर्गों और समाज के व्यक्तियों को परस्पर समरूप होने और एक-दूसरे का पूरक बनने और बनाने की अवधि है। भगवान श्रीराम पूरे समाज से जुड़े और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया। चूंकि दानवी शक्तियां सदैव समाज के बिखराव का लाभ उठाती हैं। श्रीराम ने श्रीलंका से लौटते समय संपूर्ण समाज को एकत्व का यही संदेश दिया कि यदि समाज संगठित रहेगा, सशक्त रहेगा तो आसुरी शक्तियां सभ्य-सुसंस्कृत समाज को कभी कष्ट न दे सकेंगी। आज यद्यपि हम मूल उद्देश्य भूल गए, पर इन 20 दिनों में समाज को जोड़ने और जुड़ने की प्रक्रिया यथावत है। इन दिनों हम साफ-सफाई, लिपाई-पुताई से लेकर नए वस्त्र, बर्तन, आभूषण, घर या भवन को सजाने की वस्तुएं क्रय करते हैं, ताकि हर हाथ को काम मिले। सबको एक-दूसरे की आवश्यकता अनुभव हो, सब एक-दूसरे का महत्व समझें।
भारत विविधता से भरा देश है। यह विविधता इतनी व्यापक है कि भाव, भाषा और रीति-रिवाज ही नहीं, रहन-सहन में भी अलग दिखते हैं। यह विविधता केवल बाह्य रूप में है। आंतरिक स्वरूप में सब एक हैं। इसी सिद्धांत को जीवन में उतारने का काम प्रभु श्रीराम ने इन 20 दिनों में किया था। यह परस्पर अनुपूरकता हमें आज भी दीपावली की तैयारी में दिखाई देती है। इन 20 दिनों में भारतीय संस्कृति के एकत्व और परस्पर अनुपूरकता के दर्शन होते हैं।
भारतीय संस्कृति एक मात्र ऐसी संस्कृति है, जिसमें समूची वसुंधरा के निवासियों को कुटुंब माना जाता है। संसार का एक-एक प्राणी उसके कुटुंब का अंग है। यही संदेश दशहरा और दीपावली के बीच की अवधि का है। सभी समाज और वर्ग परस्पर एक-दूसरे से जुड़ें, एक-दूसरे के पूरक बनें, कोई भेद न हो, न नगरवासी का, न ग्रामवासी का और न वन निवासी का। भगवान श्रीराम ने एक-एक वनवासी को राजमहल से जोड़ा और उन्हें तंग या उनका शोषण करने वाले संगठित समूहों का अंत किया। समय के साथ शब्द बदलते हैं, इसलिए संबोधन भी बदले। किन्तु सबकी परस्पर पूरकता का भाव आज भी यथावत है। यह संदेश आज भी स्पष्ट है कि सब परस्पर अटूट संबंध बनाएं। इसी की स्मृति के दिन हैं 20 दिन।
इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखें। श्रीराम के प्रस्थान करते समय विभीषण ने श्रीलंका के अक्षय खजाने से विनतीपूर्वक कुछ भेंट अर्पित की थी। वह संपदा विमान में थी, जो उन्होंने वनवासियों को सक्षम और समृद्ध बनाने के लिए बांट दी थी। हम देखते हैं कि दीपावली की तैयारी में प्रत्येक परिवार की बचत प्रत्येक समाज को जाती है। प्रभु श्रीराम सभी समाज के मुखियाओं को अपने साथ लेकर ही अयोध्या लौटे थे। उनके साथ विमान में निषाद, किरात, केवट आदि सभी वनवासी समूहों के प्रतिनिधि थे। श्रीराम जानते थे कि जिस प्रकार वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुए फल से निकला बीज किसी दूसरे स्थान पर नया वृक्ष बन जाता है, समाज का विस्तार भी इसी तरह होता है।
विश्व की संपूर्ण मानवता का केंद्रीभूत बिंदु एक ही है। इसी भाव से उनका आचरण था और यही संदेश उन्होंने समाज को दिया। इसलिए ये 20 दिन समाज के समरस स्वरूप की स्थापना और समृद्ध बनाने के दिन हैं। हजार वर्ष के अंधकार के बाद भी भारतीय जीवन में यह परंपरा बनी हुई है। इसीलिए दीपावली पर केवल दीप नहीं जलाते, बल्कि सभी समाजों का मानो कायाकल्प होता है। धन से, श्रम से, परस्पर भेंट और आदान-प्रदान से भी।
