सभ्यता क्या है और सभ्यता एवं संस्कृति का तालमेल क्या है? तो जो कुछ भी हमको दिख रहा है, वह सभ्यता का अंग है। विज्ञान नये-नये आविष्कार करता है, उन आविष्कारों को कोई इंजीनियर, तकनीकीविद् उत्पाद में बदल देता है।
सभ्यता के वर्तमान संकट का समाधान क्या हो, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
सबसे पहले यह प्रश्न आता है कि सभ्यता क्या है और सभ्यता एवं संस्कृति का तालमेल क्या है? तो जो कुछ भी हमको दिख रहा है, वह सभ्यता का अंग है। विज्ञान नये-नये आविष्कार करता है, उन आविष्कारों को कोई इंजीनियर, तकनीकीविद् उत्पाद में बदल देता है। उद्यमी उसका उत्पादन करता है। व्यापारी उसकी बिक्री करते हैं और सारी दुनिया में उसके लिए उपभोक्ता ढूंढे जाते हैं। धीरे-धीरे यह पूरी शृंखला एक व्यापक रूप ले लेती है। धीर-धीरे पूरी दुनिया में एक चक्र बन जाता है। इसी चक्र पर दुनिया की पूरी सभ्यता चल रही है। यह तुरंत बदलती है। विज्ञान तेजी से बदलाव करता है। हर क्षेत्र में विज्ञान, तकनीक, उद्योग, बाजार और विज्ञापन, इन सभी द्वारा मिलकर समाज को घुमाने का काम चल रहा है और हर दिन एक नया बदलाव आ रहा है। बाजार में हर दिन नयी चीजें उपभोक्ता को खरीदने के लिए प्रेरित करती हैं। एक प्रतिस्पर्धी आवश्यकता पैदा की जाती है। इस सभ्यता का उद्गम कहां है? कहां से सभ्यता पैदा हुई है?
इस सभ्यता का केंद्रबिंदु यूरोप है। आज से 500-600 साल पहले यूरोप में दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर शासन करने और वहां के संसाधनों का उपयोग करने की प्रवृत्ति जगी। इस तरह उपनिवेश शुरू हो गया। यूरोप के देशों, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन, पुर्तगाल और बाद में अमेरिका का दुनिया के देशों में जाकर सुनियोजित ढंग से वहां के लोगों का शोषण करना, उनकी जमीन का उपयोग करना, उन्हीं को दास बनाकर अपनी आर्थिक स्थिति को विकसित करना शुरू से प्राकृतिक स्वभाव था। इसका कारण यह है कि वहां की प्रकृति, जलवायु मनुष्य के अनुकूल नहीं थी।
प्रकृति निष्ठुर है। बहुत कम जमीन उपयोगी मिलती है।
उस जमीन को बचाकर रखना और दूसरी जगह की अच्छी जमीन को संगठित रूप से आक्रमण कर कब्जा कर लेना पूरे पश्चिमी जगत का स्वभाव बन गया। उस प्रकृति और भारत की प्रकृति में अंतर इतना भर है कि हमारे यहां भगवान ने अच्छी और उपयोगी जमीनें दीं। दूसरे की जमीन को लूटने, कब्जा करने का कोई कारण ही नहीं था। इसलिए हमारे देश, समाज की प्रकृति में, स्वभाव, सोच, चिंतन में अंतर है। लूट, दूसरों का शोषण उनकी स्वभाविक प्रकृति है जो भारत के लोगों का नहीं है।
हमारे देश में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने पर भी उसका कम से कम उपयोग करने वाले को प्रतिष्ठा मिलती थी। पहले से जो है, उसमें से त्याग कर दो, जो बचता है, उसे उपभोग में लाओ, यह हमारे यहां का सिद्धांत था। पश्चिमी जगत ने इस सिद्धांत को नहीं माना और वहां की दुनिया अनियंत्रित उपभोग की तरफ चल पड़ी
500-600 वर्ष पूर्व पश्चिम दुनिया में जब विज्ञान आगे बढ़ा तो विज्ञान का सबसे पहले संघर्ष वहां के रिलीजियस लोगों से ही हुआ। उनकी वैज्ञानिक खोजें रिलीजियस लोगों की मान्यताओं के विपरीत थीं। इसीलिए ब्रूनो, गैलीलियो को कष्ट भोगना पड़ा। आगे चलकर विज्ञान धीरे-धीरे रिलीजन से अलग हो गया और नयी खोजें शुरू हो गयीं। भाप इंजन का आविष्कार होने, बिजली का उत्पादन होने, बिजली को दूर ले जाने का सिस्टम विकसित होने, मशीनीकरण होने पर उपनिवेशों से कच्चा माल लाना, बनाना, बेचना और लाभ कमाना उनकी दूसरी प्रकृति बन गयी। कुल मिलाकर उन्होंने विज्ञान को भी शोषण के तंत्र के रूप में विकसित कर लिया। उनका उद्देश्य मात्र अधिक से अधिक लाभ कमाना था। मानवीय मूल्यों का वहां कोई अर्थ नहीं था।
