दीपोत्सव मूलत: और अंतत: हिन्दू पर्व होते हुए अपने आप में व्यापक अर्थ लिए हुए है। यह तो अंधकार से प्रकाश की तरफ लेकर जाने वाला अनोखा त्योहार है। अंधकार व्यापक है, रोशनी की अपेक्षा। क्योंकि, अंधेरा अधिक काल। दिन के पीछे भी अंधेरा है रात का। दिन के आगे भी अंधेरा है रात का । दिवाली को ईसाई, मुसलमान और यहूदी भी अपने-अपने तरीके से मनाएंगे। सिख, बुद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए तो इस दिन का खास महत्व तो है ही। राजधानी दिल्ली के बिशप हाउस पर दिवाली पर आलोक सज्जा की जाएगी। दीए भी जलाए जाएंगे। यह ही है भारत की विशेषता। क्या है बिशप हाउस? ये देश के प्रोटेस्टेंट ईसाई समाज के प्रमुख बिशप का मुख्यालय है। यह नई दिल्ली के जयसिंह रोड पर। दरअसल प्रकाश पर्व हमें अपने देश के पवित्र मूल्यों, जरूरतमंद लोगों के प्रति मदद का हाथ बढ़ाने की हमारी जिम्मेदारी और अंधेरे पर रोशनी की ओर बढ़ने का ज्ञान और रौशनी चुनने की हमारी ताकत, ज्ञान और बुद्धिमत्ता की तलाश, अच्छाई और अनुग्रह का स्रोत बने रहने की हमारी परम्परा की याद दिलाता है। इस पर्व को सिर्फ हिंदू धर्म से जोड़ना भी अनुचित भी होगा।
भारत के लाखों मुसलमान भी दिवाली मनाते हैं। वे दिवाली पर अपने घरों- दफ्तरों की सफाई करने के अलावा चिराग जलाते हैं। राजधानी के इमाम हाउस में भी चिराग जलाने की परंपरा है। इंडिया गेट से सटी इस मस्जिद के इमाम मौलाना उमेर इलियासी मानते हैं कि भारत में रहने वाला कौन इंसान होगा जो दिवाली न मनाता होगा। इसी तरह मुंबई की हाजी अली दरगाह और दिल्ली के निजामउद्धीन औलिया की दरगाहों को भी दिवाली पर सजाया जाता है। मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे इस्लामिक देशों में दीपावली पर सार्वजनिक अवकाश भी होता है। मेरे कुछ परिचित बता रहे थे कि बरेली शहर में दिवाली पर मुस्लिम समुदाय के लोग सूने घरों को भी दीयों से रोशन करते हैं। सच में प्रकाश और रोशनी का पर्व अंधकार से रोशनी में ले जाता है। इसलिए हम अपने घरों के आगे अंधकार को दूर करने के लिए दीये जलाते हैं। इसी तरह हमें दिवाली पर अपने मन मस्तिष्क से अज्ञानता का अंधेरा दूर करके ज्ञान रूपी प्रकाश फैलाना चाहिए।
अपने भारत में तो दीपोत्सव को सारे देश भर के ईसाई भी मनाते हैं। दीपोत्सव पर राजधानी के ब्रदर्स हाउस में रहने वाले अविवाहित पादरी भी दीये जलाएंगे। दरअसल भारत में ब्रदरहुड ऑफ दि एसेंनडेंड क्राइस्ट की स्थापना सन् 1877 में हुई थी। इस संस्था का संबंध कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से है। इन्होंने ही राजधानी में सेंट स्टीफंस कॉलेज और सेंट स्टीफंस अस्पताल की स्थापना की। इन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में ठोस कार्य किया है। चूंकि ये सब पादरी ब्रदरहुड ऑफ दि एसेंनडेंड क्राइस्ट से संबंध रखते है, इसलिये इन्हें ब्रदर भी कहा जाता है। यहां पर रहने वाले पादरी मानते हैं कि रोशनी के इस पर्व को खुशियों का पर्व भी कहा जा सकता है। दीपावली के आने से पहले ही सारे माहौल में प्रसन्नता छा जाती है।