तलाईमन्नार, रामायण में श्रीलंका का युद्ध स्थल। यहीं पर श्रीराम ने रावण का वध किया और सीता को बचाया था। इसके बाद श्रीराम के आदेश पर लक्ष्मण ने विभीषण को लंका का राजा नियुक्त किया। इसके तुरंत बाद, सीता, राम और लक्ष्मण अयोध्या के लिए रवाना हुए। परिवार से पुनर्मिलन ने उन उत्सवों को जन्म दिया, जिन्हें हम दीपावली के रूप में जानते हैं। श्रीराम की अयोध्या से लंका तक की यात्रा का रेखांकन रामायण में वर्णित है, लेकिन उनकी वापसी यात्रा के मामले में ऐसा नहीं है।
रामायण में प्रभु राम की वापसी यात्रा के संबंध में कुछ बिंदु, जो बहुत स्पष्ट हैं। पहला, लंका विजय के बाद श्रीराम व उनके दल ने अयोध्या जाने से पहले किष्किंधा प्रवास किया। दूसरा, अयोध्या में प्रवेश करने से पहले वह ऋषि भारद्वाज आश्रम में रुके थे। अब अगर हम दक्षिण भारत में रामायण से जुड़ी मौखिक परंपराओं/किंवदंतियों का संदर्भ लें, जो प्रभु श्रीराम की वापसी यात्रा के संबंध में हैं, तो चुंचनकट्टे और मुथाथी में सीता व हनुमान से जुड़ी दो लोककथाएं प्रचलित हैं।
चूंकि रावण द्वारा सीता का अपहरण पंचवटी (नासिक) में किया गया था, इसलिए नासिक के दक्षिण में श्रीराम के साथ माता सीता की कोई भी कहानी राम की वापसी यात्रा से संबंधित होती है। दूसरी बात यह कि सीताजी के साथ हनुमानजी की यात्रा प्रभु श्रीराम की लंका से वापसी के दौरान ही होती है। सीताजी से उनकी पहली भेंट ही लंका में हुई थी। अब चुंचनकट्टे का उदाहरण लें। चुंचनकट्टे श्री कोदंड राम मंदिर मैसूर के निकट है। जब सीताजी चुंचनकट्टे जलप्रपात में स्नान करना चाहती थीं, तो श्रीराम ने लक्ष्मण से उनके स्नान के लिए प्रबंध करने का निर्देश दिया।
विश्व की संपूर्ण मानवता का केंद्रीभूत बिंदु एक ही है। इसी भाव से उनका आचरण था और यही संदेश उन्होंने समाज को दिया। इसलिए ये 20 दिन समाज के समरस स्वरूप की स्थापना और समृद्ध बनाने के दिन हैं। हजार वर्ष के अंधकार के बाद भी भारतीय जीवन में यह परंपरा बनी हुई है। इसीलिए दीपावली पर केवल दीप नहीं जलाते, बल्कि सभी समाजों का मानो कायाकल्प होता है। धन से, श्रम से, परस्पर भेंट और आदान-प्रदान से भी।
लक्ष्मण ने चट्टानों पर तीर मारा और पानी प्रचुर मात्रा में बहने लगा, तब सीताजी स्नान कर सकीं। दूसरी पौराणिक कहानी मुथाथी से जुड़ती है, जो कर्नाटक के मांड्या जिले में घोर वन क्षेत्र का एक छोटा-सा गांव है। मान्यता यह है कि जब माता सीता इस स्थान पर स्नान कर रही थीं, तो उनकी नथ नदी में गिर गई थी। तब आंजनेय (हनुमानजी) तैरते हुए गहरे पानी में गए और उसे लेकर आए। इसलिए इस स्थान को मुथाथी कहा जाता है। मुथु का अर्थ होता है मोती। इस प्रकार आंजनेय का एक नाम मुथेथरया (मोती की माला का पता लगाने वाला) भी पड़ा। अगर किष्किंधा और चुंचनकट्टे को जोड़ते हुए एक सीधी रेखा खींची जाए, तो आगे बढ़ाने पर वह लंका तक पहुंचती है।