दूसरा चरण
उन्होंने अधिक से अधिक लाभ कमाने और उपभोग करने को मानव जीवन की सफलता मान लिया जो हमारे देश के मौलिक विचार से सर्वथा भिन्न था। हमारे देश में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने पर भी अपने ऊपर कम से कम उपयोग करने वाले को प्रतिष्ठा मिलती थी। इसीलिए भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, शंकराचार्य, गांधी जी को प्रतिष्ठा मिली। पहले से जो है, उसमें से त्याग कर दो, जो बचता है, उसे उपभोग में लाओ, यह हमारे यहां का सिद्धांत था। पश्चिमी जगत ने इस सिद्धांत को नहीं माना और वहां की दुनिया अनियंत्रित उपभोग की तरफ चल पड़ी।
दूसरा मौलिक अंतर यह है कि पश्चिमी देशों के रिलीजियस सिद्धांतों और उनके दिशानिर्देशों में उन्होंने ऐसा माना कि ईश्वर ने मनुष्य को बना दिया, अब मनुष्य धरती की सारी चीजों का मालिक है। इसी सिद्धांत ने वहां के मनुष्य का स्वभाव बदल दिया। भारत में उलट था। यहां मनुष्य इस धरती का पुत्र है, मालिक नहीं। इन दोनों में जमीन-आसमान का अंतर था। इस धरती मां का प्रत्येक बालक विराट परिवार का अंग है। इस धरती से कम से कम लेना, इस धरती का शोषण नहीं करना। इसी मौलिक अंतर ने ही उपयोग और उपभोग में अंतर कर दिया। पश्चिमी देशों में विकसित समाज का मानक उपभोग आधारित है। ये मानक भारत की परंपराओं के विपरीत थे। इन्होंने सारी सभ्यता को एक नया मोड़ दे दिया।
पश्चिमी सभ्यता ने मनुष्य को आत्मकेंद्रित कर दिया। यह आत्मकेंद्रित सभ्यता इतनी बढ़ती गयी कि सामाजिकता कम होती जा रही है। सामूहिकता का नाश हो रहा है। इसके परिणाम और भी अधिक गंभीर हैं। अकेलापन और ज्यादा बीमारियां ले आता है, असहिष्णुता पैदा करता है। इस सभ्यता ने बहुत कुछ सामर्थ्य दिया है, लेकिन मनुष्य को अकेला बनाकर छोड़ दिया है
एक बड़ी समस्या पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने पैदा कर दी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आयी भारी मंदी के दौरान जॉन मेनार्ड केन्स नामक अर्थशास्त्री ने लोगों को ज्यादा से ज्यादा माल खरीदना सिखाने का नया सिद्धांत दे दिया ताकि ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हेतु लोगों को रोजगार मिले। इससे सारी दुनिया में उपभोग बढ़ने लगा। लेकिन इससे धरती पर बहुत बड़ा संकट आ गया। हजारों-लाखों वर्षों में बनने वाले कोयले, पेट्रोल का तेजी से उपभोग होने लगा। दुनिया का वातावरण बिगड़ने लगा।
पिछले 100 वर्ष के अंदर इस धरती का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ गया। अब अगला जो 1 डिग्री सेल्सियस और बढ़ेगा, उसके लिए केवल 30 वर्ष लगेंगे। हर साल समुद्र का जल 5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। सैकड़ों मीटर बर्फउत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध से पिघलकर समुद्र में आ रही है। सारी धरती का संतुलन बिगड़ रहा है। बर्फ और पानी के घनत्व में अंतर होने से धरती की धुरी बदल रही है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून की दिशा बदल रही है। धाराओं और दिशाओं के बदलने से वर्षभर में होने वाली बरसात अब केवल दो दिन में हो जाती है। जहां भारी वर्षा होती थी, वहां सूखा पड़ने लगा और राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर जैसे स्थान पर बाढ़ आ गयी। रेगिस्तानी देशों में बाढ़ आने लगी। पूरी धरती का संतुलन बिगड़ गया। सारी दुनिया परेशान है। लेकिन बदलाव के लिए तैयार नहीं है।
