इस हिन्दू-विरोधी युद्ध की तीव्रता, व्यापकता और द्वेषावेष्टित उत्कटता की जरा भी अनदेखी करना हिन्दू समुदाय और राष्ट्र के लिए न केवल खतरनाक होगा, बल्कि हमारे अस्तित्व को ही संकटग्रस्त कर देगा।
हिन्दुत्व, हिन्दुओं और सनातन धर्म के विरुद्ध एक वैश्विक जंग छेड़ दी गई है। यह युद्ध कहीं प्रकट है तो कहीं गोपनीय, कहीं मुखर तो कहीं मौन, किन्तु इस हिन्दू-विरोधी युद्ध की तीव्रता, व्यापकता और द्वेषावेष्टित उत्कटता की जरा भी अनदेखी करना हिन्दू समुदाय और राष्ट्र के लिए न केवल खतरनाक होगा, बल्कि हमारे अस्तित्व को ही संकटग्रस्त कर देगा।
द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (डीएमके) के प्रोपराइटर और तमिलनाडु के वर्तमान मुख्यमंत्री स्टालिन के पुत्र उदयनिधि स्टालिन का सनातन धर्म को ‘मिटाने’ का आह्वान और उसके तुरंत बाद छुटभैयों की भीड़ का उसके ऐलान का तोतारटंत न संयोग है, न कोई एकांतिक अलग-थलग घटना। सनातन धर्म के विरुद्ध यह विषवमन हिन्दुओं के विरुद्ध गैर-हिन्दू और विशेषकर अब्राहिमी, असहिष्णु, विस्तारवादी मजहबों के सदियों पुराने जिहाद का नवीनतम अध्याय है।
आप इसे किसी भी दृष्टि से देखें, किन्तु घरेलू राजनीति के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर भी दृष्टि डालें। अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रदेश की असेम्बली ने एसबी 403 विधेयक पारित किया है, जिसके कानून बनने में कोई संदेह नहीं है। यह विधेयक पहली बार अफगान-अमेरिकी विधायक द्वारा अपने वामपंथी-चरमपंथी, खालिस्तानी, मुस्लिम और ईसाई समर्थकों की मदद से तैयार किया गया है, जो कथित तौर पर कैलिफोर्नियावासियों को उनकी जाति की स्थिति के आधार पर भेदभाव से बचाने के लिए है। यह विशुद्ध बकवास है। यह हिन्दुओं को निशाना बनाने वाले समन्वित वैश्विक हमलों में नवीनतम उपद्रव है।
‘हिन्दुओं पर सभी ओर से हमले’ जैसे आरोपों को खारिज करने वाले हिन्दुओं को सर्वथा शक्तिहीन करना चाहते हैं। इस जमात में वे लोग शामिल हैं, जो हिन्दुओं और हिन्दू धर्म को अपने ‘आइडिया आॅफ इंडिया’ के लिए प्राथमिक खतरा और असंदिग्ध चुनौती मानते हैं।
षड्यंत्रों को नकारने की रणनीति
‘शत्रु का शत्रु अपना मित्र है’, यह एक संस्कृत कहावत है, न कि पाश्चात्य राजनीति शास्त्र की देन, जैसा कि कई लोग मानते होंगे। चाणक्य के अर्थशास्त्र के अध्याय 6 में कहा गया है, ‘‘विजेता के क्षेत्र की परिधि पर कहीं भी स्थित राजा शत्रु है। इसी प्रकार, जो राजा शत्रु के निकट स्थित होता है, वह (विजेता का) मित्र है।’’ उसी प्रकार भारत के लिए न केवल सीमावर्ती राज्य शत्रुतापूर्ण हो सकते हैं, बल्कि अन्य राजनीतिक विचारधाराएं और विचारक, आस्था समूह, शिक्षाविद/स्कॉलर, शक्तिशाली पश्चिमी मीडिया और इससे प्रेरित संस्थाएं भी इस परिभाषा के दायरे के अंतर्गत आती हैं। इन षड्यंत्रों में वे शक्तियां भी शामिल हैं, जो वैसे तो एक-दूसरे की विरोधी हैं, लेकिन भारत को लूटने और नोंचने में अपना हिस्सा प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं।
भारत के विरुद्ध इस प्रकार के षड्यंत्रों की विश्वसनीयता को ही खारिज करने की रणनीति हिन्दुत्व पर हो रहे वैश्विक हमलों का एक हिस्सा और उसका महत्वपूर्ण चरण है। ‘हिन्दुओं पर सभी ओर से हमले’ जैसे आरोपों को खारिज करने वाले भारत में हिन्दुओं को सर्वथा शक्तिहीन करना चाहते हैं। इस जमात में वे लोग पूरी तरह शामिल हैं, जो हिन्दुओं और हिन्दू धर्म को उनके ‘आइडिया आफ इंडिया’ यानी उनके ख्वाबों के इंडिया के लिए प्राथमिक खतरा और असंदिग्ध चुनौती मानते हैं।
