जलांदोलन अभियानकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार डॉ. क्षिप्रा माथुर ने अपने सत्र में जलांदोलन पर पाञ्चजन्य के साथ मिलकर किए गए कार्यों की प्रस्तुति दी। उन्होंने दौसा की चांद बावड़ी का जिक्र किया, जिसे नासा ने अपने विज्ञान प्रोजेक्ट में शामिल कर रखा है। इसे केवल वास्तुकला की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रूप से भी इतनी खूबसूरती से बनाया गया है कि यह अभी भी पानी को उसके शुद्धतम रूप में संग्रहित करती है।
उन्होंने महाराष्ट्र के उस इलाके की एक कहानी भी सुनाई, जहां जहां पानी हजार फीट नीचे था। किसान इस क्षेत्र से पलायन कर रहे थे। उसी क्षेत्र में 25 साल के एक लड़के ने 11 गांवों के लोगों से मुलाकात की।
ग्रामीणों के साथ बातचीत में पता चला कि किसी समय यहां 35 किलोमीटर लंबा एक नाला बहता था, जो वास्तव में बेंद नदी थी। इसे पुनर्जीवित करने की बात आई। सरकार को प्रस्ताव भेजा गया, परंतु बात नहीं बनी। आखिर नाना पाटेकर की टीम साथ आई तब किसानों ने अपनी जमीनें छोड़ीं और डेढ़ साल में बेंद नदी पुनर्जीवित हो उठी।
डॉ. माथुर ने उन कहानियों का भी जिक्र किया, जिसमें सदियों की परंपरा के आधार पर पानी की किल्लत से बचने के लिए नई तरकीबें निकाली गई। रेगिस्तान की नमी को संभालने वाले राजस्थान के खड़ीन की चर्चा की।
इसी तरह उन्होंने कुम्हार के हाथ की छान तकनीक की चर्चा की, जिसमें कुम्हारों ने मिट्टी का परीक्षण किया और मिट्टी के ऐसे घड़े बनाए, जो पानी को स्वत: फिल्टर करते हैं और उनका पानी डब्लूएचओ के शुद्ध पेयजल के मानकों पर खरा उतरता है।
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