अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाइयों ने कम से कम संयुक्त राज्य अमेरिका पर 9/11 जैसे एक और हमले को रोक दिया। वहीं, 26 नवंबर, 2008 को भारत ने मुंबई में और अब गाजा पट्टी में इस्राएल ने अपना-अपना 9/11 झेला।
इस्राएल पर आतंकी संगठन हमास के हमले के बाद की घटनाओं से इस धारणा को फिर बल मिला है कि विश्व व्यवस्था में कई परिवर्तन हो रहे हैं, जिनमें कुछ को साफ देखा जा सकता है और कुछ सतह से नीचे, लेकिन काफी तीव्र हैं। जिन परंपरागत गुटों और गठबंधनों से, जिन आर्थिक और तकनीकी शक्तियों से विश्व अभी तक परिचित रहा है, उनमें काफी बदलाव हो रहे हैं।
एक उदाहरण देखिए। ब्रिटेन के समाचार-पत्र ‘एक्सप्रेस’ ने लिखा, ‘‘तालिबान ने दावा किया है कि अगर ईरान, इराक और जॉर्डन (उसे) इस्राएल तक का रास्ता दे दें, तो वह यरुशलम जीत लेगा।’’ बेलारशियन समाचार एजेंसी नेक्सटा ने भी ट्वीट करके यही बात कही। यह बात है 7 अक्तूबर की। तालिबान का यह कथित बयान व्यापक रूप से आनलाइन ही रहा, जिसके अनुसार तालिबान के विदेश कार्यालय ने मध्य पूर्वी देशों की सरकारों से संपर्क करके मार्ग मांगा था।
तालिबान के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि वह ‘गाजा में हाल की घटनाओं पर सावधानीपूर्वक नजर रख रहा है’ और यह कि ‘‘इस्लामिक अमीरात (अफगानिस्तान) भूमि और पवित्र स्थानों की स्वतंत्रता के लिए फिलिस्तीन के लोगों की हर तरह की रक्षा और प्रतिरोध को उनका वैध अधिकार मानता है।’’ इसके बाद, 9 अक्तूबर को तालिबान ने घोषणा की कि वह इस्राएल के साथ युद्ध में भाग लेने के लिए लड़ाके फिलिस्तीन नहीं भेजेगा। वह चाहता है कि दोनों पक्ष बैठकर बात करें और संकट का समाधान करें। तालिबान ने यह भी कहा, ‘‘(अफगानिस्तान की) धरती का इस्तेमाल किसी भी प्रकार की आतंकवादी गतिविधि के लिए नहीं किया जाएगा या हम ऐसी किसी गतिविधि में भाग नहीं लेंगे।’’
यह उलटफेर क्यों? किसी ने समझाया हो, दबाव डाला हो- कुछ भी संभव है। लेकिन किसने? हम अधिकृत तौर पर नहीं जानते। यह सतह से नीचे बहने वाली तीव्र धाराओं का एक उदाहरण है, जो विश्व व्यवस्था में उलटफेर का एक संकेत दे रही है।
कैसा है उलटफेर का इतिहास
विगत तीन वर्ष की घटनाएं साक्ष्य हैं कि दुनिया स्वयं को पुनर्व्यवस्थित करने की प्रक्रिया में है। इसका नवीनतम नाम है- ‘ग्लोबल रि-आर्डर।’ ऐसा कुछ पीढ़ियों के बाद होता ही है। किन्तु यह ऐसी प्रक्रिया नहीं है, जो शक्तिमंत देशों या घटकों की इच्छाओं और निर्णयों पर ही निर्भर हो या जिसे आसानी से रोका जा सके, यदि परिवर्तन और पुनर्व्यवस्थापन उनके अनुकूल न हो। यह वैश्विक परिवर्तन विभिन्न देशों के भीतर आर्थिक और राजनीतिक दबावों की स्वाभाविक उपज है, यद्यपि हमेशा दृष्टिगोचर नहीं हो सकता।
ये आंतरिक दबाव सामरिक दबाव में भी बदल जाते हैं, क्योंकि आंतरिक व्यवस्थाएं स्वयं को स्थिर करने के प्रयास में अपनी अस्थिरताओं को स्थानांतरित भी करती हैं। कुछ देश इन चीजों को दर्दनाक, लेकिन नियमित घटनाओं के रूप में अनुभव करते और सह जाते हैं, जबकि अन्य अस्थिर या कठोर होते हैं और समय की मार को भुगतते हैं। इसका दूसरा नाम प्रगति है। प्रगति या विकास किसी सर्वव्यापी संतोषप्रद अवस्था की ओर कोई अबाधित विजयी यात्रा नहीं होती, अपितु वास्तविकता के साथ एक कष्टदायी संघर्ष होता है। प्रगति की पीड़ा अन्य लोगों और अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध आक्षेपों में भी बदल सकती है।