त्रिंकोमाली- डॉ. राम अवतार ने 48 वर्ष तक भगवान श्रीराम से संबद्ध तीर्थों पर शोध किया है। उनकी पुस्तक ‘वनवासी राम और लोक संस्कृति’ में प्रभु श्रीराम के विभिन्न प्रयाणों से संबंधित 290 स्थानों को चिह्नित किया गया है। उनके शोध के अनुसार, जब श्रीराम माता सीता के साथ अयोध्या जा रहे थे, तो उन्होंने रावण वध में निहित ब्रह्म हत्या के संदर्भ में लंका में उस स्थान पर रुक कर तपस्या की थी, जिसे अब त्रिंकोमाली कहा जाता है।
वैसे भारत में भी कुछ स्थानों के बारे में दावा किया जाता है कि भगवान राम ने इन स्थानों पर ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित किया था। इनमें एक है- गंधमादन पर्वत। रावण वध के कारण ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि अगस्त्य की सलाह पर श्रीराम गंधमादन पर्वत पर रुके थे और भगवान शिव की पूजा की थी। इस मंदिर में इसका उल्लेख करने वाले शिलालेख हैं। इसे एक पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है।
धनुषकोटि- रामजी धनुषकोटि होते हुए लंका गए थे। वापसी भी धनुषकोटि के रास्ते की थी। कहा जाता है कि जब अयोध्या लौटते समय विभीषण के अनुरोध पर उन्होंने धनुष की नोक से पुल तोड़ दिया था। वह स्थान आज धनुषकोटि के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि विभीषण ने ऐसा इसलिए किया, ताकि कोई लंका पर आक्रमण न कर सके। इसके अलावा, समुद्र ने भी पुल तोड़ने को भी कहा था, ताकि कोई समुद्र पार न कर सके।
चक्रतीर्थ अनागुंडी (हम्पी)- इसके बाद भगवान राम और माता सीता तुंगभद्रा नदी के किनारे रुके थे। जहां यह नदी धनुषाकार मोड़ लेती है, उसे चक्रतीर्थ कहा जाता है। माना जाता है कि अयोध्या वापसी के समय माता सीता के अनुरोध पर पुष्पक विमान यहां उतरा था। बाद में सुग्रीव ने यहां कोदंड राम मंदिर का निर्माण करवाया। कुछ लोक कथाओं में कहा जाता है कि भगवान राम की प्रयाग में ऋषि भारद्वाज से भेंट हुई थी।
भदर्शा (अयोध्या)- जब भगवान अयोध्या पहुंचे तो भदर्शा नामक बाजार में लोगों को पहली बार विमान में भगवान के दर्शन हुए। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-
इहां भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥1॥
अर्थात् यहां (विमान से) सूर्य कुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्रीराम वानरों को मनोहर नगर दिखला रहे हैं। वे कहते हैं- हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुंदर है।
रामकुंड पुहपी- यहां भगवान राम का विमान उतरा था, जिसके बाद इस स्थान का नाम पुष्पकपुरी पड़ा। यह स्थान पुहपी के नाम से जाना जाता है। इसके निकट ही नंदीग्राम में भरत तपस्या करते हुए श्रीराम के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय भगवान राम ने हनुमानजी को भरतजी का समाचार देकर उनसे मिलने भेजा। इसी स्थान पर हनुमानजी और भरतजी का भावपूर्ण मिलन हुआ था।
भरत कुंड (नंदीग्राम)- यह स्थान अयोध्या से लगभग 10 किमी. दूर है।
