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ओज के प्रखर पुंज

रिष्ठ प्रचारक श्री रंगा हरि जी रन्तिदेव की परम्परा के थे, जिन्होंने दान को अपने जीवन का मूल धर्म माना था और इसीलिए मानव कल्याण के कार्यों के प्रति अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।

by WEB DESK
Nov 6, 2023, 06:36 pm IST
in संघ, श्रद्धांजलि
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रंगा हरि जी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रंगा हरि जी

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राष्ट्र निर्माण और मानवता की सेवा के मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ को समर्पित कर दिया। उनकी अंतिम इच्छा एक स्वयंसेवक के रूप में पुन: जन्म लेने और अपने साथी स्वयंसेवकों के साथ ‘लक्ष्य’ सिद्ध करने की थी।

जे. नंदकुमार
राष्ट्रीय संयोजक, प्रज्ञा प्रवाह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रंगा हरि जी रन्तिदेव की परम्परा के थे, जिन्होंने दान को अपने जीवन का मूल धर्म माना था और इसीलिए मानव कल्याण के कार्यों के प्रति अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। हरि जी स्वामी विवेकानन्द के भी आदर्श शिष्य थे, जिन्होंने हमें महान सिद्धांत ‘आत्मानो मोक्षार्थं जगत हिताय च’ सिखाया था। छह वर्ष पहले विजयादशमी के दिन हरि जी ने तीन श्लोकों में अपनी अंतिम प्रार्थना लिखी थी, जो इस प्रकार है-

मामिकान्तिम प्रार्थना
करणीयं कृतं सर्वम्
तज्जन्म सुकृतं मम
धन्योस्मि कृतकृत्योस्मि
गच्छाम्यद्य चिरं गृहम्॥ 1॥
कार्यार्थं पुनरायातुम्
तथाप्याशास्ति मे हृदि
मित्रै सह कर्म कुर्वन्
स्वान्त: सुखमवाप्नुयाम् ॥ 2॥
एषा चेत् प्रार्थना धृष्टा
क्षमस्व करुणानिधे
कार्यमिदं तवैवास्ति
तावकेच्छा बलीयसी ॥3॥
अर्थात् जो कुछ करना आवश्यक था, उसे पूरा करने की संतुष्टि साथ लिए मैं अपने चिरस्थायी घर लौटा हूं , लेकिन मेरे हृदय में अपने मित्रों के साथ काम करके लक्ष्य प्राप्त करने का आनंद लेने की आकांक्षा अब भी बसी है। यह मेरी प्रार्थना है, यदि इसमें कोई त्रुटि हो, यदि मेरी इस प्रार्थना में निजी स्वार्थ हो..तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं। हे दयालु! .. अब आपके विचारों की जय होगी… आपमें इसे पूरा करने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए।

इन तीन श्लोकों के माध्यम से उन्होंने अपना जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है। राष्ट्र निर्माण और मानवता की सेवा के मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ को समर्पित कर दिया। उनकी अंतिम इच्छा एक स्वयंसेवक के रूप में पुन: जन्म लेने और अपने साथी स्वयंसेवकों के साथ ‘लक्ष्य’ सिद्ध करने की थी।

स्नेही कार्यकर्ता हमसे छिन गया

स्व. रंगा हरि जी के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत और सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले की ओर से जारी संयुक्त श्रद्धांजलि-
हमारे श्री रंगा हरि जी के दु:खद निधन ने हमसे एक गहन विचारक, कुशल कार्यकर्ता, व्यवहार के आदर्श, और सबसे बढ़कर एक स्नेही और उत्साहवर्धक वरिष्ठ को छीन लिया है। श्री रंगा हरि जी ने अपना जीवन पूर्ण एवं सार्थक ढंग से जिया। जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख थे, तब से उनके सान्निध्य में आए लाखों कार्यकर्ता आज पूरे भारत में उनके निधन पर शोक मना रहे होंगे। अपनी बीमारी के दिनों में, अपने अंतिम दिनों में उन्हें अपनी क्षीण होती शक्ति का पूरा भान था, लेकिन उन्होंने पढ़ने, लिखने और उनसे मिलने आने वाले स्वयंसेवकों को सुखद सलाह देने की अपनी गतिविधियों को बंद नहीं किया। अभी 11 अक्तूबर को ही पृथ्वी सूक्त पर उनकी टीका दिल्ली में प्रकाशित हुई। वाचाघात के बाद भी वह आगंतुकों को सुनकर और अपने चेहरे के भावों से प्रतिक्रिया देते थे। मैं व्यक्तिगत रूप से, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से, उनकी प्रेरक स्मृति के प्रति अपनी आदरपूर्ण संवेदना व्यक्त करता हूं और दिवंगत आत्मा की चिर शांति के लिए प्रार्थना करता हूं । ॐ शांति:।

