वैचारिक रूप से परास्त और हाशिये पर खड़ा वैश्विक वामपंथ अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में जुटा है। विश्व समुदाय के लिए अब कोई वामपंथ पक्ष नहीं रहा, क्योंकि उसकी विचारधारा और सत्य का बैर जगजाहिर हो चुका है। ऐसे में षड्यंत्रों और दुरभिसंधियों के अलावा वामपंथ के पास कुछ बचा नहीं है
भारत और कनाडा के बीच विवाद कोई सीधी सरल कहानी नहीं है, बल्कि इसकी कई परतें हैं। बीते कुछ दिनों के दौरान जो घटनाएं घटी हैं, उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मीडिया में उनकी चर्चा चल ही रही है। जरूरत है तो उसकी पृष्ठभूमि समझने की। आखिर क्यों दोनों देशों के बीच संबंधों में तेजी से गिरावट आई है।
कनाडा के मोर्चे से भारत पर राजनयिक एवं राजनीतिक निशाना साधने की साजिश 2018 के आसपास शुरू हुई थी, जब वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो पहली बार भारत की औपचारिक यात्रा पर आए थे। ट्रूडो वैश्विक वामपंथी और पश्चिम के उदारवादी तंत्र का एक हिस्सा हैं। वह उस विचारधारा के एक खास मोहरे भी हैं, जो दुनिया को बिल्कुल विपरीत नजरिये से देखने का आदी है। आत्मनिर्भरता या राष्ट्रवाद इस ग्लोबल वामपंथ के लिए विष है। इससे लड़ने के लिए तथाकथित उदारवादी मूल्यों और ‘अभिव्यक्ति एवं आचरण की स्वतंत्रता’ का झंडा बुलंद किए रखता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस विचारधारा के घोर विरोधी हैं। मोदी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले राष्ट्रभक्त हैं और अखंड भारत में विश्वास करते हैं। उनके नेतृत्व में 2019 के आमचुनाव में भारी बहुमत से मिली जीत ने दुनियाभर के कई नेताओं की राजनीतिक गणनाओं को ध्वस्त कर दिया था। 2024 में मोदी की संभावित विजय तो उनके लिए त्रासदी से कम नहीं होगी। वामपंथी और तथाकथित उदारवादी पश्चिम कम से कम अगले 5 वर्ष के लिए भारत में दक्षिणपंथी सरकार को सत्ता में देखना नहीं चाहता है।
अमेरिका में 2020 में राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडन की जीत के बाद वामपंथियों की सत्ता में वापसी हुई। लेकिन बाइडन को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ राजनीतिक संबंध न केवल मधुर रखने पड़े हैं, बल्कि इन संबंधों का व्यापक विस्तार भी करना पड़ा है। हालांकि इसमें अधिक संदेह नहीं है कि बाइडन भारत के प्रधानमंत्री को अधिक पसंद नहीं करते हैं। इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी के साथ संपर्क बढ़ाने के लिए काम करना पड़ा, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था और भू-राजनीति के लिए भारत बहुत महत्वपूर्ण है।
नरेंद्र मोदी केवल एक दक्षिणपंथी नेता नहीं हैं, बल्कि वह वाम इकोसिस्टम के विघटनकर्ता भी हैं। उन्हें राष्ट्रवादी घटकों का पूर्ण समर्थन प्राप्त है। वामपंथियों का यह मानना है कि यदि नरेंद्र मोदी की ताकत को क्षीण करना है तो खासतौर से उन उद्योगपतियों और व्यवसायियों को कमजोर करना होगा, जो प्रधानमंत्री मोदी के आत्मनिर्भर भारत अभियान को गति प्रदान कर रहे हैं। राहुल गांधी और कांग्रेस की चहेती मीडिया द्वारा प्रायोजित अडाणी विरोधी विषवमन इसी एजेंडा का एक हिस्सा है।
वैश्विक वामपंथ के लिए सबसे अधिक निराशाजनक होगा 2024 में भारत में तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आना और अमेरिका में राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी। ट्रंप और मोदी के आपसी संबंधों पर अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। संभावना तो इस इसकी भी दिख रही है