बीमारियां उस हिसाब से बढ़ती चली जा रही हैं। हमारे सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया। इस सारे संकट में घी डालने डालने की बात यह कि कुछ लोगों के हाथ में पैसा एकत्रित होने लगा। दुनिया में 10 प्रतिशत लोगों के पास 90 प्रतिशत का लाभ आ गया। एक प्रतिशत लोगों के हाथ में 50 प्रतिशत की संपत्ति आ गयी। यह एक विचित्र प्रकार का असंतुलन दुनिया में बन रहा है। दुनिया के 30-40 प्रतिशत लोग रोजाना केवल भोजन कर पाते हैं। और नीचे के 15 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो दो समय खाना भी नहीं खा सकते।, इलाज नहीं करा सकते। यह असमानता बढ़ती चली जा रही है। यही असमानता लोगों के असंतोष को बढ़ावा देगी। बहुत लंबे समय तक, समाज को इस असमानता के साथ शांत रखना मुश्किल हो जाएगा। बड़ी मात्रा में सामाजिक अराजकता का खतरा खड़ा हो जाएगा।
संपूर्ण मनुष्य जाति अपने अवश्यम्भावी विनाश की ओर बढ़ रही है। अब हमें बचने का कोई उपाय नहीं दिखता। इसका एकमात्र उपाय है कि सारा विश्व भारत की शरण ले ले। भारत के लोगों के पास वह भावना है, वह व्यवहार जिसके कारण वे सारी पृथ्वी के सब लोगों को एक परिवार के रूप में विकसित होते हुए देखेंगे। उन्हें सबके विकास में आनंद आता है। सबके साथ मिलकर चलने में उन्हें सुख मिलता है
इस भोगवादी सभ्यता ने मनुष्य की नैतिकता को गिरा दिया। लोग किसी भी प्रकार से लाभ कमाने के लिए आगे बढ़ गये। विज्ञापन में नैतिकता का आधार बहुत कम रह गया है। कृषि क्षेत्र में बिना किसी जरूरत के भारी मात्रा में पेस्टिसाइड, हर्विसाइट्स इत्यादि आ गए। दुनिया का एक चौथाई कृषि क्षेत्र खतरे में आ गया। वहां की जमीन जहरीली हो गयी। कैंसर के रोगी बढ़ने लगे। इसकी जड़ भोगवादी सभ्यता, संस्कृति में थी, जहां नैतिकता खत्म हो चुकी थी।
केवल बीमारियां ही नहीं बढ़ीं, मानव अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गया। ब्रिटेन ने बूचड़खानों से निकलने वाले अनुपयोगी अंगों को सुखाकर उसे पशुओं के चारे में मिलाना शुरू कर दिया। बाद में देखने को मिला कि वहां पर मैड काउ बीमारी हो गयी। दो साल पहले मैड काउ बीमारी से ग्रस्त 40 लाख गायों की हत्या हुई। ज्यादा लाभ के लिए मनुष्य गाय को भी एक उद्योग मान रहा था। इस सभ्यता ने नैतिकता को, जीवनमूल्यों को किनारे कर दिया। यह बहुत बड़ा संकट है।
मनुष्य को किया आत्मकेंद्रित
इस सभ्यता ने मनुष्य को आत्मकेंद्रित कर दिया है। सभ्यता मैं, मेरी पढ़ाई, मेरी नौकरी, मेरा मकान, मेरी गाड़ी – मैं केंद्रित हो गयी। यह आत्मकेंद्रित सभ्यता इतनी बढ़ती गयी है कि सामाजिकता कम होती जा रही है। छात्रावासों में कॉमनरूम बंद हो गये हैं। अब सबके पास मोबाइल है, अपने-अपने कमरों में बैठे हैं। आत्मकेंद्रित सभ्यता तेजी से बढ़ रही है। सामूहिकता का नाश हो रहा है। इसके परिणाम और भी अधिक गंभीर हैं। अकेलापन और ज्यादा बीमारियां ले आता है, असहिष्णुता पैदा करता है। उसके पास साधन तो बहुत हैं। फॉलोवर पांच लाख हैं। लेकिन बात करने के लिए कोई नहीं है। फिर अवसाद की दवा खाता है। इस सभ्यता ने बहुत कुछ सामर्थ्य दिया है, लेकिन मनुष्य को अकेला बनाकर छोड़ दिया है।
आइंस्टाइन ने एक सुन्दर वाक्य लिखा है- वर्तमान में दुनिया की आर्थिक पद्धति अराजकता की ओर बढ़ रही है। आइंस्टीन केवल वैज्ञानिक नहीं थे, सामाजिक व्यक्ति भी थे। वे कहते थे कि क्या विज्ञान मनुष्य के हृदय का उन्नयन कर सकता है? क्या विज्ञान मनुष्य की गहराइयों को बढ़ा सकता है? आइंस्टीन कहते हैं – नहीं। आइंस्टीन कहते थे कि आज मनुष्य अपने अहं का गुलाम हो गया है। मनुष्य अंदर के सुख से वंचित होता जा रहा है। आज के आधुनिक समाज का पूंजीवादी व्यवहार सारी दुर्भावनाओं, दुर्व्यवस्थाओं का उद्गम स्थल बन गया है। इससे कैसे बचा जा सके, इसका समाधान वे बता नहीं सके। गांधी जी भी कहते थे कि वर्तमान सभ्यता ने लालच, आक्रामकता, उपनिवेशवाद, शोषण, अनियंत्रित व्यक्तिवाद, विकृत भौतिकवाद, अनैतिक, मूल्यहीन वाणिज्यिक शिक्षा को जन्म दिया है। कुल मिलाकर मनुष्य का सामाजिक जीवन ऐसा हो गया है।
हमारा स्वास्थ्य कैसा हो गया?