संघ में अपने प्रारंभिक दिनों में, जब मैं मूल आदर्शों का पाठ एक नौसिखिए की भांति सीख रहा था, मुझे तथाकथित ‘प्रगतिशील कला और साहित्यिक आंदोलन’ कार्यकर्ताओं की भौतिकवादी हठधर्मिता और शब्दों का इंद्रजाल हैरान कर देता था। उससे ठीक उलट, संघ की शाखाओं में सुने समृद्ध राष्ट्रवादी विचार, हिंदुत्व की महान परंपरा और मानवीय गुणों के विकास की प्रक्रिया का महत्व मेरे दिमाग को निरर्थक विचारों से मुक्त कर इसे परिष्कृत कर रहा था। यह मेरे जीवन में एक नई सुबह के आगमन का संकेत था। इसी बीच मुझे पता चला कि हरियेत्तन स्वयं पंदालम् में आयोजित एकत्रीकरण में शामिल होने वाले थे। जब मैं उनसे मिला तो वहां एकत्रित सभी स्वयंसेवकों की तरह उनके व्यक्तित्व की अद्भुत आभा से अभिभूत हो गया। उनके बात करने के अंदाज में हास्य का हल्का पुट रहता, जो उनकी बातों को और रोचक और प्रभावी बना देता था। इससे मुझे संघ की कार्यप्रणाली के संबंध में नई अंतर्दृष्टि मिली। वह बौद्धिक आभा आज भी मेरे जीवन को प्रकाशित कर रही है। मुझे आज भी याद है कि कैसे उन्होंने केवल दो अंग्रेजी शब्दों ‘ओनली’ जिसका अर्थ है ‘केवल एक ही सही है’, और आल्सो’ जिसका अर्थ है ‘और अन्य भी सही हैं’, के प्रयोग से हिंदुत्व और हिंदू धर्म की विशेषता समझायी थी कि यह दूसरों से अलग है, क्योंकि इसमें अन्य विचारों का भी सम्मान किया जाता है।

प्रेम और स्नेह

जैसे किसी कुशल शिल्पकार का उत्कृष्ट शिल्प अपनी आभा से सभी को प्रभावित कर देता है, रंगा जी का जीवन हमारे लिए एक पथप्रदर्शक है कि एक कार्यकर्ता को किन मूल्यों का पालन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। इस महान आत्मा के साथ जुड़ी मेरी यादों की श्रृंखला 1984 से शुरू होती है जब मेरे पत्र के जवाब में मुझे उनका पत्र मिला। मैं उस समय सीताथोड खंड में विस्तारक की जिम्मेदारी संभाल रहा था, जो पंदालम् खंड के कार्यवाह के तौर पर काम करने के दौरान जिला प्रचारक ए. एम. कृष्णन के निर्देशानुसार मुझे सौंपी गई थी। यह वह समय था जब राजनीतिक हिंसा और उसके परिणामस्वरूप हुई हत्याओं के कारण संघ की गतिविधियां लगभग रुकी हुई थीं। हमारे स्वयंसेवकों के निरंतर प्रयासों से शाखाओं की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। जिस खंड से किसी के भी भाग लेने की उम्मीद नहीं थी, वहां से 18 कार्यकर्ताओं ने उस वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग में भाग लिया था। शपथ लेने के बाद, हम वहां रन्नी स्थित कार्यालय में रुके। हमने योजना बनाई कि हमें अगले ही दिन ओटीसी के लिए चलना चाहिए। वास्तव में कार्यालय के गलियारे में, जहां सभी सो रहे थे, तब यह विचार उभरा था। वास्तव में यह साधारण बात नहीं थी कि इतने सारे लोग जुटे थे।

