वाल्मीकि जयंती पर विशेष : वाल्मीकि का लोकधर्म और लोकनायक श्रीराम
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वाल्मीकि जयंती पर विशेष : वाल्मीकि का लोकधर्म और लोकनायक श्रीराम

रामायण से पूर्व के वैदिक वाङ्मय के केंद्र में मानवेतर अलौकिक सत्ताएं हैं, देवों, दानवों की, प्रकृति-परमात्मा की लोकोत्तर शक्तियां हैं। किंतु वाल्मीकि का नायक पूर्णत: लौकिक मनुष्य है।

by डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष
Oct 28, 2023, 10:30 am IST
in भारत, धर्म-संस्कृति
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जिस आर्य आक्रमण सिद्धांत को अनेक इतिहासकार और पुरातत्वविद् दशकों पूर्व मनगढ़ंत, दुराग्रहपूर्ण और मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं, उसी को आधार बनाकर छल-प्रपंच रचा जा रहा है। वाल्मीकि की रामकथा के मनमाने कु-पाठ और आत्मघाती विमर्श प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जो ऐसा करने वालों की कुत्सित मानसिकता को दर्शाते हैं

महर्षि वाल्मीकि इस संसार के प्रथम कवि हैं, जिन्होंने पहला श्लोक रच कर लोक में कविता का सूत्रपात किया। तमसा नदी के तट पर जब वह संध्या-वंदन कर रहे थे, तो एक बहेलिये ने परस्पर क्रीड़ारत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर क्रौंच का वध कर दिया। क्रौंची के चीत्कार से पूरा जंगल गूंज उठा। धरती पर रक्त से लथपथ पड़े क्रौंच और विलाप करती हुई मादा क्रौंच को देखकर ऋषि का मन करुणा से भर गया। वह विचलित हो गए और उस दुष्ट बहेलिये को शाप दे डाला। भावावेश में ऋषि के मुख से अनायास यह श्लोक फूटा :
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(रामायण, बालकाण्ड 2/15)
अर्थात् ओ, निषाद! तुमको अनंतकाल तक प्रतिष्ठा प्राप्त न हो। तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला।

विश्व का आदिकाव्य

यही है संसार की पहली पद्य रचना जो आगे चलकर आदिकाव्य रामायण की भूमिका बनी। ब्रह्माजी की प्रेरणा और देवर्षि नारद के प्रबोधन से उन्होंने एक महान ग्रंथ की रचना की। विस्मय की बात है कि संसार का प्रथम प्रयोग होने के बावजूद महाभारत को छोड़कर, यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है। इससे भी बड़ी बात यह कि काव्यात्मकता की दृष्टि से यह आज भी बेजोड़ है। बृहद्धर्म पुराण में रामायण को समस्त काव्यों का बीज ‘काव्यबीजं सनातनम्’ कहा गया है। महाभारत, पुराण, धर्म-इतिहास-काव्यादि सभी प्राचीन ग्रंथों के मूल में कहीं न कहीं यह आदिकाव्य रहा है।

भारतीय वाङ्मय परंपरा में यह पहला काव्य प्रबंध है, जिसके नायक मनुष्य हैं। इससे पूर्व के वैदिक वाङ्मय के केंद्र में मानवेतर अलौकिक सत्ताएं हैं, देवों, दानवों की, प्रकृति-परमात्मा की लोकोत्तर शक्तियां हैं। किंतु वाल्मीकि का नायक पूर्णत: लौकिक मनुष्य है। कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न, दशरथ का पुत्र राम, जो शील, शक्ति और मर्यादा का आदर्श प्रतिमान है, जो अपने स्वयं के पराक्रम के बल पर महान उपलब्धियां अर्जित करता है, जीवन में सत्य और धर्म की प्रतिस्थापना करता है। राम के ऐसे परम दिव्य और अलौकिक गुणों को देखकर ही सत्यदृष्ट ऋषियों ने उनमें ईश्वरीय अवतार के दर्शन किए, तथापि अपनी दैहिक उपस्थिति में राम मानवी रूप में रहे और पुरुषोत्तम कहलाए। रामायण मनुष्य के पुरुषार्थ और जीवन मूल्यों का पहला ग्रंथ बन गया।

