हिन्दुत्व के प्रति असहिष्णु और धर्म विरोधी बातें प्रकाशित करने के लिए बदनाम सेकुलर पत्रिका ‘कारवां’ ने 1 जुलाई 2023 को एक ऐसा लेख प्रकाशित किया जो उसकी इस दागदार छवि को और पुष्ट करता है। ‘द ग्रेट बिट्रेयल’ शीर्षक से प्रकाशित इस लेख में लेखक ने रा.स्व.संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार और द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति भ्रामक बातें लिखी हैं, तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा है और इतिहास को झुठलाया है। यहां प्रस्तुत है, कारवां के लेख में सेकुलर झूठ के उस जाल को तार-तार करते संदर्भ सहित अकाट्य तथ्य
हिन्दुत्व के मान-बिंदुओं, श्रद्धा-केन्द्रोंऔर विभूतियों पर सेकुलरों द्वारा आक्षेप लगाते हुए प्रहार करना कोई नई बात नहीं है। रा.स्व.संघ पर भी आक्षेप स्वतंत्रता के पहले से लगाए जाते रहे, उसके बाद तो ये और भी तीक्ष्ण होते गए थे। वामपंथियों की कुदृष्टि परमपूज्य श्री गुरुजी पर काफी रही। परंतु अब संघ और हिन्दुत्व के साथ ही, संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को लेकर भी तथ्यहीन बातें फैलाने के प्रयत्न शुरू हो गए हैं।
डॉ. हेडगेवार बचपन में ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद चुके थे और अपनी मृत्यु तक संघर्षरत रहे। सत्य तो यह है कि हिन्दुत्व और भारत की आत्मा को पुनरुज्जीवित करने में जिन विभूतियों की भूमिका रही है, उनकी छवि पर दाग लगाने में वामपंथियों और नेहरूवादियों ने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। और अब जब भारत अपनी मानसिक दासता की बेड़ियों को तोड़ने के कगार पर खड़ा है, ऐसे में ये लोग चुप कैसे बैठे रह सकते हैं!
नकारात्मक शोध
स्वामी विवेकानंद को ब्रिटिश दासता के काल में भारत के राष्ट्रीय भाव और हिन्दू धर्म का शंखनाद करने वाला पहले योद्धा कहा जा सकता है। इसलिए स्वामी विवेकानंद भी वामपंथियों और नेहरूवादियों को कभी रास नहीं आए। वे उन्हें उस ‘नव राष्ट्रवाद’ का जन्मदाता मानते हैं, जिसे वे पौरुष-भाव वाला मानते हैं। वे यहां तक आरोप लगाते हैं कि ‘सशस्त्र हिन्दुत्व’ स्वामी जी की देन है। वामपंथियों को ‘स्त्री तत्व वाला हिन्दुइज्म’ ही भाता है। अत: स्वामी विवेकानंद पर हार्वर्ड में लगभग पचास वर्ष पूर्व शोध शुरू हुआ कि उनका नकारात्मक चित्रण कैसे किया जाए। यहां उन सभी कुप्रयासों का तो उल्लेख संभव नहीं है। परंतु वेंडी डोनेगर के शिष्य जेफ्री कृपाल के ‘शोध ग्रंथ’ का उल्लेख अवश्य करूंगा जिसमें बिना किसी तथ्य के, मात्र अपने अज्ञानपूर्ण तर्कों के आधार पर अत्यंत घिनौने रूप में स्वामी जी और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस को प्रस्तुत किया गया।
इस पर उन्होंने खूब वाहवाही लूटी और ‘विद्वान’ कहाने लगे। कुछ लोगों के आग्रह पर स्वामी त्यागानन्द जी ने 130 पृष्ठों की एक पुस्तिका लिखी जो जेफ्री और उसकी गुरु वेंडी के तर्कों को सटीक तरीके से काटती है। बार-बार आग्रह करने पर भी उस तथाकथित विद्वान ने उसे अपनी ‘शोध पुस्तक’ में स्थान नहीं दिया। (पुस्तक-इनवेडिंग द सैक्रेड, संपादक-राजीव)न ही वह पुस्तक किसी पुस्तकालय में पहुंचने दी गई। कुछ ऐसा ही प्रयास ‘अन्तरराष्ट्रीय गैरसरकारी संगठन विशेषज्ञ’ योगेंद्र यादव ने इन दिनों किया है। स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बारे में बहुत कुछ छप चुका है, जिसका एकमात्र उद्देश्य स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को कमतर करके उनको बदनाम करना है। इसका सर्वोत्तम उत्तर विक्रम संपत ने वीर सावरकर का चरित्र लिखकर दिया है। इस शत्रुता का कारण? उनका हिन्दुत्व।
हिन्दू आस्था नहीं स्वीकार
इसी आधार पर कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों का कांग्रेस के महान नेताओं की भूमिका को नगण्य बताकर उन्हें इतिहास के पन्नों से निकाल फेंकने का प्रयत्न रहा। लाल-बाल-पाल, पं. मदनमोहन मालवीय, कन्हैयालाल मुंशी, राजर्षि टंडन इत्यादि को लोग लगभग भूल ही चुके हैं। इन्हें कांग्रेस से किनारे करने का काम नेहरू जी ने किया। कारण? ये नेता हिन्दू धर्म में दृढ़ आस्था रखते थे। मुंशी जी द्वारा सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करने और उसकी प्राणप्रतिष्ठा में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को आग्रहपूर्वक सम्मिलित करने को लेकर नेहरू ने उन्हें कभी माफ नहीं किया।