इस सभ्यता ने स्वास्थ्य पर बहुत असर डाला है। इसने हजारों-लाखों वर्ष से चली आ रही आहार व्यवस्था को एकदम बदल दिया है। 10-20 हजार वर्षों में व्यवस्थित हुई हमारी शारीरिक प्रणाली एकदम बदल गयी है। आहार लेने के वर्तमान तरीकों ने मनुष्य में नयी-नयी बीमारियां ला दीं। स्वयं को सम्पन्न मानने वाले, एसी से बाहर न निकलने वाले, सूर्य की रोशनी से बचने वाले 70 प्रतिशत लोगों में विटामिन डी की कमी है। एसी के आदी लोगों में बड़ी आबादी आज ओस्टियोपोरोसिस से ग्रस्त है।
10-20 हजार वर्षों में हमारे शरीर के भीतर सेट जैवघड़ी का चक्र बिगड़ गया है। इसने मनुष्य को भिन्न-भिन्न तरह की बीमारियों से ग्रस्त कर दिया है। जब मनुष्य असहिष्णु होता गया तो परिवार भी बिखर गया। सहनशक्ति इसलिए भी कम होती गयी क्योंकि उसका प्रशिक्षण भी कम होता गया। एक ओर धरती का वातावरण जीने लायक नहीं रह रहा। दूसरी ओर हमारा व्यक्तिगत जीवन बिगड़ गया। पारिवारिक जीवन संकट में आ गया। सामाजिक जीवन भी बिगड़ रहा है। जीवन के जीवन मूल्य भी क्षरित हो गये। हम कहां जा रहे हैं? इसके लिए दुनिया के लोग चिंतित हैं।
एक बड़े इतिहासकार आॅर्लोल्ड टॉयनबी दुनिया के बहुत गहन अध्ययन के बाद एक निष्कर्ष पर पहुंचे। टॉयनबी कहते हैं, पिछली शताब्दी यूरोप से प्रारंभ हुई थी। दुनिया को बहुत कुछ देने का काम यूरोप ने किया। पिछली दो शताब्दियों से केंद्रबिंदु यूरोप था। टॉयनबी कहते हैं कि मैं यह समझ रहा हूं कि संपूर्ण मनुष्य जाति अपने अवश्यम्भावी विनाश की ओर बढ़ रही है। अब हमें बचने का कोई उपाय नहीं दिखता। इसका एकमात्र उपाय है कि सारा विश्व भारत की शरण ले ले।
भारत के लोगों के पास वह भावना है, वह व्यवहार जिसके कारण वे सारी पृथ्वी के सब लोगों को एक परिवार के रूप में विकसित होते हुए देखेंगे। सबके विकास में उनको आनंद आता है। सबके साथ मिलकर चलने में उनको आनंद आता है। वे कहते हैं कि यह पहले ही स्पष्ट हो रहा है कि जिस अध्याय की शुरुआत पश्चिम से हुई, उसका अंत भारतीयता से करना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह मानव जाति के लिए आत्मघाती होगा। मानव इतिहास में सर्वाधिक खतरनाक समय को देखते हुए समाधान का एकमात्र मार्ग प्राचीन हिंदू मार्ग है। वे कहते हैं कि भारत का रास्ता सबके लिए सहायक हो सकता है। सभी विषयों में भारत एक रास्ता दिखा सकता है।
क्या है समाधान
समस्या बहुत गंभीर है। इसका समाधान क्या है? सभ्यता भी जरूरी है। विज्ञान एवं तकनीक भी जरूरी है लेकिन कुछ मूल्यों के साथ। कुछ मानक पक्के करने होंगे। जीवन मूल्यों के साथ-साथ अपने को विकास के मार्ग निश्चित करने होंगे। अगर मनुष्य के अंदर मानवता खतम हो गयी, करुणा, प्रेम, दया खत्म हो गयी तो संपदा क्या करेगी? संपदा मनुष्य को अनंत सुख नहीं दे सकती। संपदा साधन है, सुख तो मनुष्य के मन के अंदर ही रहेगा। इसलिए भारतीय संस्कृति एक अलग पक्ष है। यह सभ्यता एक अलग पक्ष है। सभ्यता आती है और जाती है। हर पांच साल के अंदर बदल जाती है, वह सभ्यता है।