अचानक, जाने-अनजाने ही, मेरे मन में ‘मैं’ का विचार प्रबल होने लगा। मैंने सोचा कि मुझे इस महान उपलब्धि के बारे में प्रांत प्रचारक को बताना चाहिए। बिना एक पल गंवाए मैंने ताल्लुक प्रचारक कृष्णन कुट्टयेट्टन को जगाकर उनसे एक अंतर्देशीय पत्र लिया और हरियेत्तन को एक लंबा पत्र लिख दिया। पत्र की शुरुआत से ही आत्मप्रशंसा करते हुए मैंने बताना शुरू किया कि मैंने कैसे नई जिम्मेदारी संभाली, नई शाखाएं शुरू कीं और कितनी बार मैं पुलिस स्टेशन गया आदि। अंत में मैंने ओटीसी संबंधी उपलब्धि का उल्लेख किया। अगले दिन तिरुवल्ला जाने से पहले मैंने इसे पोस्ट कर दिया और उस क्षण से ही बड़े उत्साह से उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। आखिर चौथे दिन मुझे उनका जवाबी पत्र मिला। सुंदर लिखावट में पत्र की शुरुआत में लिखा था, ‘मेरे प्रिय नंदन के प्रति प्रेम और स्नेह सहित।’

मेरे मन में हजारों दीए झिलमिलाने लगे। पत्र के पहले भाग में ओटीसी का कोई जिक्र नहीं था। उन्होंने कुछ आम बातें लिखी थीं, जैसे नए स्थान में कार्य करते समय किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है, फिर उन्होंने प्रश्न किया कि क्या मैंने अपनी मां को पत्र लिखा आदि..। अंत में संघ शिक्षा वर्ग के बारे में एक पंक्ति लिखी। उन्होंने लिखा, ‘‘मुझे पता चला कि सीताथोड से 18 स्वयंसेवक भाग ले रहे हैं, लेकिन क्या नंदन ने केवल इसी उद्देश्य से वहां कार्यभार संभाला है?’’

पहली बार पढ़ने पर मुझे कुछ समझ में नहीं आया। बाद में मुझे अहसास हुआ कि संघ के कार्यों के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने की यात्रा में उन बातों का कोई महत्व नहीं जिन्हें आत्मप्रशंसा में मैंने लिख दिया था। हरियेत्तन जी ने ही मुझे यह पाठ सिखाया कि ‘‘यदि अक्षरों से शब्द बनाए जाएं और सार्थक शब्दों से वाक्य की रचना की जाए तो उत्कृष्ट ज्ञान की धारा प्रवाहित होती है।’’