इस कड़ी में संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी का नाम भी जुड़ा, क्योंकि उन्होंने हिन्दुत्व के आधार पर हिंदू समाज को संगठित किया, विभाजन की त्रासदी में डटकर खड़े रहे और लीगी गुंडों पर संघ के साधारण स्वयंसेवक भारी पड़े। लाखों हिन्दू-सिख भाइयों की जान बचाई, उनको पुनर्स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। यह भी एक ‘अक्षम्य अपराध’ था। इसलिए संघ और उसके वरिष्ठ कार्यकर्ता आजीवन इतिहास के पन्नों में ‘कम्युनल’ और ‘अपराधी’ ठहरा दिए गए।
इतने वर्षों के कुप्रचार के बावजूद संघ निरंतर समाज के साथ आगे बढ़ता रहा। इसके प्रयासों से समाज जाग्रत हुआ और आज हमारी आंखों के सामने भारत के पुनरुत्थान की गाथा लिखी जा रही है। नि:संदेह वामपंथियों और नेहरूवाद के बचे-खुचे ठेकेदारों को इसका रंज और दुख है। यही कारण है कि अब नए वार किए जा रहे हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि जहां-जहां समाज संघ और हिन्दुत्व को स्वीकार करते हुए जाग्रत हुआ है, वहां-वहां कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी आखिरी सांसें ले रहा है। यह याद करना आवश्यक है कि संघ और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन, दोनों 1925 में प्रारंभ हुए। लगभग 100 वर्ष में जहां संघ निरंतर बढ़ता रहा है, वहीं कम्युनिस्ट सिकुड़ते रहे हैं। आज ‘नव वामपंथ’ मैदान में है और निश्चित ही भूमिगत आंदोलन में जीवित है, वह समाज को तोड़ने में लगा हुआ है।
तथ्यों से परे सेकुलर एजेंडा
इसी एजेंडे पर चलते हुए डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के त्यागपूर्ण, बेदाग चरित्र पर हमले शुरू किए गए हैं। टीवी चैनलों पर चलने वाली बहसों में भी अकारण उनका नाम लिया जाता है। डॉक्टर जी के बचपन से स्वतंत्रता हेतु उनके संघर्ष के बारे में नाना पालकर लिखित उनके चरित्र, अंग्रेजों के संदर्भों और पुलिस रिकार्ड इत्यादि में पढ़ा जा सकता है। आज तक किसी भी शोधकर्ता या इतिहासकार ने इस पर प्रश्न नहीं उठाए हैं। इसलिए कारवां पत्रिका के उसी एजेंडे के अंतर्गत प्रकाशित लेख ‘ग्रेट बिट्रेयल’ के कलुषित प्रयत्न का उत्तर देना आवश्यक है।
इससे स्पष्ट है कि यह संघ और उसके राष्ट्रभक्त वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को बदनाम करने की सोची-समझी साजिश है। ‘कारवां’ में छपे उक्त लेख की जड़ में है 7 जुलाई, 1979 में ‘इलेस्ट्रेटिड वीकली आफ इंडिया’ में प्रकाशित एक लेख, जिसके लेखक का कहना है कि उसने स्व. बालासाहब हुद्दार से बात की थी। इसमें पर्याप्त मिर्च- मसाला लगाकर और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर उस लेखक की काल्पनिक उड़ान के सहारे ‘कारवां’ ने यह कहानी बनाकर छापी है।
स्वामी विवेकानंद को ब्रिटिश दासता के काल में भारत के राष्ट्रीय भाव और हिन्दू धर्म का शंखनाद करने वाले पहले योद्धा कहा जा सकता है। इसलिए स्वामी विवेकानंद भी वामपंथियों और नेहरूवादियों को कभी रास नहीं आए।
डॉ. साहब और 1920 का सत्याग्रह
सर्वविदित है कि बालासाहब संघ के आरम्भ से ही डॉ. साहब के सहयोगी रहे। वे 1931 तक संघ के सरकार्यवाह भी रहे। डॉ. हेडगेवार चरित्र के लेखक और उनके निकट सहयोगी रहे नाना पालकर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि जब डॉक्टर जी 1930 के जंगल सत्याग्रह (विदर्भ में नमक सत्याग्रह का स्वरूप) के बाद जेल में थे, तब बालासाहब ने 1931 में अपनी क्रांतिकारी राजनीतिक सोच के अंतर्गत एक ट्रेन डकैती में हिस्सा लिया था।
डॉक्टर जी को जेल से बाहर आने के बाद जब यह पता चला तो उन्होंने बालासाहब को तुरंत संघ से निकाल दिया, क्योंकि डॉक्टर जी हिंसा का मार्ग छोड़ चुके थे, कांग्रेस के गांधी जी के 1920 के सत्याग्रह में भी उन्होंने हिस्सा लिया और जेल गए। 1920 के कांग्रेस अधिवेशन में भी उनका बड़ा योगदान रहा था। 1930 के सत्याग्रह में उनके साथ हजारों लोग जलूस में निकले, सैकड़ों संघ स्वयंसेवक भी कारागार पहुंचे और अंग्रेजों द्वारा दी गई सजा काटी। (पुस्तक-डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, लेखक-राकेश सिन्हा, पृष्ठ 209)