कहा जाता है कि यहीं श्रीराम और भरत का भावपूर्ण मिलन हुआ था। इसके पास ही जटा कुंड है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां भगवान राम ने सबसे पहले भरत और लक्ष्मण के केश साफ कराए थे, फिर अपने। इसके बाद जुलूस के साथ मंदिर में प्रवेश किया था। इसके अलावा, इसके आसपास कई स्थान हैं, जिनके अलग-अलग प्रसंग जोड़े जाते हैं। उनमें से एक है सुग्रीव कुंड, जिसमें सुग्रीव ने स्नान किया था। यहां हनुमान, सीता, राम कुंड है, जहां हनुमान, सीता, राम ने क्रमश: स्नान किए थे। अयोध्या पहुंचने पर नगरवासियों ने भगवान राम के स्वागत में घी के दीये जलाए थे, जिसे हम दिवाली के रूप में मनाते हैं।
किष्किंधा (हम्पी)- श्रीराम ने माता सीता को वे सभी स्थान दिखाए, जहां वे उनकी खोज के दौरान रुके थे। जब उन्होंने किष्किंधा दिखाया तो माता सीता बहुत प्रसन्न हुर्इं और श्रीराम से अपने राज्याभिषेक के लिए तारा, रुमा और किष्किंधा की सभी राज महिलाओं को अयोध्या ले जाने का अनुरोध किया। श्रीराम पुष्पक विमान से सभी राजमहिलाओं को अयोध्या लाए।
कछानगिरि- जब हनुमानजी ने श्रीराम को अपना जन्म स्थान दिखाया तो उन्होंने माता अंजना के प्रति सम्मान प्रकट करने की इच्छा जताई। वे काचनगिरि में रुके, जहां माता अंजना निवास करती थीं। श्रीराम, माता सीता, लक्ष्मण सहित हनुमानजी ने माता अंजना का आतिथ्य स्वीकार किया और अयोध्या जाने से पहले उनका आशीर्वाद लिया।
पंचवटी- जन आस्था है कि श्रीराम और माता सीता ऋषि अगस्त्य का आभार व्यक्त करने के लिए पंचवटी के पास उनके आश्रम में रुके थे। हालांकि महर्षि वाल्मीकि के अनुसार, श्रीराम भरत के लिए चिंतित थे, इसलिए उन्होंने पुष्पक को हवा में केवल धीमा करने का अनुरोध किया और ऋषि ने उन्हें आश्रम से ही आशीर्वाद दिया था।
चित्रकूट- पंचवटी से श्रीराम सीधे चित्रकूट के लिए रवाना हुए। वह उन सभी ऋषियों का आशीर्वाद लेना चाहते थे, जिनकी उन्होंने चित्रकूट प्रवास के दौरान सेवा की थी। कहा जाता है कि अयोध्या जाने से पहले उन्होंने कुछ देर चित्रकूट में विश्राम किया था। जिन पेड़ों के नीचे श्रीराम और माता सीता ने विश्राम किया था, उनकी स्मृतियों और उनके प्रवास से उत्पन्न दिव्य आभा के रूप में आज भी उनकी पूजा की जाती है।
प्रयाग (ऋषि भारद्वाज आश्रम)- जिस तरह श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण ने वनवास शुरू करने से पहले ऋषि भारद्वाज का आशीर्वाद लिया था, उसी तरह वे वनवास के सफल समापन पर ऋषि के पास गए थे। श्रीराम ने भरत को अपनी वापसी की सूचना देने के लिए यहीं से हनुमान को नंदीग्राम भेजा था। श्रीराम ने ऋषि भारद्वाज के साथ कुछ समय बिताया और पवित्र प्रयागराज में प्रार्थना भी की।
शृंगवेरपुर- ऋषि भारद्वाज का आशीर्वाद लेने के बाद श्रीराम अपने बचपन के मित्र निषादराज गुह को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए उनके स्थान शृंगवेरपुर गए। यहां माता सीता ने गंगा पूजन कर उनका आशीर्वाद मांगा था। यहां से सभी अनुचर चलकर नंदीग्राम पहुंचे और भरत ने उनका हार्दिक स्वागत किया। इस प्रकार के अनेक संदर्भ देश भर में उपस्थित हैं। त्रेतायुग से आज तक इन्हें तीर्थों जैसा महत्व प्राप्त है।
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