असाधारण स्मरण शक्ति

ऐसा कई बार देखा गया है कि कोई व्यक्ति किसी पुस्तक को बहुत जल्दी पढ़कर समाप्त कर देता है। यह चीज उसकी गहन एकाग्रता प्रदर्शित करती है। एक बार जब मैंने स्वामी विवेकानन्द की असाधारण स्मृति के बारे में बात की तो एक छात्र ने पूछा, क्या यह अतिशयोक्ति नहीं? उस प्रश्न का उत्तर देते हुए मैंने हरियेत्तन जी का उदाहरण दिया। चेरपू में संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था। मैं दिन-रात कार्यक्रमों में व्यस्त रहता। एक दिन सभी काम खत्म करने के बाद सोने के लिए मैं अपने कमरे की ओर जा रहा था तो मैंने अधिकारी विभाग के बरामदे में रोशनी देखी। मैं उसे बंद करने के लिए जब वहां गया, तो मुझे हरियेत्तन दिखाई दिए। वह किताब पढ़ने में इस तरह डूबे हुए थे कि उन्हें मेरे कदमों की आहट का भी भान नहीं हुआ। उनके हाथ में वी. शेषगिरी राव की ‘द एंड आफ ए साइंटिफिक यूटोपिया’ नामक पुस्तक थी। वह किताब के अंतिम पृष्ठ पर कुछ नोट कर रहे थे। कौतुक और जिज्ञासावश मैंने पूछा, ‘‘हरियेत्तन, क्या आपको नींद नहीं आई?’’ मेरी आवाज सुनकर उन्हें पता चला कि मैं वहीं था। उन्होंने चौंक कर मुझे देखा और कहा कि यह डॉ. राव की नवीनतम पुस्तक है। मैंने सोचा कि अगर मैं इसे आज पढ़कर समाप्त कर दूं तो कल इसे आपमें से किसी को पढ़ने के लिए दे सकता हूं।
क्या आप देर रात तक इसे पूरा पढ़ लेंगे? मैंने पूछा। उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘यह 1-2 घंटे में खत्म हो जाएगी।’’ मैं हैरान था। अगले दिन सुबह नाश्ते के समय जब हम मिले तो उन्होंने कहा, ‘‘नंदन ने मुझे रात में यह किताब पढ़ते हुए देखा है, इसलिए किताब पढ़ने का पहला मौका मैं नंदन को दे रहा हूं। वह इसे पढ़कर नोट बना लें और मुझे लौटा दें।’’

एक बार हरियेत्तन जी ने ठेंगडी जी की एक पुस्तक मुझे पढ़ने के लिए दी थी। यह पुस्तक साम्यवाद से उत्पन्न खतरे पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डालती है। इस पुस्तक से संबंधित एक घटना ने मुझे उनकी एकाग्रता और शीघ्र पढ़ लेने की विशेषता का अहसास कराया था। उस किताब को पढ़ने के लगभग 10-12 वर्ष बाद साप्ताहिक ‘केसरी’ में एक लेख लिखने के दौरान मुझे उस पुस्तक की जरूरत पड़ी। असल में मुझे ‘न्यू क्लास’ सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले यूगोस्लावियाई कम्युनिस्ट पाठक का नाम याद नहीं आ रहा था जिसका उल्लेख उस किताब में था। उस समय मैं तिरुअनंतपुरम कार्यालय में था। मैंने उस किताब को बहुत ढूंढा। अंत में मैंने हरियेत्तन जी को फोन किया। उन्होंने कहा कि विचार केंद्रम पुस्तकालय में साम्यवाद से संबंधित किताबें मिल जाएंगी। साथ ही यह भी बताया कि किस रैक विशेष में वह किताब भी मिल जाएगी जो मैं तलाश रहा था। उन्होंने मुझे पृष्ठ संख्या तक बता दी जिस पर यूगोस्लाविया के साम्यवाद और न्यू क्लास सिद्धांत के प्रणेता का नाम लिखा हुआ था। जब मैं वहां गया तो उन्होंने जो बातें कहीं, वे सही निकलीं। उनकी कंप्यूटर सरीखी स्मरण शक्ति से मैं मंत्रमुग्ध हो गया। आखिरकार मुझे उस पाठक का नाम ‘मिलोवन जिलास’ मिल गया।

अखिल भारतीय परिवार

केरल से बाहर यात्रा करने के दौरान मैं जब भी स्वयंसेवकों से मिला वे हमेशा रंगा हरि जी के बारे में जानने के लिए उत्सुक दिखे। रंगा हरिजी के पास हर व्यक्ति को देने के लिए कुछ न कुछ नया था। वह विद्यार्थियों को उनकी शिक्षा संबंधी कठिन प्रश्नों का समाधान थमाते, तो बड़ों के लिए प्रेरणादायी अंतर्दृष्टि बन जाते, वहीं माताओं को वह कोई विशेष व्यंजन बनाने की विधि बताने लगते। पूरे भारत में संघनिष्ठ परिवारों के बीच उनकी लोकप्रियता के पीछे उनकी यही सरलता और हर व्यक्ति साथ जोड़ा गया स्नेह का संबंध था। प्रत्येक संघ शिक्षा वर्ग में एक महत्वपूर्ण अनौपचारिक कार्यक्रम अधिकारियों के साथ ‘मैदानी गपशप’ का आयोजन होता है, जिसमें वरिष्ठ कार्यकर्ता और प्रशिक्षुओं के बीच परस्पर सहज और आत्मीय जुड़ाव विकसित करने के लिए अनौपचारिक बातचीत होती है। भाग लेने वाले सभी अधिकारियों के नामों की घोषणा बहुत पहले कर दी जाती है और स्वयंसेवक अपनी पसंद के अधिकारी के साथ समय बिता सकते हैं।