नरेंद्र मोदी सरकार की स्वतंत्र विदेश नीति के तहत भारत, रूस पर पश्चिम के प्रतिबंधों में शामिल नहीं हुआ है। रूस के लिए भारत हथियारों और तेल का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बाजार है। भारतीय-अमेरिकी सुरक्षा संबंध अपेक्षाकृत नए हैं, जबकि भारत-रूस संबंध दो पीढ़ियों से अधिक समय से कायम
वर्तमान दौर की शुरुआत 1990 के दशक के प्रारंभ में यूरोप से मानी जा सकती है, जब सोवियत संघ विघटित हुआ और यूरोपीय महाद्वीप को एकजुट करने के लिए मास्ट्रिक्ट संधि पर हस्ताक्षर किए गए। फिर 2001 में अमेरिका पर 9/11 के इस्लामी आतंकी हमले हुए। उधर, 2013 में शी जिनपिंग चीन के राष्ट्रपति बने। इतिहास के चक्र में एक या दो दशक अपेक्षाकृत कम समय होता है। उस समय सोवियत संघ के विखंडन का उद्देश्य आधे विश्व पर छाए मार्क्सवादी-साम्यवादी ग्रहण के अंत के रूप में देखा गया था।
यूरोपीय संघ के तहत यूरोप के एकीकरण का उद्देश्य व्यापक समृद्धि पैदा करते हुए संघर्ष की संभावना को कम करना था। 9/11 हमले पर अमेरिकी के प्रतिसाद का उद्देश्य आतंकवाद के खतरे को कम करना था। इनमें से कोई भी उद्देश्य न पूर्णत: सफल हुआ, न पूर्णत: विफल। सोवियत विघटन ने पूर्व सोवियत संघ और उसके कुछ उपग्रह राज्यों को समृद्धि के उच्च स्तर तक पहुंचा दिया। यूरोपीय एकीकरण से सापेक्ष उत्पादकता का दौर शुरू हुआ। अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाइयों ने कम से कम संयुक्त राज्य अमेरिका पर 9/11 जैसे एक और हमले को रोक दिया। वहीं, 26 नवंबर, 2008 को भारत ने मुंबई में और अब गाजा पट्टी में इस्राएल ने अपना-अपना 9/11 झेला।
आतंकवाद और नए वामपंथ का उभार
पिछले वैश्विक बदलाव को शुरू हुए एक पीढ़ी हो गई है और पिछले चरण की आपदा-रेखाएं (फॉल्टलाइन) बदलाव के अंतिम चरण में हैं। यूरोपीय संघ बहुत गहरे तक विभाजित है, बल्कि इस संघ को साकार करने वाले दो सबसे सक्रिय देश जर्मनी और फ्रांस ने तो इस विभाजन को संस्थागत बनाने तक का प्रस्ताव किया है। हमास द्वारा इस्राएल पर हमले के रूप में इस्लामी आतंकवाद ने फिर सिर उठाया है। इस्राएल और हमास कुछ दिनों तक सुर्खियों में छाए रहेंगे।
हालांकि दो निरंकुश राज्य (ईरान और रूस) अपनी-अपनी वैचारिकता पर केंद्रित हो अपने इर्द-गिर्द की व्यवस्था को अपने हितों के अनुसार आकार देने की कोशिशों में लगे हैं। इस खेल में रसिप तय्यब अर्दोअन का तुर्किये भी नेपथ्य में नहीं है। पश्चिम के प्रति शत्रुता और अमेरिका आधारित व्यवस्था को पलटने की गहरी इच्छा इन दोनों देशों के आचरण के मूल में है, अन्यथा ये तीनों एक-दूसरे से पूरी तरह भिन्न हैं। सोवियत संघ के पतन के साथ साम्यवाद को समाप्त माना जा रहा था, लेकिन वह अपने भिन्न स्वरूप में फिर उभर रहा है।
रोचक बात यह है कि इस बार न तो उसका कोई अधिकेंद्र है, न कोई सीमा और न ही कोई अंतरराष्ट्रीय संगठन। उसे बहुत बिखरे हुए रूप में यूरोप से लेकर भारत तथा अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और कनाडा तक की सड़कों पर देखा जा सकता है। लिबरलिज्म और उसके तमाम रूपों में सामने आने वाला यह नव वामपंथ स्वयं में भले ही कोई शक्तिपुंज न हो, लेकिन यह दूसरी शक्तियों को अस्थिर या परेशान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरा है। इसके पुन: दो पक्ष हैं। एक, पूरा मुस्लिम जगत या उम्मत इस तरह की किसी भी बीमारी से पूरी तरह मुक्त है।