भारत के सेकुलर जमात के अखबारों, पत्रिकाओं, थिंक टैंक की रिपोर्टों व आधिकारिक सरकारी रिपोर्टों में ‘विश्लेषण’ और ‘संपादकीय’ के रूप में छपने वाली सामग्री की मात्रा से, हिन्दुओं को बदनाम करने वाली और हिन्दुत्व की निंदा करने वाली प्रकाशित पुस्तकों, शोध प्रबंधों और पत्र-पत्रिकाओं में लेखों, इस उद्देश्य से आयोजित ‘सम्मेलनों’ की संख्या और उनमें प्रस्तुत किए गए पत्रों की संख्या को देखकर इस वैश्विक षड्यंत्र का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। हाल के समय में ये प्रयास 1970 के दशक के अंत में एक धारा के रूप में शुरू हुए, 1980 के दशक में यह धारा बढ़ने लगी, 1990 के दशक में एक प्रमुख धारा के रूप में उभरी और पिछले दो दशकों में एक बाढ़ बन गई है।
ईसाइयत और इस्लाम का विस्तारवाद
दुनिया लगभग दो सहस्राब्दियों तक दो सबसे हिंसक, वर्चस्ववादी, विशिष्टतावादी, अब्राहमी मजहबों यानी ईसाई पंथ और इस्लाम के बीच विजित और विभाजित की गई थी। उनके खूनी संघर्षों के परिणाम, उनके सहस्राब्दीय लक्ष्यों और उनकी अंतर्निहित हिंसक प्रवृत्तियों के कारण तथाकथित ‘महान मजहबों’ का उदय हुआ, जिनका वर्चस्व संसार पर एक सहस्राब्दी से भी अधिक समय तक रहा। आज इस्लाम और ईसाई मजहब 193 संप्रभु राज्यों में से लगभग 170 के छिपे या खुले प्रतिनिधि हैं। भले ही इनमें से कई देश यह दावा या अभिनय करते हों कि वे पंथनिरपेक्ष हैं, लेकिन वास्तव में वे नहीं हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी ईसाई पहचान रखती है और हमेशा से उसके प्रत्येक राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बाइबिल की शपथ लेते हैं और अपनी ईसाई निष्ठा दिखाने के लिए निकटतम चर्च जाते हैं।
उधर, मुस्लिम राज्य ‘समानता’ के विचार को न के बराबर महत्व देते हैं और अपने देशों में गैर-मुसलमानों की स्थिति को छिपाने के लिए मामूली अभिनय तक नहीं करते। अपने स्पष्ट इस्लामी संविधानों, जिनके अंतर्गत सार्वभौमिकता केवल अल्लाह के पास है और सारे मनुष्य उसके शाश्वत गुलाम हैं, के बावजूद, ये देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं और चाहे उनके एक-दूसरे के साथ खूनी झगड़े हों, वे अपनी विदेश नीति में कुछ बिंदुओं पर एकमत रहते हैं। भारत एकमात्र ऐसा राष्ट्र है, जिसमें संख्या के अनुपात में हिन्दुओं का दबदबा नहीं है, बल्कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन से स्वतंत्रता के पश्चात भारत खुद को कमजोर करता आ रहा है और झूठी ‘धर्मनिरपेक्षता’ से उसने अपना एक हाथ अपनी पीठ के पीछे बांध लिया है।
सीमाओं से बाहर हो रहे इस षड्यंत्र को देखने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर देश के गद्दारों को इनका मोहरा बनने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है?
सर्वोच्चतावादी विचारधाराओं, आस्थाओं और मजहबों की प्रकृति का मूल है- हावी होकर रहना, हिंसा करना और हिंसा के एकाधिकार का दावा करना। उनके विपरीत भारतीय विचार, विशेषकर हिन्दू परम्पराएं तर्क और अनुभवात्मक ज्ञान पर आधारित हैं। तैत्तिरीय उपनिषद कहता है-
ब्रह्मविदाप्नोति परम्। तदेषाऽभ्युक्ता। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। (तैत. 2.1.1)
अर्थात् सर्वोच्च वास्तविकता स्वर्ग में बैठा कोई सफेद दाढ़ी वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि सत्य, सर्वोच्च अवैयक्तिक है, असीम रूप से व्यापक चेतना है, जो इस ब्रह्माण्ड के रूप में प्रकट होती है। हिन्दू ऋषि-मुनि इस ब्रह्माण्डीय सत्य तक अप्रमाणिक सपनों के आधार पर नहीं, बल्कि कठोर तार्किक प्रक्रिया, प्रयोग और अनुभव से पहुंचे। इस सर्वोच्च सत्य को जमीनों, देशों और समुदायों पर कब्जा करने और लोगों को वश में करने के लिए विशाल सेनाओं की आवश्यकता नहीं है। जहां असहिष्णुता और विस्तारवाद वाली आस्थाएं और विचारधाराएं पिछले दो हजार वर्षों में हुए लगभग सभी नरसंहारों के लिए जिम्मेदार हैं, वहीं भारतीय सभ्यता में नरसंहार का कोई उदाहरण नहीं है।