इसके बाद बालासाहब हुद्दार इंग्लैंड गए। वहां उस वक्त व्याप्त विचारों से प्रभावित हुए, उन्होंने स्पेन के गृह युद्ध में भाग लिया और कुछ वर्ष बाद कम्युनिस्ट बनकर भारत लौटे। डॉक्टर जी का स्वभाव था कि वे सबसे व्यक्तिगत मित्रता बनाए रखते थे। उन्होंने बालासाहेब को स्वयंसेवकों के सामने एक विषय रखने को कहा, जहां बालासाहेब ने कम्युनिस्ट विचारधारा रखी। डॉक्टर जी ने उन्हें रोका नहीं, परंतु बाद में उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘पूंजीपति विरोधी मजदूर संघर्ष की बात को हम स्वीकार नहीं करते। हम एक ही समाज के अंग हैं, मिलकर समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं’। यही भूमिका बाद में भारतीय मजदूर संघ ने ली और आगे चलकर विश्व का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बना। (पुस्तक-डॉ. हेडगेवार:जीवन चरित्र, लेखक-नाना पालकर, पृष्ठ 334)
जिस व्यक्ति को स्कूल से इसलिए निष्काषित किया गया हो कि उसने सारे विद्यालय में एजूकेशन इन्स्पेक्टर के सामने ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगवाए थे और माफी तक न मांगी थी; जिस व्यक्ति ने अनुशीलन समिति के साथ क्रांतिकारी संघर्ष में हिस्सा लिया हो, जिसकी पुष्टि स्वयं अन्य सदस्यों ने की है; जिस व्यक्ति ने 1920 और 1930 के सत्याग्रहों में भाग लेकर सजा स्वीकार की हो, जिस व्यक्ति ने 1920 में कांग्रेस अधिवेशन की प्रस्ताव समिति के सामने सम्पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा हो (जिसे कांग्रेस ने अंतत: दिसंबर, 1929 में स्वीकार किया); जिसने 1930 के प्रस्ताव के अनुसार, 26 जनवरी को सभी शाखाओं में राष्ट्रीय ध्वज लहराने और लोगों को इसका महत्व बताने के लिए पत्र लिखे हों, (पुस्तक-डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, लेखक-राकेश सिन्हा, पृष्ठ 103) उस व्यक्ति के संघर्ष को कोई मानसिक दिवालिया या अंधविरोधी वामपंथी ही ‘ग्रेट बिट्रेयल’ कह सकता है। इतना ही नहीं, डॉ. हेडगेवार ने डॉ. परांजपे के साथ भारत स्वयंसेवक दल के नाम से 1920 के कांग्रेस अधिवेशन में काम किया था। (पुस्तक-तीन सरसंघचालक, लेखक-डॉ.वी.आर. करंदीकर, पृष्ठ 72)
अनुशीलन समिति में डॉ हेडगेवार की भूमिका को लेकर कारवां का लेखक भ्रम पैदा करना चाहता है। परंतु श्री त्रैलोक्यनाथ ने अपनी आत्मकथा ‘जेल में तीस बरस’ में स्पष्ट रूप से उनका उल्लेख पूरे आादर के साथ किया है। (पुस्तक-तीन सरसंघचालक, लेखक-डॉ. वी.आर. करंदीकर, पृष्ठ 57) पालकर लिखते हैं कि उनका गुप्त नाम ‘कोकेन’ रखा गया था। 1920 के कांग्रेस अधिवशन में प्रस्ताव समिति में दिया उनका प्रस्ताव था-‘‘कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना और भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना है; साथ ही, दुनिया के अन्य देशों को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के शोषण और अत्याचारों से मुक्त कराना है।’’ (पुस्तक-डॉ. हेडगेवार:जीवन चरित्र, लेखक-नाना पालकर पृष्ठ 79)
इस प्रस्ताव को मजाक में उड़ा दिया गया था। ऐसे सब अनुभव लेने के बाद डॉक्टर जी ने महसूस किया कि जब तक भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित एक शक्तिशाली, अनुशासित, स्वयं पर गर्व करने वाला समाज संगठित नहीं होता, तब तक भारत सही अर्थों में स्वतंत्र नहीं होगा। यह आजाद तो होगा परंतु स्व-तंत्र नहीं होगा। शासक बदलेंगे, शासन नहीं। पिछले 75 वर्ष का हमारा अनुभव उनकी दूरदृष्टि से परिचित कराता है।
अनुशीलन समिति में सक्रियता
संघ कम्युनिस्टों की तरह एक काम के लिए पांच गुना नाम नहीं गुंजाता। उसका प्रसिद्धि-परांगमुख होना उसकी दुर्बलता मान ली गई, वामपंथी इसी चीज का दुरुपयोग कर रहे हैं।
कारवां का लेख 1930 में सरसंघचालक पद छोड़कर सत्याग्रह करने की डॉक्टर जी की नीति को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि स्वतंत्रता संग्राम कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है। हम जानते हैं कि उस समय की कांग्रेस में राजनीतिक धडेÞ-समाजवादी, हिन्दू महासभा, यहां तक कि कम्युनिस्ट भी थे। कम्युनिस्ट कुछ समय बाद बाहर हुए, परंतु स्वयं नेहरू भी कम्युनिस्ट विचारों के प्रति झुकाव रखते थे। इंग्लैंड में उन्हें कॉमिनटर्न के साथी ‘प्रोफेसर’ कह कर संबोधित करते थे। परंतु सभी कांग्रेस के झंडे तले काम कर रहे थे। डॉक्टर जी इस विचार से प्रेरित थे कि ‘हम इस संग्राम में अपनी अलग-अलग पहचान के साथ नहीं उतरेंगे’। परंतु लेख अपने ही अर्थ निकाल रहा है। इसमें लेखक का कहना है कि अनुशीलन समिति के साथ अत्यंत सीमित संबंध होने के कारण उन्होंने अपने विचारों को दृढ़ता नहीं दी थी और बाद में वे अलग दिशा में चल पड़े।