वाल्मीकि रामायण की महत्वपूर्ण विशेषता है, इसका सर्वस्पर्शी सामाजिक सरोकार। इसके आरंभ में ही वाल्मीकि इस ग्रंथ की फलश्रुति में लिखते हैं-
पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात्,
स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।
वणिग्जन: पण्यफलत्वमीयात्,
जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात्।। (बालकाण्ड, 1/100)
अर्थात् इस ग्रंथ को ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान हो, क्षत्रिय पढ़े तो राज्य प्राप्त करे, वैश्य पढ़े तो व्यापार में लाभ हो और शूद्र भी पढ़े तो प्रतिष्ठा को प्राप्त हो। बहुधा ऐसा उल्लेख किया जाता है कि प्राचीन वाड्.मय में शूद्रों को अध्ययन-अध्यापन से वंचित रखा गया। महामुनि वाल्मीकि की यह घोषणा इस मिथ्या और भ्रामक धारणा को ध्वस्त करती है। वह न केवल शूद्र को यह ग्रंथ पढ़ने का अधिकार देते हैं, बल्कि पढ़ने से उसका महत्व बढ़ेगा, यह भी कामना करते हैं।

रामायण का मूल उद्देश्य

रामायण का मूल उद्देश्य एक आदर्श मानव का चरित्र प्रस्तुत करना है। अत: इस कथा का प्रारंभ श्रेष्ठतम मनुष्य की खोज से होता है। तपस्वी वाल्मीकि, मुनिवर नारद से पूछते हैं कि इस समय संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, सत्यवादी, चरित्रवान, आत्मजयी, प्राणिमात्र का हितैषी और जिसके कोप से देवता भी डरते हैं, ऐसा मनुष्य कौन है? ध्यातव्य है कि वाल्मीकि यहां जीते-जागते वर्तमान की बात करते हैं, किसी पुराकथा में छलांग नहीं लगाते। वह कहते हैं, ‘‘कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके…’’ अर्थात् लोक में, अभी वर्तमान समय में ऐसा कौन है?

यह विश्व में मानववाद के विचार का पहला बीज पड़ने की घटना है, जब वाल्मीकि अपनी रामकथा की भूमिका और आधार सुनिश्चित करते हैं। उनकी जिज्ञासा न तो किसी देव, गंधर्व, सुर, असुर के बारे में है, न वे किसी अतीत की कथा में रमना चाहते हैं। उनका उद्देश्य अलौकिक चमत्कारों के बल पर कार्यसिद्धि प्राप्त करने की कथा लिखना भी नहीं है। वे तो जीवन मूल्यों से परिपूर्ण ऐसे संवेदनशील मनुष्य का चित्रण करना चाहते हैं, जो अपने संकल्प और सामर्थ्य के भरोसे कार्यसिद्धि प्राप्त करता है और धर्म की रक्षा करता है। यह भारतीय मानववादी दृष्टि है, एक आदर्श मानव की खोज का विचार, जो किसी प्रतिक्रिया या प्रतिशोध से उत्पन्न नहीं हुआ जैसा कि हम आधुनिक मानववाद के पश्चिमी इतिहास में पाते हैं। यह निरंतर साधनारत एक महामुनि और एक तपस्वी के लोकोपकारी संवाद से निपजा हुआ विमर्श है।

प्राचीन वाङ्मय के अनुसार, वाल्मीकि के पिता वरुण थे, जो महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र थे। इनकी माता का नाम चर्षणी था और ये भृगु ऋषि के भाई थे। वरुण का नाम प्रचेत होने के कारण वाल्मीकि को प्राचेतस् भी कहा जाता है। इनका आश्रम तमसा नदी के तट पर था। आगे एक यात्रा हे कि महर्षि की भेंट देवर्षि नारद से हुई। अध्यात्म रामायण में यह भेट सप्तर्षियों से होती है। श्रीराम को आत्मकथा सुनाते हुए वाल्मीकि कहते हैं कि मुनियों के दर्शन से मेरा अंत:करण शुद्ध हो गया। मुनियों की प्रेरणा से ही मैं तपस्या में रत हुआ तथा आपका उलटा नाम मरा-मरा जपते हुए तपस्या में इतना डूब गया कि मेरे ऊपर दीमक की वल्मीक (ढूह-मिट्टी का ढेर) जमा हो गयी। कालांतर में उन्हीं ऋषियों की प्रेरणा से मैं, जैसे कोहरे को चीरकर सूर्य निकलता है उसी तरह, वल्मीक से बाहर निकल आया। उन ऋषियों ने तभी मुझे वाल्मीकि नाम दिया और कहा कि यह एक प्रकार से तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।