लक्ष्य पर भारत और हिन्दुत्व
आज तक भारतीय खुद को, अपनी औपनिवेशिक विरासत को और अपने इतिहास को समझते ही आ रहे हैं। उधर, भारत के चिर शत्रुओं ने भारत को कमजोर करने के लिए भारत, हिन्दू धर्म और हिन्दू समुदाय को विभिन्न रणनीतियों से लक्ष्य बनाया है। उद्देश्य स्पष्ट है, हिन्दू धर्म का पतन यानी भारत का पतन और अब्राहमी ताकतों की पूर्ण विजय, जो उनकी बहुप्रतीक्षित अभिलाषा है।
सूचनात्मक युद्ध, जनसांख्यिकीय युद्ध, मजहबी कन्वर्जन, शैक्षणिक हेरफेर और राजनीतिक अस्थिरता इन विस्तारवादी मजहबों और उनसे उत्पन्न विचारधाराओं के कारगर हथियार हैं। जो एजेन्सियां, आस्था समूह, मीडिया प्रतिष्ठान, पत्रकारों के वेश में सक्रिय कार्यकर्ता, राजनीतिकर्मी और वैश्विक आंदोलन हिन्दुओं और हिन्दू धर्म पर विषवमन कर भारत को क्षीण करना चाहते हैं, वे सबसे पहले यह दावा करते हैं कि उनका लक्ष्य हिन्दू धर्म या हिन्दू मनुष्य नहीं बल्कि ‘हिंदुत्व’ है। उनका इरादा भारत को तोड़ने का नहीं, बल्कि भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष’ बनाए रखने का है। यह राष्ट्रविरोधी और हिन्दू-विरोधी भ्रम प्रसारित करने का प्रयास है। लेकिन जो लोग खुद को ‘प्रगतिशील‘ और ‘उदार’ कहते हैं, वे हिंसक, एकाधिकारवादी और वर्चस्व और आतंकवादी समूहों और विचारधाराओं के स्वाभाविक साथी हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि उनका साझा लक्ष्य भारत और हिन्दू/हिन्दुत्व है।
जो हिन्दू इस नैरेटिव को चुनौती देना चाहते हैं, उन्हें पश्चिम के साथ-साथ भारत के प्रमुख, प्रभावशाली शैक्षणिक संस्थानों में सभी बहसों से प्रभावी रूप से बाहर किया गया है और उनकी आवाजों को अनसुना बनाए रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया जाता है। दुनिया भर के प्रभावशाली, शक्तिशाली मीडिया प्रतिष्ठानों द्वारा हिन्दुओं का अब तक मजाक उड़ाया गया है।
सीमाओं से बाहर हो रहे षड्यंत्र को देखने के बाद प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर देश के गद्दारों को इनका मोहरा बनने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है। इसके दो पहलू हैं। हो सकता है भारत में मौजूद हिन्दुत्व विरोधियों के एक वर्ग को ऐसा लगता हो कि वह अपनी बौद्धिक ईमानदारी के तहत हिन्दुत्व का विरोधी है, लेकिन उसका मानसिक और भौतिक तौर पर संचालन करने वाली शक्तियों के लिहाज से वह सिर्फ एक प्यादा होता है। ऐसे लोगों के साथ वैश्विक ईसाईयत, वैश्विक इस्लाम व वैश्विक कम्युनिज्म के हित बहुत गहरे ढंग से जुड़े होते हैं।
एक, इससे उन्हें अपना एजेंडा पूरा करने के लिए भारत के भीतर ही एक राजनीतिक और कथित वैचारिक आधार मिल जाता है। दूसरे, उन्हें अपनी ओर से लड़ने के लिए सस्ते देसी सिपाहियों की पूरी फौज मिल जाती है। देसी सिपाही इसी से प्रसन्न हो लेते हैं कि उन्हें धन मिल रहा है अथवा अपने पापों को छिपाकर रखने का अवसर मिल रहा है। प्यादा होने के नाते उन्हें वह अंतरराष्ट्रीय दुलार भी मिल जाता है, जिसके लिए आप कुछ नेताओं को दुनियाभर के संस्थानों में भारत का मजाक उड़ाने का प्रयास करते देख सकते हैं।
इस प्रकार यह एक अन्योन्य संबंध है। जिस प्रकार मुस्लिम लीग या कम्युनिस्ट पार्टी ने कभी भी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन नहीं किया, जिस प्रकार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के एक वर्ग ने हमलावर चीन के लिए जासूसों और करिंदों जैसा काम किया, उससे यह सिद्ध हो जाता है यह हिंदुत्व पर हमला किसी दल पर हमला नहीं है, बल्कि यह हिंदुत्व को कमजोर करके भारत को खंड-खंड करने की उनकी पुरानी अभीप्सा और देसी प्यादों के सत्ता और धन के मोह का घालमेल मात्र है।
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