परंतु नाना पालकर बताते हैं कि कोलकाता से वापस आने के बाद भी 1916 से 1918 तक वे क्रांतिकारियों को हथियार पहुंचाने के काम में लगे रहे। उन्होंने पाया कि कोई असफलता मिलने पर लोग निराश हो जाते थे। (पुस्तक-डॉ. हेडगेवार : जीवन चरित्र, लेखक-नाना पालकर पृष्ठ 58-64) वे 1918 से 1924 तक कांग्रेस के साथ नि:स्वार्थ भाव से जुड़े रहे थे। वे हिन्दू महासभा से भी जुड़े रहे। ऐसे अनेक नेता थे जो कांग्रेस और अन्य दलों से जुड़े थे, उन दिनों यह सामान्य बात थी। खिलाफत आंदोलन और उससे जुड़ी मोपला हिंसा के बारे में गांधी जी और नेहरू के रुख, 1921 से 1924 तक चले इन दंगों ने उन्हें नया मार्ग खोजने के लिए प्रेरित किया।
संघ के शुरुआती दिनों से डॉ. हेडगेवार संघ से जुड़ने वाले स्वयंसेवकों को मराठी में यह शपथ दिलवाते थे-‘सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर और अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए मैं यह शपथ लेता हूं कि हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का संरक्षण करते हुए, हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं। मैं संघ का काम पूर्ण ईमानदारी से, नि:स्वार्थ बुद्धि से तन-मन-धनपूर्वक करूंगा और मैं आजीवन इस व्रत का पालन करूंगा।’(पुस्तक-तीन सरसंघचालक, लेखक-डॉ. वी.आर. करंदीकर, पृष्ठ 138) यह स्पष्ट है कि पहले दिन से ही संघ का मुख्य उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता था। मार्ग भिन्न था। यह स्वतंत्रता संग्राम के लिए 1880 के दशक से चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष के कई प्रवाहों में से एक था।
प्रचार नहीं, सिर्फ कार्य
संघ कम्युनिस्टों की तरह एक काम के लिए पांच गुना नाम नहीं गुंजाता। उसका प्रसिद्धि-परांगमुख होना उसकी दुर्बलता मान ली गई है, वामपंथी इसी चीज का दुरुपयोग कर रहे हैं। डॉ. हेडगवार के माता-पिता एक ही दिन प्लेग के कारण काल के ग्रास बने। परंतु उन्होंने उस गरीबी में भी स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जिस जमाने में चुनिंदा लोग ही डॉक्टर बन पाते थे, उस समय उन्होंने चिकित्सा का काम न करते हुए, अपना सर्वस्व समाज हित में झोंक दिया था। उनके अंतिम वर्षों में जब किसी ने उनकी जीवनी लिखने की बात की, तो उन्होंने वह मांग सविनय ठुकरा दी थी। उन्होंने कभी किसी से अपनी कठिनाइयों की बात नहीं की।
कारवां का लेख 1930 में सरसंघचालक पद छोड़कर सत्याग्रह करने की डॉक्टर जी की नीति को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है। उन्होंने तो स्पष्ट कहा कि ‘हम इस संग्राम में अपनी अलग-अलग पहचान के साथ नहीं उतरेंगे’।
सदैव हंसते-खेलते सबको साथ लेकर चले। यहां तक कि उनके एक कम्युनिस्ट मित्र, रुईकर जी को अपनी कोजागिरी पूर्णिमा के समय मित्रों के साथ दुग्ध पान पर सदैव बुलाते और हंसकर कहते, ‘‘तुम्हारा स्वागत है, परंतु अपने विचार मेरे दरवाजे पर छोड़कर अंदर आना।’’ (पुस्तक-डॉ. हेडगेवार:जीवन चरित्र, लेखक-नाना पालकर पृष्ठ 72) कारवां के अपने लेख में लेखक का मुख्य आरोप है कि ‘डॉ. हेडगेवार ने बालासाहब हुद्दार द्वारा 1939 में नेताजी सुभाष बोस के बारे में बात करने को ज्यादा महत्व नहीं दिया और इस बारे में विशेष बात नहीं की’।
असल में, उस समय वे स्वास्थ्य लाभ के लिए नासिक में थे। यह वह बीमारी थी जिसने जून1940 में उनके प्राण हर लिए, तब वे मात्र 50 वर्ष के थे। उनके आखिरी महीने अत्यंत पीड़ादायक और कठिन रहे थे। रीढ़ की हड्डी की पीड़ा इतनी अधिक थी कि वे सो नहीं पाते थे। लेखक का कहना है कि ‘प्रो. राकेश सिन्हा ने हुद्दार की डॉ. हेडगेवार के साथ भेंट का स्थान गलत बताया है। वे नासिक में मिले थे, नागपुर में नहीं। लेखक ने पूरा शोध नहीं किया है’। नेता जी डॉक्टर जी से मिलने जून 1940 में (उनके आखिरी दिनों में) नागपुर आए थे। उस समय डॉक्टर जी कई रातों की अनिद्रा केबाद उस रात बड़ी मुश्किल से सोये थे। उनके परिचारक ने यह बात नेताजी को बताई और उन्हें रुकने को कहा। नेता जी के पास समय नहीं था।
हम जानते हैं उस काल में उनकी परिस्थिति क्या थी। वे प्रणाम करके चले गए। डॉक्टर जी को जब पता चला कि नेता जी मिलने आए थे तो उनको बहुत पछतावा हुआ। वे अत्यंत भावुक हो गए। (पुस्तक-डॉ. हेडगेवार : जीवन चरित्र, लेखक-नाना पालकर पृष्ठ 396) यदि नासिक की हुद्दार और डॉक्टर जी की चर्चा इतनी व्यर्थ होती तो 1940 में नेता जी नागपुर क्यों आते?