धरती माता की स्तुति

उनकी सीखने की ललक और ज्ञान प्रदान करने की प्रतिबद्धता अद्वितीय थी। बिस्तर पर पड़े रहने की स्थिति में भी उन्होंने ज्ञान तपस्या जारी रखी। उन्होंने अपनी अंतिम पुस्तक ‘पृथ्वी सूक्त-एन ओड टू मदर अर्थ’ तब पूरी की जब वह कैंसर के कष्टदायी दर्द से गुजर रहे थे। दिल्ली में ‘पृथ्वी सूक्त-एन ओड टू मदर अर्थ’ के विमोचन कार्यक्रम में हरि जी से हुई बात खामोश चेहरे से मुखर होती उनकी मुस्कुराहट… मेरी यादों की अमूल्य निधि हैं।

श्रीगुरुजी समग्र के 12 खंडों का संकलन हरियेत्तन जी के अद्वितीय योगदानों में से एक है। नागपुर केंद्रीय कार्यालय का अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से कार्य करना भी उनकी कड़ी तपस्या का एक और उदाहरण था। हरियेत्तन जी के साथ रहे किशोरकांत जी और कृष्णकुमार बावेजा जी उनकी जिज्ञासा, लेखन-शैली और नेतृत्व कौशल को याद करके हमेशा आश्चर्य से भर जाते हैं। हरियेत्तन जी गुरुजी की सम्पूर्ण रचनाओं को हिन्दी के साथ-साथ सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित करने के लिए कृतसंकल्प थे। उनके नेतृत्व में 12 खंडों वाली पुस्तक का हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ, जो निर्धारित तिथि पर केरल के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी पहुंचा। किताब के मलयालम अनुवाद में हो रही देरी से हरि जी बहुत निराश थे।

उन्होंने स्वयं कोच्चि आकर राज्य के सभी पदाधिकारियों को बुलाया और इसकी गंभीरता की ओर ध्यान आकृष्ट किया। अपने अनोखे और सहज अंदाज में हमारा मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने अनुवाद कार्य की बुनियादी जिम्मेदारी मुझे सौंपी। यहां तक कि जब हृदय संबंधी चिकित्सा समस्याओं के कारण वह अस्पताल में थे, तब भी उन्होंने लगातार इन कार्यों पर नजर बनाए रखी। हरियेत्तन जी की लेखनी में उन पुरानी घटनाओं का जिक्र नहीं मिलता जो अक्सर पढ़ने-सुनने में आती रहीं। हमें श्रीगुरुजी की वह कहानी कहीं नहीं मिलेगी जब वह छात्र थे और उन्होंने ग्रेनाइट की परत तोड़ दी थी; या फिर एक स्वामी की कहानी, जिन्होंने हिमालय से यात्रा करने के दौरान पर्वत श्रृंखलाओं के बीच अद्भुत नीली लौ की एक दीप्तिमान आभा देखी थी। जब वह पास गए तो यह देखकर आश्चर्य से भर गए कि वहां श्रीगुरुजी ध्यान में बैठे थे।