आत्मघाती विमर्श

इधर, इन दिनों वाल्मीकि की रामकथा के जिस तरह मनमाने कु-पाठ और आत्मघाती विमर्श प्रस्तुत किए जा रहे हैं, वह इतने घटिया और विघटनकारी हैं कि ऐसा करने वालों की कुत्सित मानसिकता को ही प्रकट करते हैं। आदिकवि से लेकर वेदव्यास, कालिदास, कबीर, तुलसी, रैदास, सूरदास, जायसी, मीरा, रहीम, धन्ना, पीपा, दादू जैसे संत कवियों ने रामकथा का जो अमृत बरसाया, उस पर तेजाब उड़ेला जा रहा है। बर्बर अत्याचारियों, दुराचारियों को नायकत्व का चोला चढ़ाया जा रहा है। शताब्दियों से अन्याय, अत्याचार और पाप के प्रतीक रावण, महिषासुर आदि में कुछ लोग अपना नायक तलाशने लगे हैं। इनको वनवासियों-जनजातियों का प्रतिनिधि सिद्ध किया जा रहा है।

घोर आश्चर्य और उससे भी अधिक क्षोभ की बात है कि उन लोगों को इन जनजातियों, वनवासियों, पर्वतवासियों के ही बीच के निषाद, शबरी, जटायु, सुग्रीव, जामवन्त जैसे पात्र कभी आकर्षक और प्रेरक नहीं लगते। इनका मन शूर्पणखा, खर-दूषण, मेघनाद, कुंभकर्ण, महिषासुर जैसे रक्त-पिपासुओं, हत्यारों की नेतृत्व कल्पना में अधिक रमता है। जो पात्र सदियों से सामाजिक समरसता और नैतिक मूल्यों की प्रेरणा देते हैं, उनका तिरस्कार कर सामाजिक दुराचार को बढ़ावा देने वाले पात्रों के प्रति मोह, उन समाजद्रोही बुद्धिजीवियों की असली मानसिकता को प्रकट करता है। इन विचारमूढ़ों को यह भी नहीं दिखाई पड़ता कि यह धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, न्याय-अन्याय का एक मूल्यपरक संघर्ष था, जिसमें एक और राज्यहीन, सेनाविहीन, संसाधनविहीन, जंगल-जंगल भटकता संघर्षशील किंतु मर्यादावान् पुरुष था, जिसकी पत्नी का भी अपहरण कर लिया गया।

दूसरी ओर रावण लाखों सैनिकों, सत्ता-संसाधनों से लैस, सोने की लंका का मालिक था, जिसके अन्त:पुर में देश-विदेश से छल-बलपूर्वक हरण कर लाई गई सैकड़ों स्त्रियां कैद थीं। वस्तुत: जिस आर्य आक्रमण सिद्धांत को अनेक इतिहासकार और पुरातत्वविद् दशकों पूर्व मनगढंÞत, दुराग्रहपूर्ण और मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं, उसी को आधार बनाकर यह छल-प्रपंच रचा जा रहा है। यदि राम-रावण युद्ध के पीछे आर्य-द्रविड़ सिद्धांत था, तो रावण के बाप-दादा, महर्षि पुलस्त्य और विश्रवा कौन थे? आर्य थे या द्रविड़ थे? दक्षिण देशवासी राम के सहयोगी बाली-सुग्रीव-हनुमान कौन थे? और तो और, अभी हजार वर्ष पूर्व द्रविड़ देश में उत्पन्न हुए शंकराचार्य, जो आर्यधर्म के स्तंभ कहे जाते हैं, जो ‘आनन्दलहरी’ में स्वयं को द्राविड़ कहते हैं, उन्हें क्या माना जाएगा? आर्य या द्रविड़ या दोनों ही?

इन दिनों कुछ लोग ई-लोक (सोशल मीडिया) में रावण के साथ इसलिए सहानुभूति प्रकट करते नजर आते हैं कि वह ब्राह्मणकुलोत्पन्न प्रकांड पण्डित, परमवीर और परम शिवभक्त था। ऐसा कहते समय वे यह भूल जाते हैं कि उसके हाथ हजारों सदाचारी-तपस्वियों और शांतिप्रिय, अहिंसक आश्रमवासियों के खून से रंगे हुए थे। माता सीता का हरण भी उसने एक डरपोक चोर की भांति धोखे से किया था। वस्तुत: यह जातिवादी दंभ का वह घिनौना रूप है, जो आज आतताइयों, दुराचारियों और समाजकंटकों में भी स्वजाति देखकर उनके पक्ष में उठ खड़ा होता है और देश में अराजकता का माहौल पैदा करता है।

