प्राचीन ग्रंथों में सेवा को धर्म माना गया है- सेवा परमो धर्म:। जब धर्म के रूप में कोई काम होता है, तो पुण्य के फलों की आकांक्षा नहीं होती। कर्तव्य और सेवा को धर्म मानने का भाव भारत के रक्त में है।
इस अवसर पर अपने संबोधन में श्री भैय्या जी जोशी ने कहा कि पहले लोग सम्मान के लिए काम करते थे। प्रसन्नता इस बात की है कि बीच के कालखंड में जो विकृतियां आई थीं, उनमें अब धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। अब एक व्यवस्था बनी है, जिसमें समाज से लोगों को चुन-चुनकर पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारत रत्न जैसे सम्मान दिए जा रहे हैं। ईश्वर संत पुरस्कार पाने वाले लोग नि:स्वार्थ भाव से सेवा कार्यों में लगे हुए हैं। उनमें यह भाव नहीं था कि उन्हें इस तरह का पुरस्कार मिलेगा।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में सेवा को धर्म माना गया है- सेवा परमो धर्म:। जब धर्म के रूप में कोई काम होता है, तो पुण्य के फलों की आकांक्षा नहीं होती। कर्तव्य और सेवा को धर्म मानने का भाव भारत के रक्त में है। सेवा के लिए धन और साधन की आवश्यकता नहीं होती। धन और साधन के बिना भी मन की शक्ति के बल पर अपनी ऊर्जा लगाकर सेवा करने वाला समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग आसपास दिखाई देता है। हमारे यहां कई स्थानों पर पक्षियों के लिए दाना डालने की परंपरा है। कुछ लोग सोचते हैं कि रोज पता नहीं कितना अनाज बर्बाद होता होगा। अनुमान लगाएं तो देशभर में सैकड़ों कुंतल अनाज पक्षियों को डाला जाता होगा। दरअसल, इस देश की मिट्टी में उपजने वाली फसलों पर केवल हमारा ही अधिकार नहीं है, इन पर पशु-पक्षियों का भी उतना ही अधिकार है।
सेवा कार्य में जुटे लोगों को ही ईश्वर संत पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यहां करने वाले भी ईश्वर हैं और जिनके लिए वे कर रहे हैं, वे भी ईश्वर हैं। बिना अपेक्षा किए जो कार्य किया जाता है, वही सेवा है। यही भारत का मूल स्वभाव है। ईश्वर का ऋण हमें ही चुकाना है। इसलिए ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऊर्जा, साधन का उपयोग हम समाज के लिए करें, इसी को ऋण मुक्ति का मार्ग बताया गया है। सेवा से प्रतिष्ठा है, परंतु प्रतिष्ठा के लिए सेवा नहीं है। सेवा का सम्मान है, सम्मान के लिए सेवा नहीं है।
लोग इसी भाव से पक्षियों को दाना डालते हैं। दरवाजे पर आई हुई गोमाता को रोटी देना किसी ने नहीं सिखाया। दरवाजे पर भिक्षा मांगने आने वाले को भी खाली हाथ नहीं लौटाया जाता, क्योंकि हमारे मन में अतिथि देवो भव का भाव है। हमारे यहां नर सेवा को नारायण सेवा कहा जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने तो इसके लिए दरिद्रनारायण शब्द गढ़ा था। यानी दरिद्र व्यक्ति भी नारायण है। इस सूत्र को मन में रखकर आसपास ‘ईश्वर’ को देखना और उसकी सेवा करना ही पूजा माना गया है। धर्म को हम सेवा की दृष्टि से देखते आए हैं। उन्होंने आगे कहा कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग, जिसे हम जनजाति या अन्य नाम से बुलाते हैं, आज भी वंचित है। जाति वर्ग के कारण भी समाज का बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा, आर्थिक साधनों से दूर रहा। इसलिए उनके लिए कई योजनाएं और सेवा कार्यचल रहे हैं। लेकिन सेवा का दायरा सीमित हो गया है, जैसे- बीमार को दवाइयां, बेरोजगार को रोजगार और अशिक्षित को शिक्षा उपलब्ध कराना।
हमारे मनीषियों ने कहा है कि श्रेष्ठ यह है कि व्यक्ति के अंदर जो श्रेष्ठत्व है, जो किसी कारण दबा हुआ है, उसे उभारा जाए। इस तरह का श्रेष्ठ भाव अंत:करण में रखकर सेवा कार्य में जुटे लोगों को ही ईश्वर संत पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यहां करने वाले भी ईश्वर हैं और जिनके लिए वे कर रहे हैं, वे भी ईश्वर हैं। बिना अपेक्षा किए जो कार्य किया जाता है, वही सेवा है। यही भारत का मूल स्वभाव है। ईश्वर का ऋण हमें ही चुकाना है। इसलिए ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऊर्जा, साधन का उपयोग हम समाज के लिए करें, इसी को ऋण मुक्ति का मार्ग बताया गया है। सेवा से प्रतिष्ठा है, परंतु प्रतिष्ठा के लिए सेवा नहीं है। सेवा का सम्मान है, सम्मान के लिए सेवा नहीं है।
भैय्याजी ने लोगों से इस प्रकार की सेवा का हिस्सा बनने का आह्वान करते हुए कहा कि हमें केवल व्यक्ति के उत्थान के ही नहीं, बल्कि उसके अंदर श्रेष्ठत्व जगाने, उसके भीतर अच्छे जीवन की आकांक्षा जगाने के प्रयास करने होंगे। इस भाव से चलने वाले सेवा कार्य समाज की गरिमा को बढ़ाते हैं।
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