हरियेत्तन जी ने श्रीगुरुजी की जीवनी में इन कहानियों को नहीं शामिल किया है। वह मानते थे कि श्रीगुरुजी निस्संदेह एक दिव्य मनुष्य थे, लेकिन इन बातों को लेखनी के जरिए प्रचारित करने से वह दूर से पूजा की जाने वाली मूर्ति मात्र बन कर रह जाएंगे; जबकि उनका जीवन मार्गदर्शन के लिए था, जिस पर आम लोगों और विशेष रूप से स्वयंसेवकों को आगे चलना था। श्रीगुरुजी ने अथक प्रयासों से शीर्ष स्थान प्राप्त किया था। अत: उनकी जीवनी से प्रयास और कर्म का संदेश प्रसारित होना चाहिए, जिससे आम लोगों में भी जागृति आए।
इसका उदाहरण देते हुए मैं एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। हरि रंगा जी का साहित्यसर्व जब लगभग पूरा हो चला था तो एक दिन अचानक उनकी मेज पर कागजों का एक बड़ा बंडल पड़ा मिला। आज भी कोई नहीं जानता कि यह कहां से आया और किसने उनकी मेज पर रखा। अगर मैं उनकी जगह पर होता तो शायद मैं इस घटना को तपस्या से प्राप्त वरदान के रूप में प्रचारित करता। पर उनकी मेज के ऊपर वह कागजी बंडल किसी पूजा की पोथी सा रखा रहा जिसमें श्रीगुरुजी के आध्यात्मिक अनुभवों का विशद वर्णन है जो उन्हें पूज्य अखंडानंद जी से मंत्रदीक्षा प्राप्त करने के बाद हुए थे। ऐसा लगता है कि इसे स्वयं श्रीगुरुजी ने लिखा है। हरियेत्तन जी ने कभी उस घटना को चमत्कार या दैवीय अनुकंपा के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया। ऐसी थी अपने जीवन सिद्धान्तों के प्रति उनकी निष्ठा।

तपस्या का उद्देश्य

उन दिनों हरि जी का स्वास्थ्य बहुत खराब था, हालांकि मुझे इसकी गंभीरता का थोड़ा भी अनुमान नहीं था। वह संघ द्वारा संचालित बालिका सदन थानल में ठहरे हुए थे। अखिल भारतीय कार्यशाला की ओर से ‘राष्ट्र का स्वत्व’ विषय पर दी जाने वाली एक प्रस्तुति के बारे में चर्चा करने के लिए मैंने उनसे मिलने की अनुमति मांगी। मेरे स्नेही गुरु ने अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना मुझे अनुमति दे दी। उन्होंने बालिका सदन के प्रभारी को कहकर मुझे कोचीन हवाई अड्डे से थानल तक लाने के लिए कार की व्यवस्था भी करा दी। मैं देर रात वहां पहुंचा तो देखा कि मेरे ठहरने, खाने आदि की व्यवस्था पहले से ही तैयार है। अनजाने ही मेरी आंखें भीग गर्इं। 40 वर्ष पूर्व उन्होंने मेरे एक पत्र के जवाब में लिखा था, ‘‘नंदन को प्रेम और कुशल मंगल के साथ।’’ वे शब्द उनके हृदय की गहराई से निकले होंगे जो जीवन की तपती धूप में शीतल हवा बनकर हमेशा मेरा मंगल करते रहेंगे।

जैसा कि पूजनीय सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने हरि जी के बारे में कहा कि जब वह हमारे बगल में बैठे रहते हैं तो कोई भी उनके ज्ञान की गहराई का अनुमान नहीं लगा पाता है। लेकिन जैसे ही वह बोलना शुरू करते हैं तो उनके मुख से ज्ञान की ऐसी धारा फूटती है जो सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। मोहन जी के शब्दों में, ‘‘यह बारिश में भीगने जैसा है। चाहे हम स्नान करें या नहीं, हम अच्छी बारिश में भीगना पसंद करते हैं। लगातार हो रही बारिश में हो सकता है कि आप सिर पर छाता लगा लें। पर यह बारिश फिर भी आपको भिगोती रहेगी और आप भीगने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसी ही है हरि जी की ‘ज्ञान वर्षा’ जो आपके अस्तित्व को ज्ञान से सींचती रहेगी।’’ 

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