रामायण के अधिकतर अध्येता विद्वानों का यह मत है कि उत्तरकाण्ड मूल रामायण का अंग नहीं है। यह किसी परवर्ती कवि की रचना है, जिसे वाल्मीकि कृत रामायण में बाद में जोड़ा गया।

यहां वाल्मीकि पर विमर्श के साथ ‘शम्बूक वध प्रकरण’ पर विचार करना प्रासंगिक होगा। यह प्रकरण वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में वर्णित है। रामायण के अधिकतर अध्येता विद्वानों का यह मत है कि उत्तरकाण्ड मूल रामायण का अंग नहीं है। यह किसी परवर्ती कवि की रचना है, जो वाल्मीकि कृत रामायण में बाद मे जोड़ी गई।

बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किन्धा, सुन्दर और युद्ध नामक काण्डों के क्रम में ‘उत्तर’ शब्द का प्रयोग ही प्रथमदृष्ट्या यह सूचित करता है कि यह उत्तरकालीन सामग्री है, अर्थात् बाद में जोड़े गए सर्ग। रामायण के अंत:साक्ष्य भी ऐसा मानने का सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं। युद्ध काण्ड की समाप्ति पर कवि जिस तरह इस ग्रंथ का महात्म्य वर्णन करता है, वह यही प्रकट करता है कि यह महाकाव्य पूर्ण हो गया। युद्ध काण्ड के श्लोक संख्या 107 से लेकर अंतिम श्लोक संख्या 125 तक कही गई फलश्रुति ठीक वैसी ही है, जैसी ग्रंथों की समाप्ति पर दी जाती है।

इधर, बालकाण्ड का प्रथम सर्ग भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। जब मुनिवर नारद वाल्मीकि को राम के बारे में बताते हैं तो अति संक्षेप में रामकथा भी सुनाते हैं। यह वाल्मीकि का रामकथा जानने का पहला अनुभव था। श्लोक क्रमांक 8 से लेकर श्लोक क्रमांक 97 तक कुल 90 श्लोकों में नारद इस कथा को इस महाकाव्य की ‘सिनॉप्सिस’ की तरह बांचते हैं। इसमें भी राम कहानी तो श्लोक क्रमांक 89 तक ही है, शेष श्लोक संख्या 90 से 97 तक रामराज्य का वर्णन है। इस प्रस्तावित कथा का अंत इस सूचना से होता है कि ‘‘राम ने नंदिग्रमा में भाइयों के साथ जटाएं कटवा कर, मुनिवेष त्यागकर, सीता के साथ फिर से राज्य प्राप्त किया।’’

तीसरे सर्ग में जब वाल्मीकि जी इसी रामकथा का पुनरावलोकन करते हैं तो पुन: रामकथा का संक्षिप्त विवरण मिलता है, जिसमें आखिर में राम के अभिषेक समारोह, सुग्रीव आदि की सेनाओं का विसर्जन, अपने राष्ट्र का रंजन और वैदेही विसर्जन का उल्लेख मिलता है। शम्बूक वध जैसी ज्वलंत घटना का कोई उल्लेख न प्रथम सर्ग में, न तृतीय सर्ग में, न किसी और सर्ग में कहीं मिलता है।

निश्चय ही यह किसी एजेंडाधारी घुसपैठिये की कारस्तानी है, जो वाल्मीकि की रामकथा मंदाकिनी में यह अपशिष्ट घोल गया। अन्यथा, वाल्मीकि के राम ऐसा कदापि नहीं कर सकते थे। जो वाल्मीकि एक वंचित को रामकथा पढ़ने का आह्वान कर उसके महत्व को बढ़ाने का दावा करते हैं, उन्हीं का राम एक वंचित का वध केवल इसलिए कर दे कि वह तपस्यारत था? उनके प्रिय राम के लिए ऐसा कृत्य किसी भी तरह संभव नहीं था। नितांत असंभव!!

अपने महाकाव्य के आरंभ में ही वह कहते हैं, ‘रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।’ (बालकाण्ड 1/13)
उनके करुणामूर्ति राम तो संसार के जीवमात्र के रखवाले और भक्तों पर प्रेम उड़ेलने वाले हैं। विश्वास न हो तो निषाद से पूछिए! शबरी से पूछिए! कोल, किरातों से, वनवासियों से पूछिए! पूछिए उस गिलहरी से जो अभी तक अपने राम की अंगुलियों के निशान अपनी पीठ पर लिए इतराती डोलती है।

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