तालिबान ने यह भी कहा-
‘‘(अफगानिस्तान की) धरती का इस्तेमाल किसी भी प्रकार की आतंकवादी गतिविधि के लिए नहीं किया जाएगा या हम ऐसी किसी गतिविधि में भाग नहीं लेंगे।’’
तालिबान के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा-
‘गाजा में हाल की घटनाओं पर सावधानीपूर्वक नजर रख रहा है’ और यह कि ‘‘इस्लामिक अमीरात (अफगानिस्तान) भूमि और पवित्र स्थानों की स्वतंत्रता के लिए फिलिस्तीन के लोगों की हर तरह की रक्षा और प्रतिरोध को उनका वैध अधिकार मानता है।’’
ब्रिटेन के समाचार-पत्र ‘एक्सप्रेस’ ने लिखा-
‘‘तालिबान ने दावा किया है कि अगर ईरान, इराक और जॉर्डन (उसे) इस्राएल तक का रास्ता दे दें, तो वह यरुशलम जीत लेगा।’’
दूसरे, चीन जैसे बंद दरवाजे वाले किलेबंद देशों में इसका कोई प्रभाव नहीं है। माने वामपंथ के वायरस के इस नए वेरिएंट से मूल वामपंथी लगभग पूरी तरह इम्यून हैं। हालांकि यह बात न रूस पर लागू हो रही है, न अन्य पूर्व सोवियत देशों पर। फिर भी निश्चित रूप से वैश्विक व्यवस्था निर्धारण में नव वामपंथ नया खिलाड़ी बनकर उभरा है। इसी प्रकार एक अन्य खिलाड़ी है- आपूर्ति शृंखला। इसे वैश्वीकरण से जोड़कर अवश्य देखा जा सकता है, लेकिन यह कम से कम पश्चिम की पहली और दूसरी दुनिया के लिए अस्तित्व का प्रश्न है।
हजारों-लाखों ऐसे उत्पाद हैं, जिनका उत्पादन यदि पश्चिम करता है तो उनकी उत्पादन लागत, पर्यावरण लागत, अधोसंरचनात्मक लागत, श्रमिक लागत आदि इतनी अधिक हो जाएगी कि स्वयं पश्चिम भी उन उत्पादों का उपभोग नहीं कर सकेगा। इसके लिए उसे एशिया और अफ्रीका के ऐसे देशों की आवश्यकता होगी, जहां की पर्यावरण या श्रमिक लागतों से उसे कोई सरोकार न हो। लेकिन जब यह लागत चुकाने का प्रश्न आएगा, तो निश्चित रूप से एक बड़ा विश्व संकट पैदा होगा।
विश्लेषकों का एक वर्ग इस्लामी दुनिया को नए खिलाड़ी के तौर पर परखने में उत्सुक नजर आता है, लेकिन वास्तव में इस्लामी दुनिया अभी भी वहीं है, जहां वह 70 वर्ष पहले थी। ईरान, सऊदी अरब, तुर्किये, कतर-कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात, सभी नए खलीफा बनने के उत्सुक भले ही हों, लेकिन इनमें से कोई भी अभी तक इस्लामी दुनिया का निर्विवाद नेता नहीं बन सका है। फिर मुस्लिम दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों तक का वितरण इतना असंतुलित है कि उनके एक ब्लॉक के रूप में सामने आने के पहले उन्हें बहुत सारे बहुत कठिन प्रश्नों का उत्तर खोजना पड़ जाएगा।
बदलते भारत-रूस संबंध
उधर, रूस, चीन और ईरान ऐसी नई विश्व व्यवस्था की कल्पना करते हैं, जिसमें तीन खेमे क्रमश: रूस के नेतृत्व वाला रूसी-स्लाव गुट, चीनी की हान सभ्यता और ईरान के शिया इस्लामिस्टों की अगुआई वाली इस्लामी ताकत—सभी ‘पतनशील’ पश्चिम के साथ संघर्ष में हों। इनमें से ईरानी सपना अंदरूनी या निकट पड़ोसी कारणों से अधिक प्रेरित लगता है।
उपर्युक्त तीनों गुटों से सर्वथा भिन्न स्तंभ है भारत, जिसकी न अनदेखी की जा सकती है, न उपेक्षा। इसमें संदेह नहीं कि भारत और रूस के ऐतिहासिक संबंध बहुत बदले हैं और बड़े परिवर्तन से गुजर रहे हैं। रूस-भारत संबंधों में संतुलन का रुझान निश्चित रूप से नई दिल्ली की ओर है। यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ने के परिणामस्वरूप रूस का पश्चिम के साथ लगभग संबंध-विच्छेद और चीन के साथ घनिष्ठता भारत के साथ उसकी साझेदारी को बनाए रखने को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना देंगे।