द इकोनॉमिस्ट और वाशिंगटन पोस्ट जैसे वामपंथी उदारवादी मीडिया ने राहुल गांधी के मिथ्या और निराधार आरोपों को काफी महत्व दिया है। ये प्रधानमंत्री मोदी और अडाणी के विरुद्ध जहर उगलते रहे हैं। इस दुरभिसंधि का सूत्रधार है हंगेरियाई मूल का अरबपति जॉर्ज सोरोस, जो वैश्विक वामपंथ और तथाकथित ‘नई विश्व व्यवस्था’ यानी न्यू वर्ल्ड आर्डर का बड़ा खिलाड़ी है। गौतम अडाणी पर हिंडनबर्ग की सर्वथा झूठी कहानी के पीछे भी सोरोस के सूत्रों का ही हाथ था। इसके पीछे उद्देश्य था, भाजपा के वित्तपोषण पर चोट कर प्रधानमंत्री मोदी को कमजोर करना।
कनाडा में शरण लेने वाला खालिस्तानी आतंकी हरदीप निज्जर की हत्या पर जस्टिन ट्रूडो ने जो प्रलाप किया, वह भी पश्चिमी जगत और ग्लोबल वामपंथ की ओर से प्रधानमंत्री मोदी और भारत पर दबाव डालने के लिए किया गया चिरपरिचित कूटनीतिक प्रयास ही था। वामपंथियों को यह अहसास हो रहा है कि मोदी का भारत पुराना इंडिया नहीं है। जी-20 की उम्मीद से भी अधिक सफल मेजबानी ने वामपंथियों की हताशा और बढ़ा दी है।
वैश्विक वामपंथ के लिए सबसे अधिक निराशाजनक होगा 2024 में भारत में तीसरी बार प्रधानमंत्री का रूप में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आना और अमेरिका में राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी। ट्रंप और मोदी के आपसी संबंधों पर अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है।
संभावना तो इसकी भी दिख रही है कि ट्रंप उपराष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में विवेक रामस्वामी को चुन लें, जों इस समय अमेरिकी चुनावी अभियान में लोकप्रियता के सोपान चढ़ रहे हैं और केवल ट्रंप के पीछे हैं। विवेक रामस्वामी के अमेरिका का उपराष्ट्रपति बनने का मतलब होगा वामपंथी कमला हैरिस की विदाई, जो वैश्विक वामपंथ के लिए एक बहुत बड़ी पराजय होगी। वामपंथी कुनबा बाइडन के बाद कमला हैरिस को व्हाइट हाउस में देखना चाहता है। यदि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन हुआ और ट्रंप राष्ट्रपति बने तो रूस-यूक्रेन युद्ध को घसीटते रखने और विश्वव्यापी व्यवस्था को स्थाई रूप से अस्थिर रखने के वामपंथी एजेंडे को ट्रंप, मोदी और रामस्वामी कूड़े में डाल देंगे। रामस्वामी का मोदी प्रशंसक होना भी वामपंथ को हजम नहीं होगा।
अत: यह मुद्दा केवल खालिस्तानी आतंकियों के लिए पश्चिमी देशों की दशकों पुरानी सहानुभूति की नहीं है। इस खिचड़ी में बहुत कुछ है। विश्वव्यापी ‘लिबरल’ और वामपंथी यह सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत हैं कि 2024 में भारत में सत्ता परिवर्तन हो। इसके लिए उनका इकोसिस्टम हर संभव हथकंडा अपना रहा है। वाम गिरोह भारत में राहुल गांधी और कांग्रेस की वापसी के लिए इसलिए आतुर है, क्योंकि सरकार में उसकी पकड़ फिर से बने। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रहते उनके लिए भारत के नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप करना असंभव है।
भारत में वामपंथ और दक्षिण के तंत्रों के बीच खुला युद्ध भी अब अधिक दूर नहीं है। इसलिए कनाडा की घटनाओं को हमें एक पूर्व संकेत के रूप में ही देखना चाहिए, क्योंकि असली पटकथा अभी आगे बढ़ने को है। वैचारिक रूप से परास्त और हाशिये पर खड़ा वैश्विक वामपंथ अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में जुटा हुआ है। विश्व समुदाय के लिए अब वामपंथ कोई पक्ष नहीं रहा, क्योंकि उसकी विचारधारा और सत्य का अमिट बैर जगजाहिर हो चुका है। ऐसे में षड्यंत्रों और दुरभिसंधियों के अलावा वामपंथ के पास कुछ बचा नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हम सावधान न रहें।
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