यह एक कटु सत्य है कि बालासाहब हुद्दार विदेश से वापस आने के बाद दिशाहीन से हो गए, जबकि संघ कई कठिनाइयों और संघर्षों के बाद उन्नति के पथ पर था। कदाचित हुद्दार जी को संघ में कोई पद न मिलने के कारण कष्ट हुआ होगा और उन्होंने अपने महिमामंडन के लिए 1979 में ऐसा कुछ कहा भी होगा। हम इस तर्क को दरकिनार कर दें तो भी यह आरोप कहां तक सही है कि जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन स्वतंत्रता संग्राम, समाज और राष्ट्रहित में लगाया हो, उन्हें बस एक घटना के आधार पर ‘ग्रेट बिट्रेयर’कहा जाए?
कांग्रेस में अंत:र्कलह
एक ओर तो नेहरूवादी स्वतंत्रता आंदोलन का सारा श्रेय गांधी-नेहरू के अहिंसात्मक आंदोलन को देना चाहते हैं, वहीं वे डॉक्टर जी को हिंसा का मार्ग छोड़कर गांधी जी के अहिंसा के मार्ग पर आकर कांग्रेस में काम करने और फिर संघ को प्रारंभ करने के लिए कोसते हैं! दूसरी ओर नेता जी सुभाषचंद्र बोस गांधी जी से अलग होने और सैन्य मार्ग चुनने के लिए हाशिए पर कर दिए गए थे। तो क्या इनको लगता है, ये प्रमाण पत्र देंगे कि कौन स्वतंत्र संग्राम में था, कौन नहीं? जब नेता जी को कांग्रेस में अलग-थलग कर दिया गया और उन्होंने इस्तीफा दिया तब उन्होंने अपना मार्ग निश्चित नहीं किया था। उस समय कांग्रेस में अंत:र्कलह चल रही थी। कांग्रेस ने 1942 में आकर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन घोषित किया था और नेता जी ने 1943 में आजाद हिन्द फौज की कमान संभाली थी। वे हिटलर से भी मिले थे। ऐसे में उनकी भूमिका को कैसे देखा जाएगा?
स्वतंत्रता संग्राम को इस प्रकार टुकड़ों में प्रस्तुत करके हम इस महायज्ञ को नहीं समझ पाएंगे। यह वामपंथियों की एक समस्या है, क्योंकि वे अपराध बोध से ग्रस्त हैं। नए निशाने चुनते रहते हैं, ताकि कहीं उनके देश विरोधी, रूस और चीन के पिछलग्गू होने की बात सार्वजनिक न हो जाए।
अनुशीलन समिति में डॉ. हेडगेवार की भूमिका को लेकर कारवां का लेखक भ्रम पैदा करना चाहता है। परंतु श्री त्रैलोक्यनाथ ने अपनी आत्मकथा ‘जेल में तीस बरस’ में लिखा है कि समिति में उनका गुप्त नाम ‘कोकेन’ रखा गया था।
यहां यह स्मरण कराना आवश्यक है कि कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया ने हैरतअंगेज सर्कस के इस काल में यह करतब किया। लेनिन के कथनानुुसार,1927 में कॉमिनटर्न ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी और उनके सभी समर्थकों को पूंजीपतियों का एजेंट घोषित कर दिया था। इसके अलावा ‘द रेड ब्लंडर्स: द कम्युनिस्ट्स हैव कनसिसटेंटिली बीट्रेड नेशनल इंटरेस्ट्स-टेलीग्राफ इंडिया’ में उनके कई कारनामों का उल्लेख है।
डांगे का माफीनामा, जो 1942 में पहले ‘भारत छोड़ो’ को समर्थन और विश्व युद्ध के बदलते मिजाज को देखते हुए हुआ था, अपने आका रूस के पाला बदलने के बाद, अंग्रेजों का समर्थन, कांग्रेसी नेताओं को पकड़वाने में सहायता और देश के साथ गद्दारी, ये सब तथ्य इतिहास में दर्ज हैं। भले ही ये चीजें आज आम जनता की आंखों के सामने से गायब हो गई हैं। 1942 में निजाम और कम्युनिस्टों ने इकट्ठे आकर अंग्रेजों का द्वितीय विश्व युद्ध में साथ दिया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया। इसी लीक पर चलते हुए उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का समर्थन किया।