सोवियत संघ का पतन, भारत और चीन का उदय, अमेरिका-चीन में बढ़ता तनाव, अमेरिका-भारत संबंधों का गहराना, रूस के पश्चिम से टूटने और यूक्रेन युद्ध के कारण रूसी-चीनी साझेदारी में गहरा मोड़ आया है। रूस-भारत संबंधों पर इसका प्रभाव पड़ना लाजिमी है और ऐसा हुआ भी है।
रूस अतीत में भारत के लिए एक प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता था। अभी भी भारतीय सशस्त्र बलों की बल संरचना में रूसी उपकरण एक बड़ा हिस्सा रखते हैं, किन्तु एकमात्र नहीं। भारत अपनी सैन्य शक्ति के आधुनिकीकरण और देशीकरण के लिए कृतसंकल्प है। भारत अपरिहार्य प्रौद्योगिकी के लिए अमेरिका, फ्रांस और इस्राएल की ओर उन्मुख हो चुका है। साथ ही, लड़ाकू विमानों, विमानवाहक युद्धपोतों और परमाणु पनडुब्बियों के घरेलू निर्माण की क्षमता विकसित कर चुका है।
संक्षेप में, इस क्षेत्र में मॉस्को अभी भी महत्वपूर्ण है, लेकिन अपरिहार्य नहीं। नई दिल्ली और बीजिंग, दोनों के मुकाबले मॉस्को का वैश्विक प्रभाव आज निस्संदेह कम हो रहा है, क्योंकि दोनों देशों के पास पहले की तुलना में अपनी खुद की अधिक क्षमताएं और नए साझेदार हैं। फिर भी, रूसी-भारत साझेदारी जारी रहेगी। भारत के लिए रूस हथियारों और तेल का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता बना हुआ है।
नरेंद्र मोदी सरकार की स्वतंत्र विदेश नीति के तहत भारत, रूस पर पश्चिम के प्रतिबंधों में शामिल नहीं हुआ है। रूस के लिए भारत हथियारों और तेल का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बाजार है। भारतीय-अमेरिकी सुरक्षा संबंध अपेक्षाकृत नए हैं, जबकि भारत-रूस संबंध दो पीढ़ियों से अधिक समय से कायम हैं। फिर रूस भारत से संबंध-विच्छेद के बारे में सोचने का भी साहस नहीं करेगा, क्योंकि उससे वह चीन का एक सामंत देश मात्र बनकर रह जाएगा। हालांकि राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और शी जिनपिंग के देशों की सीमाएं मिलती हैं और आर्थिक संबंधों का पिटारा रूस-भारत आर्थिक रिश्तों की अपेक्षा ज्यादा चौड़ा है। पुतिन और जिनपिंग व्यक्तिगत रूप से भी अधिक करीब हैं, क्योंकि दुनिया को देखने का उनका नजरिया लगभग समान है, खासकर पश्चिम को।
सितंबर 2022 में उज्बेकिस्तान के समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुई मुलाकात ने दोनों देशों के बीच साझेदारी और रिश्तों में आए बदलाव को दर्शाया। यूक्रेन पर क्रेमलिन के आक्रमण पर मोदी ने सार्वजनिक रूप से चेतावनी देते हुए पुतिन से कहा कि उन्होंने ‘पहले भी कई बार’ उनसे कूटनीति पर भरोसा करने और युद्ध समाप्त करने के लिए शांति का रास्ता अपनाने की आवश्यकता के बारे में कहा था।
जिनपिंग भी एससीओ बैठक में थे, लेकिन उन्होंने न पुतिन के युद्ध का समर्थन किया, न इसकी खुलकर आलोचना की। वास्तव में शीतयुद्ध काल में एक महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ का भारत के साथ संबंधों में वर्चस्व वाला हाथ था। भारत उस दौरान एक ‘विकासशील’ देश ही था, लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता भी कहलाता था। लेकिन सोवियत संघ के टूटने और उसके बाद रूस की घटती अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति ने भारत के प्रति संबंधों में संतुलन को उलट दिया।