जो हजारों साल की साधना से लोगों के मन में गहराई तक बैठी है, उसका नाम संस्कृति है। सभ्यता मनुष्य का बाहर से शृंगार करती है लेकिन संस्कृति जीवन के अंदर के मूल्यों का शृंगार करती है। मनुष्य के अंदर श्रद्धा, प्रेम, त्याग, शृंगार, समर्पण, सहकारिता है, दूसरों के कष्ट में शामिल होने का भाव है, यह संस्कृति देगी। यह हजारों वर्षों के अंदर आयी है। सभ्यता अगर शरीर का अंग वस्त्र है तो संस्कृति उसके अंदर की आत्मा है। संस्कृति हजारों वर्षों में निर्मित हुई है और हजारों वर्षों तक चलेगी। इसलिए सभ्यता संस्कृति के अनुकूल चले, संस्कृति को छोड़कर नहीं चले। संस्कृति ने हजारों वर्षों में कुछ मूल्यों का निर्धारण और निर्माण किया है। सभ्यता बाहर का शृंगार तो कर सकती है लेकिन अंदर की आत्मा नहीं बन सकती। यह आत्मा का काम संस्कृति ही करेगी।
इसलिए आज आवश्यकता यह है कि संस्कृति को संभालकर इसके प्रकाश में हम सभ्यताओं का निर्धारण करें। जो आवश्यक है, उसको अवश्य लेना चाहिए। लेकिन उसकी कसौटी यह है कि हमारे जीवन मूल्यों की सुरक्षा होनी चाहिए। मनुष्य अपनी सामाजिकता, परिवार को न भूल जाए। पैसा कमाने में इतना पागल न हो जाए कि उस पैसा का भी उपभोग करना न आए। पश्चिमी सभ्यता ने बहुत कुछ दिया पर मानवता का बहुत कुछ छीन भी लिया। मनुष्य को बीच चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। अब समझ में नहीं आ रहा कि कहां जाएं।
ग्लोबल वार्मिंग का संकट एक पक्ष है। मनुष्य का अपना संकट दूसरा पक्ष है। परिवार का संकट तीसरा पक्ष है। सारे समाज की सामाजिकता चौथा पक्ष है। इन चारों पक्षों को ध्यान में रखकर सभ्यता को आगे लेकर चलना होगा। मनुष्य को जबतक हम सामाजिक नहीं बनाएंगे, तब तक उसे सुख नहीं मिलने वाला। विशाल, विराट में सुख है, अकेले में नहीं है। भारत की संस्कृति में कहा गया है, सुख देने में है, लेने में नहीं है। इस मौलिक बात, दर्शन को जब तक दुनिया नहीं समझ लेगी, तब तक काम नहीं बनेगा।
आध्यात्मिकता भाव के कारण ही आती है और यह केवल भारत में ही है। भारत का व्यक्ति जानता है कि जो परमात्मा मेरे अंदर है, वही परमात्मा सबके अंदर है। यह भाव उसके अंदर के आध्यात्मिक भावों को और जगा देता है। यह सिद्धांत केवल भारत में ही है। भारत के ऋषियों ने हमें सिद्धांत दिया है कि परमात्मा सर्वव्यापी है। जो ब्रह्म है, वहीं अनेक में विकसित हुआ है। किसी ने सातवें आसमान पर बैठकर सृष्टि का निर्माण नहीं किया है। जो हमारे पास है, वह हमारे अंदर और आपके अंदर भी है। हम परमात्मा की सेवा करते-करते ही दूसरे की सेवा करते हैं। दूसरे की चिंता करते-करते परमात्मा की सेवा करते हैं। इसलिए सेवा करने का भाव और अधिक बढ़ जाता है। यही अध्यात्म है। अध्यात्म के साथ सभ्यता आगे बढ़े तो सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण अच्छा होगा। विज्ञान सारे विश्व को और आगे सुखी बनाने की ओर बढ़ेगा।
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