1942 में हैदराबाद में निजाम के साथ मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया। (पुस्तक-निजाम्स रूल अनमास्क्ड, लेखक-आचार्य केसर रेड्डी, पृष्ठ 67, संवित प्रकाशन) वे देश के आजाद होने के बाद, अपने आका स्टालिन के कहे को दोहराने लगे कि ‘यह बूर्जुआ आजादी है, सर्वहारा नहीं’, 1947 से 1951 तक, चार वर्ष स्वतंत्र भारत के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध किया। जिन नेता जी की डॉ. हेडगेवार से भेंट को लेकर हजारों शब्दों का कथन गढ़, उनके बारे में उन्हें यह तो याद ही होगा कि, उन्हें ‘तोजो का कु …’ कहते हुए शर्मनाक कार्टून बनाने वाले कम्युनिस्ट ही थे, कोई संघ स्वयंसेवक नहीं। 1962 में चीन के साथ खड़े होना कोई भूल नहीं है। आशा है कारवां इतिहास के इन पन्नों को भी उजागर करेगा।
अपमानजनक शब्द-प्रयोग
डॉक्टर हेडगेवार के कृतित्व को कमतर दिखाने के लिए कारवां के लेखक ने अत्यंत अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया है, जो कि नाना पालकर द्वारा वर्णित डॉक्टर जी के वर्णन से विचित्र तरीके से भिन्न है। निश्चित ही उसने कल्पना की उड़ान भरी होगी। किसी के शारीरिक गठन के आधार पर उसके व्यक्तित्व को परखा जा सकता है? इससे अधिक नस्लवादी सोच क्या हो सकती है?
डॉक्टर हेडगेवार के 1920 के भाषणों में झलकी उनकी उग्रता के बारे में नाना पालकर लिखते हैं कि, जेल ले जाते वक्त पुलिस के दुर्व्यवहार से खिन्न होकर डॉक्टर जी द्वारा उसे ट्रेन से नीच फेंक देने की बात सुनकर पुलिस अफसर डर गया और अपना बर्ताव ठीक कर लिया। सुप्रसिद्ध फिल्मकार भालजी पेंडारकर तो केवल उत्सुकतावश डॉक्टर जी से मिलने गए थे, और फिर जैसे उनके ही हो गए। परंतु सत्य से वामपंथियों का कोई लेना-देना रहा ही नहीं है। अत्यंत संकुचित दृष्टि वाले कारवां के लेखक उस समय के विदर्भ-नागपुर की सामाजिक उथल-पुथल को अपनी भ्रष्ट सोच के अनुसार, ‘नागपुर में ब्राह्मणवादी हलचल’ बताते हैं।
कारवां पत्रिका में लेखक डॉ. मुंजे की इटली यात्रा को ‘संघ की ओर से की गई यात्रा’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। डॉ. मुंजे ने तब साधनहीन केशव बलिराम हेडगेवार को पढ़ाई पूरी करने में मदद की थी। डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए उन्होंने ही उन्हें कोलकाता भेजा था।
अनुशीलन समिति से उन्होंने ही उनका परिचय कराया था। डॉक्टर जी उनका अत्यंत आदर करते थे। परंतु रा.स्व.संघ के गठन के बाद डॉक्टर साहब अपने मार्ग पर चले, कई मौकों पर उन्होंने डॉ. मुंजे से असहमति व्यक्त की थी। जैसे,1920 में उन्होंने डॉ. मुंजे के साथ सत्याग्रह का नेतृत्व किया था। परंतु 1930 में मुंजे जी की इच्छा के विरुद्ध सत्याग्रह में हिस्सा लिया था।
हिन्दू महासभा के नेताओं की अपेक्षा थी कि संघ महासभा का तरुण दल बनेगा। परंतु डॉक्टर जी ने ऐसा नहीं किया। इससे हिन्दू महासभा में भारी नाराजगी थी। इसके कारण संघ को अत्यंत कटु शब्दों में उनकी निंदा सहनी पड़ी, परंतु डॉक्टर जी ने अथवा बाद में श्री गुरुजी ने भी कभी उसका प्रत्युत्तर नहीं दिया। डॉ. मुंजे के गोल मेज सम्मेलन में जाने का भी डॉक्टर जी ने समर्थन नहीं किया था। 1942 में संघ ने हिन्दू महासभा के विरुद्ध जाते हुए भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया। स्वयंसेवक जेल गए। भूमिगत नेताओं के रहने की व्यवस्था, अदालतों में उनके लिए वकालत करने जैसे कार्य किये। (पुस्तक-संघ और स्वराज, लेखक-रतन शारदा, पृष्ठ 43-47)
श्रीगुरुजी पर कटाक्ष
डॉ. साहब अपने मार्ग पर चले, कई मौकों पर उन्होंने डॉ. मुंजे से अहमति व्यक्त की थी। 1920 में उन्होंने डॉ. मुंजे के साथ सत्याग्रह का नेतृत्व किया, परंतु 1930 में मुंजे जी की इच्छा के विरुद्ध सत्याग्रह में हिस्सा लिया था।