मॉस्को और नई दिल्ली के बीच संबंध मैत्रीपूर्ण और व्यापक अवश्य हैं, लेकिन कोई भी पर्यवेक्षक आज भारत को रूस का कनिष्ठ भागीदार कहने के बारे में सोच नहीं सकता। यूक्रेन पर आक्रमण से भड़के युद्ध के परिणाम दशकों तक अनुभूत किए जाएंगे। आज यूरोप रूस और पश्चिम के बीच संघर्ष का केंद्र बन चुका है। इस युद्ध ने शीतयुद्ध के बाद के सुरक्षा परिदृश्य के अवशेषों को ध्वस्त कर रूस और महाद्वीप के बाकी हिस्सों के बीच एक ऐतिहासिक दरार पैदा कर दी है।
अमेरिका के साथ संबंधों में गिरावट ने भले ही रूस को चीन के साथ और अधिक घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए प्रेरित किया हो, भारत के साथ चीन की प्रतिद्वंद्विता और झड़पें भी तेज हो गई हैं। रूस से हथियारों की प्राप्ति के मामले में भी भारत के अनुभव हमेशा अच्छे नहीं रहे हैं
पुतिन की विदेश नीति के उद्देश्यों में चीन के साथ गहरी साझेदारी महत्वपूर्ण स्थान रखती है (कुछ समय पहले पुतिन और जिनपिंग ने इसे ‘सीमाओं से रहित’ दोस्ती का नाम दिया था)। लेकिन पश्चिम को लाल आंखें दिखाने के लिए अकेला चीन एक साझेदार के रूप में तो पर्याप्त नहीं है। रूसी विदेश नीति सिद्धांत के रूप में 1990 के दशक में तत्कालीन विदेश मंत्री येवगेनी प्रिमाकोव द्वारा व्यक्त किए गए प्रमुख शक्तियों के संयुक्त कार्यक्रम की कल्पना करती है, जिसमें भारत और चीन शामिल हैं। यानी रूस भारत को भूलने की गलती नहीं कर सकता।
जहां रूस-चीन संबंधों की घनिष्ठता को अमेरिका के साथ मॉस्को की भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से बढ़ावा मिला है, भारत के साथ संबंधों में इस तरह की किसी प्रेरणा का सर्वथा अभाव है। रूस के पास भारत में छह दशकों में बनाई गई अपनी उपस्थिति और प्रभाव को त्यागने का कोई कारण नहीं है, लेकिन शीत युद्ध के बाद रूस की क्षीण हुई विश्वदशा ने उसे भारत में अपने प्रभाव को बहुत अधिक बढ़ाने की स्थिति में भी नहीं छोड़ा है। रोचक यह है कि रूस-भारत संबंधों का भू-राजनीतिक स्तंभ भी मॉस्को के नियंत्रण से परे ताकतों द्वारा कमजोर किए जाने की ओर है।
अमेरिका के साथ संबंधों में गिरावट ने भले ही रूस को चीन के साथ और अधिक घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए प्रेरित किया हो, भारत के साथ चीन की प्रतिद्वंद्विता और झड़पें भी तेज हो गई हैं। रूस से हथियारों की प्राप्ति के मामले में भी भारत के अनुभव हमेशा अच्छे नहीं रहे हैं। सोवियतकालीन विमानवाहक पोत गोर्शकोव (जिसे आईएनएस विक्रमादित्य के रूप में शामिल किया गया है) की प्राप्ति में रूस ने लंबे समय तक आनाकानी की और अंतत: भारत को 1.6 अरब डॉलर के परस्पर सहमत मूल्य वाले विमानवाहक पोत के लिए 2.5 अरब डॉलर खर्च करने पड़े। पुतिन भू-राजनीति के चतुर खिलाड़ी माने जाते हैं।
वर्तमान दौर में नरेंद्र मोदी से उनके अच्छे व्यक्तिगत संबंधों के चलते द्विपक्षीय संबंधों को पटरी पर रखने और यूरेशिया में उन्हें नया आयाम देने के लिए इस समय भले ही वह अनुकूलतम व्यक्ति हों, लेकिन रूस द्वारा उकेरी गई विदेश और घरेलू नीति के कारण, पुतिन को अपने ‘सीमारहित दोस्त’ चीन और अपने सबसे पुराने और सबसे मूल्यवान एशियाई साझेदार अर्थात् भारत के बीच एक कठिन विकल्प का सामना करना पड़ सकता है। पुतिन संभवत: यह समझते हैं कि नरेंद्र मोदी ही शायद इस उलझन से उबरने का रास्ता दिखा सकते हैं।
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