दीपावली या दिवाली, जो अपने आप में परिपूर्ण है एवं जिसकी ऐतिहासिकता पर्याप्त है, फिर भी बार-बार इस नाम को लेकर खिलवाड़ किया जाता है। विवाद होता, संगठित विरोध होने के बाद इस पर खेद प्रकट किया जाता है। यह क्यों होता है, यह किसलिए होता है, वैसे इसे समझना कठिन नहीं है।
इस वर्ष सोशल मीडिया पर भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) के नाम से एक पोस्टर वायरल हुआ। दीपावली के उत्सव को “जश्न-ए-रोशनी” नाम दिया गया। सोशल मीडिया पर मुद्दा उठा तो FSSAI की ओर से कहा गया कि यह दावा गलत है। FSSAI ने इस तरह का पोस्टर जारी नहीं किया है।
हर पर्व का नाम अपने में एक संस्कृति समेटे होता है, जैसे दीपावली! भारत में यह पर्व आज से नहीं मनाया जा रहा है। यह सदियों से मनाया जा रहा है और यह प्रभु श्री राम की अयोध्या वापसी को स्मरण कराता है। न जाने कब से इसके चित्र कहाँ-कहाँ उकेरे गए हैं। क्या होगा यदि पर्व का नाम बदल जाएगा ?
हालांकि FSSAI ने विवाद बढ़ने पर कहा कि सोशल मीडिया पर जो पोस्टर उनके प्राधिकरण को लेकर फैलाया जा रहा है, उस समारोह को अभी तक एफएसएसएआई ने अधिकृत नहीं किया है और न ही अनुमोदित किया है। परन्तु यह बात भी सामने निकल कर आई है कि यह कार्यक्रम पिछले वर्ष इसी नाम से आयोजित किया गया था। सोशल मीडिया पर लोगों ने उसी की वेबसाइट से पिछले वर्ष के आयोजन का विवरण खोजा और बताया कि यह तो पिछले वर्ष भी आयोजित किया गया था।
That's a lie. You guys organised it last year too. Here is the pdf link and its screenshot of the event details from your own website. See point VII (Miscellaneous activities) in the last.https://t.co/bmCBUYwwoG pic.twitter.com/ZGALsiOpkv
— THE SKIN DOCTOR (@theskindoctor13) November 7, 2023
हालांकि जब सोशल मीडिया पर लोगों ने पिछले वर्ष की घटना का उल्लेख किया तो एफएसएसएआई ने उस लिंक को हटा दिया। मगर फिर भी हिस्ट्री नहीं मिटाई गयी है और जब jashn के साथ उसकी वेबसाइट पर खोजा जाता है तो अभी भी वह सच सामने आ जाता है।
यद्यपि दीपावली का नाम बदलने का यह पहला मामला नहीं है। पिछले वर्ष भी दीपावली के नाम को जश्न-ए-रिवाज करके फैब इंडिया ने हिन्दू पर्व का मजाक उड़ाया था, हालांकि सोशल मीडिया पर विरोध के बाद उन्होंने उसे वापस ले लिया था। मगर पिछले वर्ष भी इसको लेकर बहस हुई थी कि पर्व का नाम कैसे कोई बदल सकता है। पिछले वर्ष तेजस्वी सूर्या ने इस बात को उठाया था कि कैसे नाम बदलने का अर्थ हिन्दू पर्वों का अब्राह्मिककरण है।
भाषांतरण एवं अनुवाद के भी कई नियम होते हैं और उनमें सबसे महत्वपूर्ण यही नियम होता है कि नाम को किसी भी स्थिति में नहीं परिवर्तित किया जा सकता है क्योंकि नाम एक विशिष्ट पहचान बोध का पर्याय होता है। यदि नाम परिवर्तित कर दिया जाएगा तो उससे जुड़ा इतिहास, संस्कृति सब कुछ विलुप्त हो जाएगी और दूसरी भाषा का इतिहास आ जाएगा।
इस पर यह कहा जाता है कि उर्दू का विकास भारत में हुआ, उर्दू का जन्म भारत में हुआ, इसलिए हिन्दी पर्वों को उर्दू में बदला जा सकता है। यह नितांत ही बेकार तर्क है क्योंकि आज की अरबी और फारसी शब्दों से भरी उर्दू का उस उर्दू से कोई मुकाबला ही नहीं है जिसने ब्रज और अवधी बोलियों की गोद में जन्म लिया था।
किसी भी भाषा के पास यह अधिकार नहीं होता कि वह दूसरी भाषा के पर्व या तीर्थ के नामों को बदल सके, मगर भारत में यह हुआ। भारत में आततायियों ने हमले के बाद मंदिरों को तोड़ने के बाद उनकी धार्मिक पहचान पर अतिक्रमण किया और उनका स्वरूप बदल दिया, जिसकी प्रत्यक्ष गवाही आज भी भारत में कई मंदिर देते हैं।
गाज़ियाबाद, इलाहाबाद, फैजाबाद, मुजफ्फरनगर, फिरोजाबाद आदि नगरों के मूल नाम बदल दिए गए और इसके साथ ही इनकी पहचान केवल वहीं से जुड़ गयी जब से इनके अतिक्रमित नाम रखे गए। जिस प्रयागराज का उल्लेख महाभारत तक में प्राप्त होता है, उसे अल्लाहाबाद एवं कालान्तर में इलाहाबाद कर दिया गया और नाम के बदलने से अकबर से ही इसका इतिहास सीमित करने का कुप्रयास किया गया।
प्रयागराज में कुम्भ आयोजित होता है, क्योंकि कुम्भ और प्रयागराज परस्पर एक ही संस्कृति के साथी हैं, इलाहाबाद नहीं! शेक्सपियर ने कहा था कि “नाम में क्या रखा है?” तो इसका उत्तर यही है कि नाम में संस्कृति है, इतिहास है और धर्म है। दीपावली कभी भी जश्न-ए-रिवाज, जश्न-ए-रोशनी नहीं हो सकती क्योंकि जश्न का सम्बन्ध राम से नहीं है बल्कि उन दीपों की उन तमाम पंक्तियों और उस भक्ति, उत्सव और विश्वास का सम्बन्ध प्रभु श्री राम से है जो “दीपावली” से परिलक्षित होता है।
हालांकि फैब इंडिया द्वारा किया गया कुप्रयास बहुत ही स्वाभाविक था क्योंकि वह बाजार में कथित वोक्स के हाथों बना हुआ विज्ञापन या विचार हो सकता था, मगर एफएसएसएआई का जश्न-ए-रोशनी बहुत घातक है क्योंकि यह सरकारी संस्थान द्वारा उठाया गया कदम है और इसके चलते सरकार पर प्रश्न उठते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या सरकारी संस्थानों में भी उन वोक या कम्युनिस्ट तत्वों की संख्या में वृद्धि हो रही है जो भारतीय पर्वों को उनकी संस्कृति से काटकर अलग करना चाहते हैं? प्रश्न इस घटना के बाद बहुत है और एफएसएसएआई द्वारा घटना को हटाना ही मात्र समाधान नहीं है।
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