कारवां के लेखक को शायद लगा होगा कि अब वह डॉ. हेडगेवार के विरुद्ध अपने ‘तर्क’ रख चुके हैं, इसलिए आगे उन्होंने श्री गुरुजी के प्रति भी अपनी अज्ञानता दिखाई। लेखक का दावा है कि नेताजी से न मिलने के निर्णय में श्री गुरुजी का बहुत बड़ा हाथ था। जिन्होंने संघ का इतिहास पढ़ा है, वे जानते हैं कि श्री गुरुजी डॉक्टर जी के से आयु में बहुत छोटे थे। उनके लिए डॉक्टर जी की आज्ञा देव- आज्ञा समान थी। वे उनसे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने कहा, ‘‘एक बार डॉक्टर जी ने मुझे रास्ते में रोककर पूछा, क्या तुम ही माधव गोलवलकर हो? मैं केशव’’। उस दिन से डॉ. साहब ने मुझे हमेशा के लिए बांध लिया।’’(पुस्तक-द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक-रंगाहरि, पृष्ठ 73) कारवां के लेखक से इतना ही कहना है कि वह रंगाहरि जी द्वारा लिखित श्री गुरुजी का चरित्र पढ़ते, तभी वह इस रिश्ते को समझ पाते। दरअसल वामपंथियों को श्री गुरुजी से विशेष दिक्कत है। अन्यथा1940 में श्री गुरुजी के सरसंघचालक बनने को लेकर जब संघ और उसके स्वयंसेवकों में कोई भ्रांति नहीं है, तो वह लेखक इस विषय में क्यों दखल दे रहे हैं? सच है कि वैरभाव को पकड़े रहने की जिद तो कोई वामपंथियों से सीखे!
नेहरू की हजार नकारात्मक कोशिशों के बावजूद श्री गुरुजी ने संघ को नई गति दी और 33 वर्ष के अपने नेतृत्व में उसे एक सुचारु संगठन के नाते स्थापित किया। उसके कई आयाम खड़े करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसलिए वामपंथी तो उनको अपना परम शत्रु मानेंगे ही। कारवां का लेखक पाठकों को भ्रम में रखना चाहता है कि ‘हुद्दार के साथ हुई कटु बैठक के बाद डॉक्टर जी ने श्रीगुरुजी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया’। जिस व्यक्ति को 1930 में डॉक्टर साहब ने संघ से निकाल दिया, जो 1939 तक डॉक्टर जी के दिल में जगह नहीं बना पाया, जो यूरोप से लौटकर फिर से अपना स्थान न बना पाया, क्या उसे डॉक्टर जी अपना उत्तराधिकारी बना सकते थे?
एक और राग कांग्रेसी और वामपंथी वर्षों से अलाप रहे हैं कि ‘श्री गुरुजी की अंग्रेजों के साथ मिलीभगत थी’। अनेक तथ्यों के सामने होने के बाद भी यह शरारत की जाती रही है। मैंने स्वयं अपनी पुस्तक में ऐसे तथ्य रखे हैं। उस पुस्तक में इस विषय पर जो लिखा है, उसका एक अंश इस प्रकार है-‘‘11 अगस्त,1942 को कुछ बहादुर तरुणों ने पटना के एक सरकारी भवन पर तिरंगा लहराने का साहस किया।
पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसमें 6 सत्याग्रही मारे गए। इनमें से दो संघ के स्वयंसेवक थे, देवीपाद चौधरी और जगतपति कुमार। विदर्भ में संघ का काम 1942 में अच्छा था। वहां स्वयंसेवक सत्याग्रही, बालाजी राईपुरकर की पुलिस की गोली लगने से मृत्यु हो गई। प्रख्यात ‘चिमऊ अष्टि प्रकरण’ में संघ के स्वयंसेवकों ने कांग्रेस के नेता के साथ स्थानीय सरकार स्थापित की। दादा नायक उस समय वहां संघचालक थे। उन्हें मृत्युदंड दिया गया। उस समय विश्व हिन्दू परिषद के डॉ. न.ब. खरे ने उनकी मृत्युदंड की सजा आजीवन कारावास में परिवर्तित करवाई’’। (पुस्तक -संघ और स्वराज, लेखक-रतन शारदा, पृष्ठ 44-45) सिंध में हेमू कालाणी नामक तरुण स्वयंसेवक को रेलवे की पटरियां उखाड़ने के आरोप में एक सैन्य अदालत द्वारा 1943 में फांसी की सजा दी गई। (पुस्तक-9 ईयर्स आफ आरएसएस इन सिंध-1939-1947, लेखक गोविंद मोटवाणी)
संघ कार्य की सब ओर प्रशंसा
वामपंथियों की एक समस्या है कि वे अपराध बोध से ग्रस्त हैं। नए निशाने चुनते रहते हैं, ताकि कहीं उनके देश विरोधी, रूस और चीन के पिछलग्गू होने की बात सार्वजनिक न हो जाए।