भारतीय संस्कृति में सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार दीपावली का पर्व हमें अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा देता है। भारतवर्ष में हजारों वर्षों से दीप प्रज्ज्वलित कर अंधकार को मिटाकर प्रकाशमान वातावरण का निर्माण किया जाता रहा है। दीपावली पर्व के दौरान धन की अनावश्यक बर्बादी को रोककर राशि का प्रयोजन पुरुषार्थ और परमार्थ के सद्प्रयोजनों में कर आने वाली पीढ़ी को हम यज्ञमय जीवन की सौगात दे सकते हैं। दीपावली पर स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग करने व वायु मंडल को प्रदूषण से बचाने का भी संकल्प लेना। गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा करके दीपावली की रौशनी उनके घरों में भी पहुंचा सकते हैं।
यूं तो यहूदी पंथ को इजराइल के साथ जोड़कर देखा जाता है। पर मुंबई, केरल, दिल्ली वगैरह में बसे हुए यहूदी जमकर दिवाली मनाते हैं। राजधानी का एकमात्र जूदेह हयम सिनगॉग खान मार्केट के पास है। यहां दिवाली से एक दिन पहले से ही दीये जलाने की व्यवस्था हो जाती है। यह सारे उत्तर भारत में यहूदियों की एकमात्र सिनगॉग है। इसके रेब्बी एजिकिल आइजेक मालेकर की देखरेख में दिवाली से पहले सिनगॉग के बाहर दीये जलाए जाते हैं। दिवाली पर जब अंधेरा घना होने लगेगा तो वे दीये जलाकर प्रकाश करेंगे। भारत के यहूदी कहते हैं कि वे भारत में रहकर आलोक पर्व से कैसे दूर जा सकते हैं। हम यहूदी हैं, पर हैं तो इसी भारत के।
इस बीच, भारत से हजारों किलोमीटर दूर बसे विभिन्न लघु भारत देशों के नागरिक जब भारत में अपने देशों के राजनयिक के रूप में आते हैं तो वे भी दिवाली मनाना शुरू कर देते हैं। कैरिबियाई टापू देश त्रिनिडाड-टोबैगो, गयाना, मारीशस और सूरीनाम को तो लघु भारत ही कहा जाता है। इन देशों की एँबेसी में इस बार भी दिवाली परम्परागत और उत्साह से मनाई जाएगी। त्रिनिडाड-टोबैगो एँबेसी के बाहर दिवाली से पहले रंगोली सजाई जाती है। नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक वी.एस. नायपाल ने भी एक दिवाली राजधानी में मनाई थी। वे तब त्रिनिडाड-टोबैगो हाई कमीशन में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित थे। वे वहां बता रहे थे कि उन्हें अपनी पहली भारत यात्रा के दौरान यहां पर दिवाली की रात का मंजर देखकर हैरानी हुई थी। कारण यह था कि इधर लोग घरों के बाहर आलोक सज्जा बिजली के बल्बों से कर रहे थे, जबकि उनके त्रिनिडाड में दिवाली पर अब भी मिट्टी के दीयों में तेल डालकर आलोक सज्जा करने की परम्परा खूब है। वी.एस.नायपाल पहली बार 1961 में मुंबई में आए थे।
त्रिनिडाड-टोबैगो की तरह, गयाना, मारीशस, फीजी, सूरीनाम एँबेसियों में काम करने वाले भारतवंशी राजनयिक भी दिवाली बड़े प्रेम से मनाते हैं। इनका संबंध हिंदू, ईसाई और इस्लाम सभी पंथों से होता है। इन सब देशों में भारतीय परंपराएं और संस्कार बचे हुए हैं। इनके पूर्वज सौ साल से भी पहले सात समंदर पार चले गए थे। कहने का भाव ये है कि दिवाली को मात्र हिंदू धर्म का ही पर्व नहीं माना जा सकता है। इसे सब प्रेम और सद्भाव से मनाते हैं।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)
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