एक कांग्रेसी नेता गणेश बापू शिनकर ने अपनी पार्टी से त्यागपत्र देकर संघ के पक्ष में 1947 में बयान दिया, ‘‘संघ एकमात्र संगठन था जिसके स्वयंसेवकों ने भूमिगत नेताओं को 1942 में अपने घरों में शरण दी। उनके वकील स्वयंसेवकों ने निडर होकर हमारे केस लड़े। (पुस्तक-द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक-रंगाहरि, पृष्ठ 100) क्या यह सब श्री गुरुजी के सहयोग के बिना संभव था? यह अंश उस समय की अंग्रेज पुलिस के खुफिया विभाग के हवाले से उद्धृत है-‘‘तारीख 13 दिसंबर 1943-अभी संघ पर प्रतिबंध लगाने लायक कोई आधार नहीं बन रहा। परंतु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि गोलवलकर बड़ी तेजी से एक मजबूत संगठन खड़ा कर रहा है, जो उसके हर आदेश को मानेगा, गोपनीयता रखेगा, और उसके कहने पर किसी भी समय तोड़फोड़ की कार्यवाही को अंजाम देगा। यह संगठन सतही तौर पर ‘खाकसार’ जैसा दिखता है। परंतु एक मूलभूत अंतर है। खाकसार का नेता इनायतुल्ला बड़बोला और पागल किस्म का आदमी है, जबकि गोलवलकर एक चेतन, अत्यंत होशियार और बुद्धिमान नेता है।’’ (पुस्तक- संघ: बीज से वृक्ष, पृष्ठ 60-61)
संघ पर प्रतिबंध
इतना ही नहीं, श्री गुरुजी 15 अगस्त 1947 के एक सप्ताह पहले तक स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ाने और उनको लीगी गुंडों का प्रतिकार करने को तैयार रहने के प्रति सजग रखने के लिए प्रवास पर थे। इस क्रम में वे अपने अग्रणी साथी माधव राव मुल्ये और बालासाहब देवरस के साथ पंजाब और सिंध के दौरे पर थे। जबकि उस समय हिंसा, हत्याओं और लूटपाट की घटनाएं शुरू हो चुकी थीं। (पुस्तक-द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक-रंगाहरि, पृष्ठ106-115) उनके इस कार्य से बढ़ी संघ की लोकप्रियता ही संघ के विरोधियों को अरुचिकर लगी। कोई और देश होता तो ऐसे तरुणों को मालाएं पहनाता, उन्हें आगे बढ़ाता। लेकिन हमारे देश के तत्कालीन कांग्रेस नेताओं ने उन पर पाबंदी लगाकर पूरे बल से संघ को कुचलने की कोशिश की।
सरदार पटेल ने नेहरू जी के कहने पर संघ पर पाबंदी लगाई थी। 21 दिन बाद सीआईडी रिपोर्ट आई कि ‘गांधी हत्या में संघ का कोई हाथ नहीं है, न ही गांधी हत्या के बाद मिठाई बांटने में उसकी भूमिका है’। इसके बावजूद महीनों तक यह ड्रामा चलता रहा। (पुस्तक-द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक-रंगाहरि, पृष्ठ 139-140) सत्याग्रह के माध्यम से बढ़ते विरोध के बाद संघ पर से पाबंदी हटानी पड़ी। उस समय नेहरू जी नेपथ्य में चले गए। स्मरण रहे कि गांधी हत्या के कुछ दिन पहले नेहरू जी पंजाब की एक सभा में कह चुके थे कि ‘मैं संघ को कुचल दूंगा’, जबकि सरदार पटेल चाहते थे कि संघ कांग्रेस के साथ काम करे।
यह बात उन्होंने संघ पर पाबंदी के दौरान एक पत्र में लिखी थी। कांग्रेस की राज्य समितियों ने गांधी हत्या से पहले ही संघ पर पाबंदी के प्रस्ताव पारित कर दिए थे। (पुस्तक-द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक-रंगाहरि, पृष्ठ122-123)। कारवां के लेखक को बालासाहब हुद्दार का बखान करने का तो पूरा हक है, परंतु तथ्यों को तोड़-मरोड़कर संघ और उसके अधिकारियों, कार्यकर्ताओं को बदनाम करने का हक कतई नहीं है। जैसा प्रारंभ में लिखा है कि वामपंथियों और नेहरूवादियों का वैर भाव हिन्दुत्व के प्रति है, लेकिन संघ या डॉक्टर जी अथवा श्री गुरुजी से उनका यह वैरभाव क्यों है, यह समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है।
स्वामी विवेकानंद की निंदा से लेकर संघ विरोध तक के उनके दुष्प्रयास आज भी रुके नहीं हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी विरोध गुजरात दंगे की वजह से नहीं है, क्योंकि उससे बड़े दंगे तो कांग्रेस राज में हुए थे। मोदी से उनका विरोध इसलिए है क्योंकि वे हिन्दुत्व में बिना किसी लाग-लपेट के आस्था प्रदर्शित करते हैं। वे भारत की सभ्यता और संस्कृति को पोषित करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। नि:संदेह, सदियों पुराना यह संघर्ष अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। इसमें सत्य, हिन्दुत्व और भारतीयता की विजय सुनिश्चित है।
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